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Gautam buddha dharma: बौद्ध धर्म का उदय कब हुआ - बौद्ध धम्म का स्वरूप मूल सिद्धांत शिक्षाएं नियम और मुख्य मान्यताएं

Gautam buddha dharma बौद्ध धर्म का उदय कब हुआ? बौद्ध धम्म का स्वरूप मूल सिद्धांत शिक्षाएं नियम और मुख्य मान्यताएं क्या है?


६०० से लगाकर १२०० ईशा पूर्व तक भारतवर्ष में तीन धर्म- वैदिक, बौद्ध और जैन-मुख्यतः पाए जाते हैं। सातवीं सदी के प्रारंभ-काल में यद्यपि बौद्ध धर्म की अवनति हो रही थी तो भी उसका प्रभाव बहुत कुछ था, जैसा कि हुएन्संग के थाना-विवरण से जान पड़ता है, अतएव हम बौद्ध धर्म का विवेचन पहले करते हैं। भारतवर्ष का प्राचीन धर्म वैदिक था, जिसमें यज्ञ यागादि की प्रधानता थी और बड़े बड़े यज्ञों में पशु हिंसा भी होती थी। मांस- भक्षण का प्रचार भी बढ़ा हुआ था। जैनों और बैद्धिों के जीव-दया-संबंधी सिद्धांत पहले और उसका प्रचार से ही विद्यमान थे, परंतु उनका लोगों पर विशेष प्रभाव न था। शाक्य-वंशी राजकुमार गौतम ( महात्मा बुद्ध ) ने बौद्ध धर्म का प्रचार बढ़ाने का बीड़ा उठाया और उनके उपदेश से अनेक लोग बौद्ध धर्म ग्रहण करने लगे, 


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बौद्ध धम्म को विश्व विख्यात बनाया था मौर्यवंशी सम्राट अशोक ने।


जिनमें बहुत से राजा, राजवंशी, ब्राह्मण, वैश्य आदि भी थे। दिन दिन इस धर्म का प्रचार बढ़ता गया और मौर्यवंशी सम्राट अशोक ने उसे राजर्म बनाकर अपनी प्राज्ञा से यज्ञादि में पशु-हिंसा की रोक टोक की । अशोक के प्रयत्न से बौद्ध धर्म का प्रचार केवल भारतवर्ष तक ही परिमित न रहा, बल्कि भारत के बाहर लंका तथा उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों में उसका प्रचार और भी बढ़ गया। फिर बौद्ध श्रमणों ( साधुओं) और भिक्षुओं के श्रम से शनैः शनैः उसका प्रचार तिब्बत, ) चीन, मंचूरिया, मंगोलिया, जापान, कोरिया, स्याम, बर्मा और सायबीरिया के किरगिस और कलमुक आदि तक फैल गया। यहाँ बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवेचन करना अप्रा- संगिक न होगा। 


बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन दुःखमय है, 


जीवन और उसके सुखों की लालसा दुःखमूलक है, उस लालसा के नष्ट हो जाने से दुःख का नाश हो जाता है और पवित्र जीवन से यह लालसा नष्ट हो जाती है। महात्मा बुद्ध के शब्दों में बौद्ध मत मध्यम पथ है, अर्थात् न तो भोग-विलास में ही आसक्त रहना चाहिए और न अनिद्रा, अना- हार, तपस्या आदि कठोर कष्ट साधनाओं के द्वारा प्रात्मा को क्लेश के देना चाहिए। इन दोनों मार्गों के बीच में रहकर चलना चाहिए। संसार और उसके सब पदार्थ अनित्य और दुःखमय हैं। सब दुःखों का मूल कारण अविद्या है। प्रात्मनिरोध के द्वारा ही प्रात्मा की उन्नति हो सकती है। काम अथवा तृष्णा का सब प्रकार परि- त्याग करने से दुःख का निरोध होता है। इस तृष्णा के नाश ही का नाम निर्वाण है। यह निर्वाण जीवित अवस्था में भी प्राप्त हो सकता है। 


पुनर्जन्म का होना स्वीकार करते हैं


मनुष्य पंच स्कंधों का बना हुआ विशेष प्रकार का एक संध है, जिसमें विज्ञान-स्कंध की मुख्यता है। विज्ञान-स्कंध है को ही हम अपनी परिभाषा में प्रात्मा का स्थान दे सकते हैं। यही पंच स्कंधों का संघ कर्मी के अनुसार भिन्न भिन्न रूपों में शरीर धारण करता है। इसी का नाम पुनर्जन्म है। विशेष साधनों के अनुष्ठान से इन स्कंधों का अपने मौलिक तत्त्वों में अंतर्भाव होना ही महानिर्वाण है। 


वैदिक सिद्धांत अहिंसा परमो धर्मः बौद्ध धम्म का मूल आधार है


बौद्ध धर्म की सबसे बड़ी विशेषता 'अहिंसा परमो धर्मः' है। किसी भी प्रकार की हिंसा करना बड़ा भारी पाप है, परंतु पीछे से भारतवर्ष के बाहर के चौद्धों ने इस मुख्य सिद्धांत की और यथोचित ध्यान न दिया। शील, रामाधि और प्रजायज्ञ ही उत्कृष्ट यज्ञ हैं। 


कुछेक बौद्ध मतों मैं ईश्वर प्रार्थना उपासना का अभाव


बौद्ध धर्म की विशेषता यह है कि वह ईश्वर के विपय में उदासीन है। ईश्वरोपासना के बिना भी उसके अनु- सार मुक्ति या निर्वाण पाया जा सकता है। 



जन्म आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्वीकार करना।


बौद्ध धम्म की विशेषता यह है कि वह हिंदू धर्म के प्रधानभूत अंग वर्णाश्रम को नहीं मानता । उसकी दृष्टि में सब-ब्राह्मण और शूद्र समान रीति से सर्वोच्च स्थान पा सकते हैं। जन्म से नहीं किंतु कर्म से भी मनुष्य की प्रतिष्ठा की जानी चाहिए। 


बौद्धों के त्रिरत्न-बुद्ध, 


त्रिरत्न संघ और धर्म-माने जाते थे। अनेक राजाओं की ओर से संरक्षण पाकर यह धर्म बहुत बढ़ा । समय समय पर बौद्ध भिक्षओं में मत-भेद होते रहने से बौद्धधर्म में भिन्न भिन्न संप्रदाय उत्पन्न हुए । बौद्ध धर्म की अवनति को दूर करने के लिये बौद्ध भिक्षुओं की महा- सभाएँ भी समय समय पर होती रही, परंतु ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यो त्यों मतभेद भी बढ़ते गए। 


बौद्ध धम्म मैं मतभेद।


चीनी यात्री इसिंग के समय में बौद्ध धर्म के १८ भेद हो चुके थे। पीछे से राज्य का सहारा टूट जाने के कारण बहुत शीघ्रता से बौद्ध धर्म की अवनति होने लगी और हिंदू धर्म बहुत तेजी से उन्नति-पथ पर अग्रसर होने लगा, क्योंकि उसे राज्य की भी पर्याप्त सहायता मिल रही थी। उन्नतिशील हिंदू धर्म का प्रभाव बौद्ध धर्म पर बहुत पड़ा। बहुत से बौद्ध भिक्षुओं ने हिंदू धर्म की कई विशेषताओं को ग्रहण कर लिया। 


महायान' मत का उदय।


इसका परिणाम 'महायान' मत के रूप में कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में प्रकट हुआ। प्रारंभिक बौद्ध धर्म संन्यास-मार्ग-प्रधान था। इसके अनुसार ज्ञान और चार आर्य सत्यों की बौद्ध धर्म पर हिद भावना से निर्वाण पाया जा सकता है। बौद्ध धर्म का प्रभाव और महायान मत में ईश्वर की सत्ता नहीं मानी गई थी इसलिये बुद्ध की उपस्थिति में भक्ति के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति का उपदेश नहीं दिया जा सकता था ! महात्मा बुद्ध के पीछे बौद्ध भिक्षुओं ने देखा कि सब लोग गृहस्थी छोड़कर भिक्षु नहीं बन सकते और न शुष्क तथा निरीश्वर संन्यास मार्ग उनकी समझ में पा सकता है। 


बौद्ध धम्म मैं भक्ति पथ और मूर्ति पूजा 


इसलिये उन्होंने भत्ति-मार्ग का सहारा लिया। स्वयं बुद्ध को उपास्य देव मानकर उनकी भक्ति करने का प्रतिपादन किया गया और बुद्ध की मूर्तियाँ बनगे लगी। फिर २४ अतीत बुद्ध, २४ वर्तमान बुद्ध और २४ भाषी बुद्धों की कल्पना की गई। इतना ही नहीं, बोधिसत्वो और अनेक तान्त्रिक देवियों आदि की भी कल्पना की गई और इन सबकी मूर्तियाँ बनने लगी । बौद्ध भिक्षुओं ने गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी भक्तिमार्ग द्वारा निर्वाण पद की प्राप्ति को संभव बताया। इस भक्ति-मार्ग-महायान--पर हिदु धर्म या भगवद्गीता का बहुत प्रभाव पड़ा। इसके कुछ उदाहरगा नीचे दिए जाते है। 


(१) हीनगान संप्रदाय के ग्रंथ पाली में और महायान संप्र- दाय के ग्रंथ संस्कृत में है। 
(२) महायान मार्ग में भक्ति-मार्ग की प्रधानता है 
( ३ ) हीनयान संप्रदाय में महात्मा बुद्ध देवता के रूप में पूजे नहीं जाते थे, परंतु महायान में देवता मानकर बुद्ध की पूजा होने लगी। में भारत में इस महायान संप्रदाय का प्रचार प्रसुत बढ़ता गया।


शेष जानकारी अगले पोस्ट मैं दी जाएगी । आपको जानकारी अच्छी लगती तो हमे अपना राय सुझाव अवश्य देवे। धन्यवाद। 

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