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भारत के दार्शनिक सम्प्रदाय भारतीय दर्शन के संप्रदाय कितने हैं - भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धांत भारतीय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

भारत के दार्शनिक सम्प्रदाय भारतीय दर्शन के संप्रदाय कितने हैं भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धांत भारतीय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा दर्शन कितने प्रकार के होते हैं पुनर्जन्म का सिद्धांत,


भारतीय दर्शन क्या है, भारतीय दर्शन के दो प्रमुख संप्रदाय कौन से हैं?, भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषता, 

दर्शन दो प्रकार के हैं :1. नास्तिक दर्शन 2. (वैदिक) आस्तिक दर्शन।


Nastik Darshan नास्तिक दर्शन तीन प्रकार के हैं,


1. चार्वाक दर्शन (लोकायत दर्शन) (महर्षि चार्वाक)

2. बौद्ध दर्शन (वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार और माध्यमिक (शून्यवाद)

3. जैन दर्शन (स्यादवाद)


Aastik (Vedic) Darshan आस्तिक दर्शन छ: प्रकार के हैं जिन्हें षड् दर्शन कहा जाता है:


1. न्याय दर्शन (महर्षि गौतम)

2. वैशेषिक दर्शन (महर्षि कणाद)

3. साँख्य दर्शन (महर्षि कपिल)

4. योग दर्शन (महर्षि पतंजलि)

5. मीमांसा दर्शन (कर्म मीमांसा) (महर्षि जैमिनी)

6. वेदान्त दर्शन (ब्रह्म सूत्र) (महर्षि बादरायण वेदव्यास)



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भारत के दार्शनिक सम्प्रदाय भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषता,

भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों को साधारणतया आस्तिक और नास्तिक दो वर्गों में रखा जाता है। आस्तिक दर्शन वेदों को प्रमाण मानते हैं। नास्तिक दर्शन वेदों का प्रामाण्य स्वीकार नहीं करते। आस्तिक दर्शनों को आस्तिक कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि वे ईश्वर में विश्वास करते हैं और न नास्तिक दर्शनों को नास्तिक कहने का अर्थ यह है कि वे ईश्वर को नहीं मानते। 

  • न्याय वैशेषिक सांख्य योग मीमांसा और वेदान्तये छः आस्तिक दर्शन हैं। 
  • चार्वाक बौद्ध और जैनदर्शन नास्तिक हैं। ये वेदों का प्रामाण्य नहीं मानते। 
  • सांख्य और मीमांसा निरीश्वरवादी हैं। ये ईश्वर को नहीं मानते फिर भी वेदों को प्रमाण मानने के कारण ये आस्तिक कहे जाते हैं। 
  • न्याय और वैशेषिक छोटेमोटे सैद्धान्तिक भेदों के होते हुए भी प्रकृति आत्मा और ईश्वर के बारे में समान मत रखते हैं। कालक्रम से इनका एकीभाव हो गया और अब इनका संयुक्त सम्प्रदाय न्यायवैशेषिक कहलाता है। 
  • सांख्य और योग की भी प्रकृति और पुरुष के विषय में सम्प्रतिपत्ति है हालांकि सांख्य निरीश्वरवादी है और योग ईश्वरवादी। अत कभीकभी इनको इकट्ठे ही सांख्ययोग कहा जाता है। 
  • मीमांसा के दो सम्प्रदाय हैं जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य कुमारिल भट्ट हैं और दूसरे के आचार्य प्रभाकर। अतः इनको क्रमशः भट्टसम्प्रदाय और प्रभाकर सम्प्रदाय कहते हैं। 
  • वेदान्त के भी दो मुख्य सम्प्रदाय हैं जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य शंकर हैं और दूसरे के आचार्य रामानुज। शंकर का सिद्धान्त अद्वैतवाद या केवलाद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है और रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से। इनके अलावा वेदान्त के कुछ अन्य छोटेमोटे सम्प्रदाय भी हैं जो आचार्य भास्कर मध्व वल्लभ निम्बार्क श्रीकण्ठ बलदेव विद्याभूषण इत्यादि के द्वारा चलाये गये। 
  • मीमांसादर्शन को पूर्वमीमांसा भी कहते हैं क्योंकि इसमें यज्ञ इत्यादि कर्मकाण्ड वेद का पूर्वभाग की मीमांसा की गई है। इसी तरह वेदान्त को उत्तरमीमांसा कहा जाता हैं क्योंकि इसमें ब्रह्म के स्वरूप वेद का उत्तर भाग की मीमांसा की गई है। पूर्वमीमांसा कर्म का विचार करती है और उत्तरमीमांसा ज्ञान का। ये आस्तिक दर्शन हैं। इनमें आपस में बड़े महत्त्वपूर्ण मतभेद हैं फिर भी ये सब वेदों के प्रामाण्य में आस्था रखते हैं। 

इनके अलावा कुछ और भी छोटे छोटे आस्तिक सम्प्रदाय हैं जैसे वैयाकरणों का भी एक दर्शन है और आयुर्वेद का भी एक है इत्यादि।


मुख्य नास्तिक दर्शन तीन हैं, चार्वाक बौद्ध और जैन। 

Charvak Darshan चार्वाक भौतिकवादी हैं। वे केवल भूतद्रव्य को ही तत्त्व मानते हैं। आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व में उनकी आस्था नहीं है। 

Boudh Darshan बौद्ध परिवर्तनवादी हैं। वे परिवर्तन अर्थात् अस्तित्व की अनित्यता में विश्वास करते हैं। नित्यता को वे सत्य नहीं मानते। बौद्धों के अनेक सम्प्रदाय हैं।

वैभाषिक और सौत्रान्तिक सर्वास्तिवादी हैं। ये बाह्यार्थवादी हैं अर्थात् बाह्य वस्तुओं को सत्य मानते हैं। वैभाषिक बाह्य प्रत्यक्षवादी हैं। इनका मत यह है कि बाह्य वस्तुएँ क्षणिक होती हैं और उनका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। सौत्रान्तिक बाह्यानुमेयवादी हैं। इनका मत यह है कि बाह्य पदार्थ जो कि क्षणिक हैं प्रत्यक्षगम्य नहीं हैं बल्कि मन में उनकी जो चेतना पैदा होती है उससे उनका अनुमान होता है। 

योगाचार सम्प्रदाय प्रधानतः विज्ञानवादी है। इसका मत यह है कि बाह्य वस्तुएँ मिथ्या हैं और चित्त में जो कि विज्ञानसन्तान मात्र है विज्ञान पैदा होते हैं जो निरालम्बन हैं। कुछ योगाचार आलय विज्ञानवादी हैं। 

माध्यमिक सम्प्रदाय का मत यह है कि न बाह्य वस्तुओं की सत्ता है और न आन्तरिक विज्ञानों की ये दोनों संवृत्ति मात्र हैं तत्त्व निस्वभाव अनिर्वाच्य और अज्ञेय है। कुछ बौद्ध केवल निरपेक्ष चैतन्य को ही सत्य मानते हैं। 



Jain Darshan जैन द्वैतवादी हैं। ये जीव और अजीव का अस्तित्व मानते हैं। अजीव में पुद्गल भूतद्रव्य भी शामिल है। जैन निरीश्वरवादी हैं। जगत् को रचनेवाला कोई ईश्वर है ऐसा वे नहीं मानते। । चार्वाक बौद्ध और जैन इस कारण नास्तिक कहे जाते हैं कि ये वेदों को प्रमाण नहीं मानते। 


इस प्रकार भारतीय दर्शन में न केवल हिन्दू दर्शनों का बल्कि चार्वाक बौद्ध और जैन दर्शनों का भी समावेश होता है। भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में महत्त्वपूर्ण मतभेदों के होते हुए भी कुछ सामान्य सिद्धान्त पाये जाते हैं,


1, आत्मा का अस्तित्व, 

भारत के सभी आस्तिक दर्शन, आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। न्याय और वैशेषिक आत्मा को एक अविनश्वर और नित्य पदार्थ मानते हैं और इच्छा द्वेष प्रयत्न सुख दुःख तथा ज्ञान को उसके विशेष गुण मानते हैं। आत्मा ज्ञाता कर्ता और भोक्ता है। ज्ञान अनुभूति और संकल्प आत्मा के आगन्तुक धर्म हैं। चैतन्य आत्मा का स्वरूप नहीं है। जब आत्मा मन और शरीर से संयुक्त होता है तभी उसमें चैतन्य की उत्पत्ति होती है। 

मीमांसा का भी मत यही है। मीमांसा आत्मा को नित्य और विभु मानती है तथा चैतन्य को उसका आगन्तुक धर्म मानती है। सुषुप्ति तथा मोक्ष की अवस्था में आत्मा चैतन्यगुण से रहित होता है। 

सांख्य में पुरुष को नित्य और विभु तथा चैतन्यस्वरूप माना गया है। चैतन्य आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं है। आत्मा पुरुष अकर्ता है वह सुखदुःख की अनुभूतियों से रहित है। बुद्धि कर्ता और सुखदुःख के गुणों से युक्त है। बुद्धि प्रकृति का परिणाम है और प्रकृति सतत क्रियाशील है। इसके विपरीत पुरुष शुद्धचैतन्य या ज्ञानस्वरूप है। 

अद्वैत वेदान्त आत्मा को विशुद्ध सत्चित् आनन्दस्वरूप मानता है। सांख्य अनेक पुरुषों को मानता है लेकिन ईश्वर को नहीं मानता। अद्वैत वेदान्त केवल एक ही आत्मा को सत्य मानता है। 


नास्तिक दर्शनों में आत्मा का अस्तित्व.

चार्वाक आत्मा की सत्ता नहीं मानते वे चैतन्यविशिष्ट देह को ही आत्मा कहते हैं.

बौद्ध आत्मा को ज्ञान अनुभूति और संकल्पों की एक क्षणक्षण में परिवर्तित होने वाली विज्ञान सन्तान मानते हैं।

जैन नित्य आत्मा का अस्तित्व मानते हैं। वे मानते हैं कि आत्मा स्वभावतः अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से युक्त है लेकिन सांसारिक अवस्था में इन गुणों के ऊपर अचेतन भौतिक पदार्थ कर्म के अति सूक्ष्म परमाणुओं का आवरण चढ़ा रहता है। 


2, कर्मवाद Law of Karma, भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धांत,

Charvak Darshan चार्वाक, को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन कर्म के नियम में आस्था रखते हैं। कर्म का नियम नैतिकता के क्षेत्र में काम करने वाला कारण नियम ही है। इसका अर्थ यह है कि शुभ कर्म का फल अनिवार्यतः शुभ होता है और अशुभ कर्म का फल अनिवार्यतः अशुभ होता है। अच्छा काम आत्मा में पुण्य पैदा करता है जो कि सुख भोग का कारण बनता है। बुरा काम आत्मा में पाप पैदा करता है जो कि दुःखभोग का । कारण बनता है। सुख और दुःख क्रमशः शुभ और अशुभ कर्मों के अनिवार्य फल हैं। इस नैतिक नियम की पकड़ से कोई भी नहीं छूट सकता। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म सूक्ष्म संस्कार छोड़ जाते हैं जो निश्चय ही भावी सुखदुःख के कारण बनते हैं। वे अवश्य ही फल पैदा करते हैं। इन फलों का भोग इस जन्म में निकट या सुदूर भविष्य में किया जाता है या आगामी जन्मों में किया जाता है। 


Rigved ऋग्वेद ऋत. भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धांत

कर्म के नियम के कारण ही आत्मा को अनेकानेक जन्म लेने पड़ते हैं। कर्म के नियम का बीजरूप ऋग्वेद की ऋत की धारणा में मिलता है। ऋत का अर्थ है जगत् की व्यवस्था। सभी प्राकृतिक घटनाएँ अपनेअपने नियम का अनुसरण करती हैं। प्रकृति के ये नियम ही ऋत हैं। ऋत की धारणा में नैतिक व्यवस्था भी शामिल है। प्रकृति के नियम दैवी इच्छा के प्रकाशन हैं और दैवी इच्छा नैतिक नियम का अनुसरण करती है। विश्व की व्यवस्था के साथ ही नैतिक व्यवस्था भी है। वह दैवी न्याय की अभिव्यक्ति है। सारा विश्व ऋत पर प्रतिष्ठित है और ऋत से गतिमान् है। एक वैदिक विश्वास यह है कि जब सही तरीके से कोई यज्ञ किया जाता है तब वह अदृष्ट अर्थात् एक सूक्ष्म शक्ति को पैदा करता है जो उचित समय आने पर अवश्य ही अपना फल पैदा करती है। यह विश्वास ही कर्म के नियम का एक रूप है। 


भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धांत.

उपनिषदों में तो कर्म के नियम की स्पष्टतः नैतिक नियम के रूप में धारणा की गई है। जैसा हम बोते हैं वैसा ही काटते हैं। शुभ कर्मों से अच्छा चरित्र बनता है और अशुभ कर्मों से बुरा । अच्छे चरित्र से अच्छा जन्म मिलता है। बृहदारण्यक उपनिषद और छान्दोग्य उपनिषदों में कहा गया है कि मनुष्य शुभ कर्म करने से धार्मिक बनता है और अशुभ कर्म करने से पापी तथा इस जन्म में वह जिन वस्तुओं की कामना करता है उनकी प्राप्ति उसे जन्मान्तर में हो जाती है। संसार जन्म और मृत्यु का एक अनन्त चक्र है। मनुष्य अच्छे काम करके अच्छा जन्म पा सकता है और आत्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त करके वह संसार से छूट भी सकता है। 


भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धांत.

न्याय वैशेषिक सांख्ययोग मीमांसा और वेदान्त कर्म के नियम में आस्था रखते हैं। इन आस्तिक दर्शनों का विश्वास है कि अच्छे या बुरे काम अदृष्ट या धर्म तथा अधर्म को पैदा करते हैं जिसका विपाक होने में कुछ समय लगता है और तब सुख या दुःख भोगना पड़ता है। धर्म का कार्य सुख है अधर्म का कार्य दुःख है। कर्म का फल कुछ तो इसी जीवन में मिलता है और कुछ अगले जीवन में। लेकिन कर्म के फल से कभी बचा नहीं जा सकता। संसार में प्रत्येक काम अपने अनुरूप फल को पैदा करता है साथ ही वह मन के एक संस्कार को भी जन्म देता है जो कि आदमी में उस काम को दुहराने की प्रवृत्ति पैदा करता है। भौतिक व्यवस्था पर कारणनियम का शासन है और नैतिक व्यवस्था पर कर्म के नियम का शासन है लेकिन भौतिक व्यवस्था नैतिक व्यवस्था के ही उद्देश्य को पूरा करती है। 


3, पुनर्जन्म का सिद्धांत जन्मान्तरवाद Transmigration,

जन्मान्तरवाद भी Charvak Darshan चार्वाक को छोड़कर बाकी सभी भारतीय दर्शनों का एक सिद्धान्त है। यह कर्म के सिद्धान्त से फलित होता है। कर्म का सिद्धान्त यह माँग करता है कि शुभ कर्मों का शुभ फल मिले और अशुभ कर्मों का अशुभ फल। लेकिन सब कर्मों का फल इसी जीवन में मिल जाना सम्भव नहीं है। इसलिए कर्मफल को भोगने के लिए दूसरा जन्म आवश्यक है। संसार जन्म और मृत्यु की एक अनादि श्रृंखला है। इसका कारण अज्ञान और मिथ्या ज्ञान है। जब तत्त्वज्ञान से अज्ञान का नाश हो जाता है तब संसार का अन्त हो जाता है। संसार बन्ध है। बन्ध का नाश मोक्ष से होता है। बन्ध का कारण अज्ञान है। मोक्ष का कारण तत्त्वज्ञान है। जन्मान्तर या पुनर्जन्म का अर्थ है मृत्यु के बाद आत्मा का दूसरा शरीर धारण करना। शरीर का नाश ही मृत्यु है। आत्मा का नाश नहीं होता। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा बना रहता है और एक ऐसा नया मानवीय पशु इत्यादि का या देवताओं का शरीर धारण करता है जो इस जीवन में किये हुए कर्मों के फलों के उपभोग के लिए सर्वथा उपयुक्त होता है। जन्म जन्मान्तर में आत्मा वही बना रहता है। आत्मा अनेक जन्म तभी ग्रहण कर सकता है जब वह नित्य और अविच्छिन्न हो। 


पुनर्जन्म का सिद्धांत,

सभी आस्तिक दर्शन आत्मा की नित्यता और उसके अनेकानेक जन्म मानते हैं। चार्वाक शरीर प्राण या मन से भिन्न कोई आत्मा नहीं मानते। इसलिए वे जन्मान्तर को भी नहीं मानते। बौद्ध लोग आत्मा को क्षणिक विज्ञानों की एक सन्तान या परम्परा मात्र मानते हैं। फिर भी वे जन्मान्तर मानते हैं। एक विज्ञानस सन्तान का अन्तिम विज्ञान सभी पूर्व विज्ञानों की वासनाओं को आत्मसात् करता है और एक नया उपयुक्त शरीर धारण कर लेता है। वासनाएँ अवचेतन संस्कार हैं। 

इस प्रकार बौद्ध आत्मा की नित्यता तो नहीं मानते लेकिन विज्ञानसन्तान की अविच्छिन्नता अवश्य मानते हैं। जैन लोग आत्मा को एक नित्य द्रव्य मानते हैं जो विज्ञानों के परिवर्तन के बावजूद स्थिर बना रहता है। वे भी आत्मा के जन्मान्तर मानते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जन्मान्तरवाद में आस्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के सम्प्रदायों का विश्वास है। 


4, मोक्ष Liberation,

मोक्ष का सिद्धान्त भी सभी भारतीय दर्शनकारों को मान्य है। केवल चार्वाक इसे नहीं मानते। चार्वाक भौतिकवादी हैं। आत्मा को वे शरीर से भिन्न सत्ता नहीं मानते। इसलिए आत्मा का मोक्ष भी वे नहीं मानते। इस जीवन में और इसी लोक में सुख भोग करना और अन्यों पर प्रभुत्व करना उनकी दृष्टि में मोक्ष है। ऐसे मोक्ष की कल्पना वे कर ही नहीं सकते जिसमें आत्मा एक लोकातीत अवस्था को प्राप्त होता है। बौद्धों ने आत्मा के मोक्ष को निर्वाण कहा है। निर्वाण सब दुःखों के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था है। निर्वाण शब्द का अर्थ है बुझ जाना। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि निर्वाण में आत्मा का अत्यन्त विनाश हो जाता है। इसमें आत्यन्तिक विनाश होता अवश्य है लेकिन केवल दुःख का। कुछ बौद्ध निर्वाण को विशुद्ध आनन्द की अवस्था मानते हैं। 


जैन लोग मोक्ष को आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति मानते हैं अर्थात् मोक्ष अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख और अनन्त वीर्य की अवस्था है। आत्मा अपनी विशुद्ध अवस्था को तब प्राप्त करता है जब सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के द्वारा उसके ऊपर चढ़े हुए कर्मपुद्गल का आवरण पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। मुक्त आत्मा अलोकाकाश में अवस्थान करता है। इस तरह हम देखते हैं कि बौद्ध और जैन मोक्ष को जीवन का परम ध्येय मानते हैं। संसार बन्धन की अवस्था मोक्ष बन्धन से मुक्ति की अवस्थासांख्यदर्शन मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है। विवेक भेद का ज्ञान है। बन्ध इसका उल्टा अर्थात् प्रकृति और पुरुष का अविवेक है। पुरुष नित्य मुक्त है अविवेक के कारण वह प्रकृति और उसके विकारों से अपना तादात्म्य कर लेता है। शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि और अहंकार प्रकृति के विकार हैं लेकिन अविवेकवश पुरुष इन्हें अपना समझ बैठता है। मोक्ष पुरुष की स्वाभाविक अवस्था । की प्राप्ति है। बन्ध एक प्रतीति मात्र है और इसका कारण अविवेक है। योगदर्शन मोक्ष को आत्मा का कैवल्य मानता है। कैवल्य आत्मा के प्रकृति के जाल से छूट जाने की अवस्था है। आत्मा की इस प्रकृत्यातीत अवस्था की प्राप्ति तब होती है जब कठोर तप और आत्मसंयम के द्वारा मन से सब रूढ़ कर्मसंस्कार निकल जाते हैं। 


सांख्य और योग मोक्ष में पुरुष की चिन्मात्र अवस्थिति मानते हैं। इस अवस्था में वह सुख और दुःख से सर्वथा अतीत होता है क्योंकि सुख और दुःख तो बुद्धि की वृत्तियाँ मात्र हैं। मोक्ष चित्स्वरूप अवस्था है। 

न्याय और वैशेषिक दर्शन मोक्ष को आत्मा की वह अवस्था मानते हैं जिसमें वह मन और देह से अत्यन्त वियुक्त हो जाता है और सत्मात्र रहता है। मोक्ष आत्मा की अचेतन अवस्था है क्योंकि चैतन्य तो उसका एक आगन्तुक धर्म है स्वरूप नहीं। जब आत्मा का शरीर और मन से संयोग होता है तभी उसमें चैतन्य का उदय होता है। अतः मोक्ष की अवस्था में इनसे वियोग होने पर चैतन्य भी जाता रहता है। मोक्ष की प्राप्ति तत्त्वज्ञान से होती है। यह दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था है। यह आत्मा का स्वरूप में अवस्थान है। 

मीमांसा दर्शन में भी मोक्ष को आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति माना गया है जिसमें सुख और दुःख का अत्यन्त विनाश हो जाता है। अपनी स्वाभाविक अवस्था में आत्मा अचेतन होता है। मोक्ष दुख के आत्यन्तिक अभाव की अवस्था है। लेकिन इसमें आनन्द की अनुभूति नहीं होती। आत्मा स्वाभावतः सुख और दुःख से अतीत है। मोक्ष की अवस्था में ज्ञान शक्ति तो रहती है लेकिन ज्ञान नहीं रहता। 

अद्वैत वेदान्त मोक्ष को जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव की उपलब्धि मानता है। परमार्थतः आत्मा ब्रह्म ही है। आत्मा विशुद्ध सत् चित् और आनन्दस्वरूप है। बन्ध मिथ्या है और अविद्या इसका कारण है। आत्मा अविद्यावश शरीर ज्ञानेन्द्रिय मन बुद्धि और अहंकार के साथ अपना तादात्म्य कर लेता है जो कि मायानिर्मित हैं। यही मिथ्या तादात्म्य बन्ध का कारण है। अविद्या से आत्मा का बन्धन होता है और विद्या से इस बन्धन की निवृत्ति होती है। मोक्ष आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है। यह न चैतन्यरहित अवस्था है और न दुःखाभाव मात्र की अवस्था है बल्कि विशुद्ध सत् चित् और आनन्द की ब्राह्मी अवस्था है। यह जीवात्मा के ब्रह्मभाव की प्राप्ति है। इस प्रकार मोक्ष की धारणा सभी भारतीय दर्शनों में पायी जाती है। वास्तव में मोक्ष की प्राप्ति ही दार्शनिक चिन्तन का लक्ष्य है। 


5, नैतिक अनुशासन

सभी भारतीय दर्शन कठोर संयम नैतिक अनुशासन अनवरत तत्त्व चिन्तन सम्यक् श्रद्धा और अनन्यभाव को तत्त्व के साक्षात्कार और उसके पश्चात् होनेवाले मोक्ष के लिए आवश्यक मानते हैं। सदाचारमय जीवन और तत्त्व का दर्शन घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं। तत्त्वमीमांसा और नैतिक अनुशासन को एकदूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। विभिन्न दर्शनकार नैतिक जोवन के अलगअलग पक्षों पर बल देते हैं। कोई सम्यक् ज्ञान को महत्त्व देता है कोई सम्यक् कर्म को कोई सम्यक् श्रद्धा को तो कोई भक्ति को। फिर भी सभी इन्द्रिय निग्रह अहिंसा और सुखभोग की इच्छा के संयम का महत्त्व स्वीकार करते हैं। इस प्रकार सभी भारतीय दर्शनों में साधना के विषय में ऐक्य है। ६ संसार की दुःखमयता और दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति में विश्वासकुछ आलोचकों ने भारतीय दर्शन को दुःखवादी कहा है। जीवन दुःखमय है। जीवन और दुःख का साथ अनिवार्य है। संसार जन्म और मृत्यु की अनादि परम्परा है और जन्ममृत्यु दोनों ही दुःखमय हैं। बौद्धधर्म में जीवन के दुःखों की एक अतिरंजित तस्वीर खींची गई है। सांख्य और योग में भी मनुष्यजीवन के दुःखों को खूब बढ़ाचढ़ाकर कहा गया है। 


महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्यों को समझा था

1, सब कुछ दुःखमय है,

2, दुःख का कोई कारण है 

3, दुःख का विनाश हो सकता है और,

4, दुःख से निवृत्ति पाने का एक उपाय है। 


बौद्धधर्म के इस दुःखवादी दृष्टिकोण ने कई भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों को अपनी छाया से ग्रसित किया। लेकिन साथ ही बौद्धों का सर्वदुःखोपशम में भी विश्वास था। सांख्य और योग ने भी दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति को जीवन का परम लक्ष्य माना और इसका उपाय बताया। सभी दर्शनों ने मोक्ष में विश्वास प्रकट किया और किसी ने मोक्ष को सब प्रकार के दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति माना तो किसी ने उसे दुःखलेशशून्य आनन्द की अवस्था माना। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय दर्शन संसार के प्रति दुःखवादी दृष्टिकोण रखते अवश्य हैं लेकिन जीवन के चरम ध्येय मोक्ष को वे दुःखातीत मानते हैंदुःखनिवृत्ति में उनका विश्वास है। अतः भारतीय दर्शन प्रारम्भिक दुःखवाद pessimism तथा अन्तिम सुखवाद optimism या आनन्दवाद या दुःखान्तवाद में विश्वास करता 


प्रमाण सभी भारतीय दर्शन कुछ प्रमाणों को मानते हैं वे प्रमाणों का आधार लिये बिना अपने सिद्धान्तों का उपदेश नहीं करते। उनकी तत्त्व मीमांसा प्रमाण मीमांसा पर प्रतिष्ठित है। तत्त्वमीमांसा यह विचार करती है कि तत्त्व क्या है और प्रमाणमीमांसा यह विचार करती है कि सही ज्ञान क्या है। 

चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं। अनुमान को वे अप्रमाण समझते हैं। 

बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान को प्रमाण मानते हैं। 

सांख्य प्रत्यक्ष अनुमान और शब्द को प्रमाण मानता है। 

न्याय प्रत्यक्ष अनुमान शब्द और उपमान को प्रमाण मानता है। 

भाट्टमीमांसा और अद्वैत वेदान्त प्रत्यक्ष अनुमान शब्द उपमान अर्थोपत्ति और अनुपलब्धि को प्रमाण मानते हैं। सभी 


भारतीय दर्शन इन विविध प्रमाणों के स्वरूप संख्या और प्रामाण्य का विचार करते हैं। 

वेदों के प्रामाण्य Authority में विश्वाससभी आस्तिक दर्शन वेदों का प्रामाण्य मानते हैं। वे तर्क का स्थान तर्कातीत अपरोक्षानुभूति intuition से गौण मानते हैं। वेदों को प्रमाण मानने का अर्थ है अपरोक्षानुभूति को प्रमाण मानना। अपरोक्षानुभूति तत्त्व का साक्षात्कार है। यह ज्ञान है अनुभूति नहीं और न यह इन्द्रियों से होनेवाला प्रत्यक्ष है। अपरोक्षानुभूति तर्क वितर्क या बौद्धिक ज्ञान से ऊपर की वस्तु है। यह बुद्ध्यतीत साक्षात्कारी ज्ञान है। अपरोक्षानुभूति में आत्मा को तत्त्व का सीधे अपरोक्ष ज्ञान होता है। इसका साक्षात्कारित्व अनुभूति और इन्द्रिय प्रत्यक्ष के साक्षात्कारित्व से ऊँचे दर्जे की चीज है। यह इन्द्रियातीत तथा तर्कातीत है यह सत्य का साक्षात् दर्शन है। तर्क को अपरोक्षानुभूति से हीन माना गया है। अपरोक्षानुभूति तर्क को पराभूत कर सकती है लेकिन तर्क अपरोक्षानुभूति के ऊपर हावी नहीं हो सकता। इसलिए तर्क को अपरोक्षानुभूति के निर्देशन में चलना चाहिए। विभिन्न भारतीय दर्शनों ने तर्क के द्वारा तत्त्व के विषय में विभिन्न सिद्धान्त बनाये हैं और जिन निष्कर्षों पर वे पहुंचे हैं उनके समर्थन में उन्होंने विभिन्न वैदिक । और उपनिषद्वाक्यों को उद्धृत किया है। इस प्रकार भारतीय दर्शनकारों ने वेदवाक्यों को निष्पक्ष होकर समझने की कोशिश नहीं की है। 


भारतीय दर्शन तर्क वितर्क पर प्रतिष्ठित है जो कि कुछ सीमाओं के अन्दर स्वतन्त्र है। भारतीय दर्शन तर्क निरपेक्ष नहीं है बल्कि आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखता है। वह प्रमाणमीमांसा पर आधारित है। प्रत्येक भारतीय दर्शन का अपना एक अलग ही ज्ञानसिद्धान्त है। प्रत्येक ने ज्ञान के स्वरूप और उद्गम का तथा ज्ञान के विभिन्न प्रकारों के प्रामाण्य का विचार किया है। शब्द या शास्त्र के प्रामाण्य की परीक्षा भी एक विशाल पैमाने पर की गई है। भारतीय दर्शनकारों ने बिना सोचेसमझे वेदों को प्रमाण नहीं माना है। 


भारतीय दर्शन में बाह्यार्थवाद और विज्ञानवाद अद्वैतवाद द्वैतवाद भेदाभेदवाद एकतत्त्ववाद अनेकतत्त्ववाद भौतिकवाद अध्यात्मवाद ईश्वरजगद्देदवाद सर्वेश्वरवाद और विश्वमध्य ईश्वरवाद के अनेक रूप मिलते हैं। इसलिए यह कहना गलत होगा कि भारतीय दर्शन युक्ति निरपेक्ष और अप्रगतिशील है तथा वेदों और उपनिषदों का अन्धानुयायी है। वास्तव में वेदों और उपनिषदों में विभिन्न प्रकार के विचार बीजरूप में मिलते हैं और विभिन्न भारतीय दर्शनकारों ने स्वतन्त्र विचार की सहायता से इन विचारों को सिद्धान्तों के रूप में विकसित किया है। 

जगत् या प्रपंच की सत्यता 

सभी भारतीय दर्शन जगत् को सत्य मानते हैं। कम सेकम उसके व्यावहारिक या प्रातीतिक अस्तित्व को तो स्वीकार करते ही हैं। न्यायवैशेषिक मानता है कि जगत् सत्य है दिक् और काल में अवस्थित है कार्यकारण के नियम के अधीन है तथा कर्म के नियम के अनुसार व्यवस्थित है। जगत् एक भौतिक व्यवस्था भी है और एक नैतिक व्यवस्था भी। न्यायवैशेषिक में भौतिक जगत् की उत्पत्ति दिक्काल में स्थित परमाणुओं से मानी गई है। सांख्ययोग भी जगत् को सत्य मानते हैं तथा उसको प्रकृति का परिणाम बताते हैं जो कि मूलतः सत्त्व रजस् और तमस् इन तीन गुणों को साम्यावस्था है। मीमांसा भी जगत् को सत्य मानती है और उसकी उत्पत्ति का मूल परमाणुओं तथा कर्म के नियम को बताती है। 

रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद भी जगत् को सत्य कहता है और त्रिगुणात्मिक प्रकृति से उसका विकास मानता है जो कि ईश्वर की इच्छा के अधीन काम कराी है। शंकर का अद्वैत वेदान्त जगत् को व्यावहारिक दृष्टि से सत्य मानता है लेकिन उसे भ्रम नहीं मानता। जगत् की व्यावहारिक सत्ता है। पारमार्थिक दृष्टि से निश्चय ही वह सत्य नहीं है। माध्यमिक शून्यवादी नागार्जुन भी जगत् को संवृत्तिसत्य मानता है उसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं मानता। केवल योगाचारसम्प्रदाय ही ऐसा है जो जगत् को विज्ञानमात्र अर्थात् द्रष्टा के मन की कल्पनामात्र मानता है। इसमें जगत् के अस्तित्व को द्रष्टा के मन के बाहर नहीं माना गया है। 


बौद्धों का वैभाषिकसम्प्रदाय जगत् को सत्य और प्रत्यक्ष का विषय मानता है। सौत्रान्तिक सम्प्रदाय भी जगत् को सत्य और अनुमानगम्य मानता है। जैनों ने बाह्य जगत् को दिक्काल में अवस्थित और परमाणुओं से बना हुआ माना है। इस तरह स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन अधिकांशतः जगत् को सत्य मानते हैं। ये भारतीय दर्शनों के सामान्य सिद्धान्त हैं।



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