valmiki ramayana mahatmyam बालकाण्ड प्रथम सर्ग नारद जी ने वाल्मीकि जी को संक्षित मैं पूरी रामायण कथा सुनाई। वाल्मीकि रामायण का क्या उद्देश्य था?
तपस्वी वाल्मीकि ने तप और स्वाध्याय में लगे रहने वाले वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनिवर नारद जी से पूछामुने इस समय संसार में गुणवान् धर्मज्ञ सत्यवक्ता दृढ़प्रतिज्ञ समस्त प्राणियों का हितसाधक विद्वान् मन पर अधिकार रखने वाला एकमात्र प्रियदर्शन पुरुष कौन है महर्षे मैं यह सुनना चाहता हूँ। आप ऐसे पुरुष को जानने में समर्थ हैं।
Valmiki Ramayan वाल्मीकि रामायण का मंगलाचरण।
यह सुनकर नारद जी अच्छा सुनिये कहकर बोले मुने आपने जिन बहुत से दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है उनसे युक्त इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न एक ऐसे पुरुष हैं जो राम नाम से विख्यात हैं। वे ही मन को वश में रखने वाले महाबलवान् कान्तिमान धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं। धर्म के ज्ञाता सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजा के हितसाधन में लगे रहने वाले हैं। वे आर्य एवं सब में समान भाव रखने वाले हैं उनका दर्शन सदा ही प्रिय लगता है।
संक्षिप्त रामायण कथा।
राम के सम्बन्ध में आगे बताते हुए नारद मुनि ने कहा कि राजा दशरथ ने अपने पुत्र राम को युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहा परन्तु उनकी एक रानी कैकेयी ने यह वर माँगा कि राम को वनवास मिले तथा भरत कैकेयी के पुत्र का राज्याभिषेक हो। राजा दशरथ ने सत्यवचन के कारण अपने प्रिय पुत्र राम को वनवास दे दिया। पिता की आज्ञा का पालन करते हुए श्री राम अपनी पत्नी सीता तथा छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वन को चले गये। शृंगवेरपुर में गंगातट पर निषादराज गुह से भेंट के बाद उन्होंने रथ को लौटा दिया तथा भ्रमण करते हुए भरद्वाज आश्रम पहुँचे। भरद्वाज मुनि की ही आज्ञा से श्री राम ने चित्रकूट में अपना निवास बनाया। पुत्रशोक से पीड़ित राजा दशरथ स्वर्गवासी हो गये तथा भरत राज्य की कामना न करके पूज्य राम को लौटाने के लिए चित्रकूट गये। श्री राम ने पिता की आज्ञापालन का संकल्प बताते हुए भरत को अयोध्या लौटा दिया तथा अपने खड़ाऊँ भरत को दिये। भरत खड़ाऊँ को सिंहासन पर स्थापित करके नन्दिग्राम में रहकर राज्य करने लगे। भरत के चित्रकूट से लौटने के बाद श्री राम ने दण्डकारण्य में प्रवेश किया।
राम कथा।
वहाँ विराध नामक राक्षस को मारकर वे शरभंग सुतीक्ष्ण अगस्त्य आदि मुनियों से वे मिले। अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को ऐन्द्र धनुष खंग तथा दो तूणीर दिये जिनमें वाण कभी घटते नहीं थे। राक्षसों के अत्याचार का वर्णन सुनकर श्री राम ने ऋषियों को वचन दिया कि वे राक्षसों का विनाश करेंगे। सीता पर झपट रही शूर्पणखा नामक राक्षसी को लक्ष्मण ने कुरूप कर दिया तथा उसके कहने से चढ़ाई करने वाले खर दूषण त्रिशिरा आदि सभी चौदह सहस्र १४००० राक्षसों को श्री राम ने जनस्थान में मार गिराया। अपने कुटुम्ब का वध सुनकर रावण ने मारीच की सहायता से सीता का हरण किया तथा उनकी रक्षा में जटायु का वध हुआ। तदनन्तर सीता को खोजते समय राम ने कबन्ध नामक राक्षस को मारा तथा शबरी के आश्रम पर गये। धर्मपरायणा शबरी ने श्रीराम का भली भाँति पूजन किया। फिर श्रीराम की हनुमान् से भेंट हुई तथा उन्होंने सुग्रीव से मैत्री स्थापित की। सुग्रीव के भाई वाली ने उसे राज्य से निकाल दिया था। श्री राम ने वाली का वध करके सुग्रीव को राज्य पर स्थापित किया। सुग्रीव ने वानरों को सीता का पता लगाने भेजा। हनुमान् की सीता से भेंट हुई। समाचार मिलने पर श्रीराम ने समुद्र के कहने पर नल द्वारा समुद्र पर पुल बँधवाया तथा लंकापुरी जाकर रावण को मारा। सीता की अग्निपरीक्षा हुई तथा अपने सभी अनुचरों के साथ श्रीराम अयोध्या आकर राज्य पर प्रतिष्ठित हुए। अब राम के राज्य में लोग प्रसन्न सुखी संतुष्ट पुष्ट धार्मिक तथा रोगव्याधि से मुक्त रहेंगे। सत्ययुग की भाँति सभी लोग सदा प्रसन्न रहेंगे। फिर ग्यारह सहस्र ११००० वर्षों तक राज्य करने के अनन्तर श्रीराम अपने परमधाम को पधारेंगे।
मुनि वाल्मीकि के मुख से प्रथम श्लोक का प्रस्फुटन रामायण काव्य का सृजना देवर्षि नारद जी के वचन सुनकर ऋषि वाल्मीकि ने शिष्यों सहित उनका पूजन किया तथा नारद जी आकाशमार्ग से चले गये।
रामायण श्लोक रचना।
उनके जाने के बाद मुनि वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर गये। वहाँ उन्होंने क्रौञ्च पक्षियों के एक जोड़े को देखा। उन्हीं के सामने एक निषाद ने उस जोड़े में से एक नर पक्षी को मार डाला। उसकी भार्या क्रौञ्ची करुणाजनक चीत्कार कर उठी। उस नर पक्षी की वह दुर्दशा देख ऋषि को बड़ी दया आयी और रोती हुई क्रौञ्ची की ओर देखते हुए उन्होंने निषाद से इस प्रकार कहा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।
निषाद तुझे कभी भी प्रतिष्ठा शान्ति न मिले क्योंकि तूने इस क्रौञ्च के जोड़े में से एक की जो काम से मोहित हो रहा था बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली।
तभी वाल्मीकि के मन में विचार कौंधा कि मैंने यह क्या कहा और कैसे कह डाला उन्होंने इस पर चिन्तन किया।
तब अपने शिष्य से वे बोले, तात मेरे मुख से जो वाक्य निकल पड़ा यह चार चरणों में आबद्ध है। इसे वीणा की लय पर गाया भी जा सकता है। अतः मेरा यह वचन श्लोकरूप होना चाहिये। उनका ध्यान उस श्लोक की ओर ही लगा था कि इतने में ब्रह्मा जी मुनि वाल्मीकि से मिलने के लिए उनके आश्रम पर आये। उन्हें देखते ही वाल्मीकि सहसा खड़े हो गये ब्रह्मा जी का पूजन किया तथा उनके आसन पर विराजमान होने के बाद बैठे। उनका मन पक्षी वाली घटना की ओर ही लगा था इसलिए उन्होंने ब्रह्मा जी के सामने उसी श्लोक को दुहराया।
ब्रह्म जी ने वाल्मीकि जी को राम कथा रचने को प्रेरित किया।
ब्रह्मा जी ने कहा, ब्रह्मन् तुम्हारे मुँह से निकला यह छन्दोबद्ध वाक्य श्लोकरूप ही है। इसी में तुम श्री राम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करो।
श्री राम के जो गुप्त या प्रकट वृत्तान्त हैं वे सब अज्ञात होने पर भी तुम्हें ज्ञात हो जायेंगे। इस पृथ्वी पर जब तक नदियों और पर्वतों की सत्ता रहेगी तब तक संसार में रामायण कथा का प्रचार होता रहेगा। ऐसा कहकर भगवान् ब्रह्मा जी वहीं अन्तर्धान हो गये। महर्षि वाल्मीकि श्री राम के जीवनवृत्त का पुनः भली भाँति साक्षात्कार करने के लिए प्रयत्न करने लगे। योग का आश्रय लेकर महर्षि ने पूर्वकाल में जोजो घटनाएं घटित हुई थीं उन सब को प्रत्यक्ष देखा और महाकाव्य का रूप देने की चेष्टा की। नारद जी ने पहले जैसा वर्णन किया था उसी के क्रम से वाल्मीकि मुनि ने श्री राम के चरित्र रामायण काव्य का निर्माण किया। इसमें महर्षि ने चौबीस सहस्र २४ हजार श्लोक पाँच सौ सर्ग तथा उत्तरकाण्ड सहित सात काण्डों का प्रतिपादन किया है। पूर्ण कर लेने के बाद मुनि ने सोचा कि कौन ऐसा होगा जो इस महाकाव्य को पढ़कर जनसमुदाय में सुना सके उसी समय कुश और लव ने आकर उन्हें प्रणाम किया। उन्हें योग्य समझकर मुनि ने कुश और लव को रामायण का अध्ययन कराया।
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