हनुमान जी सीता का पता लगाने के लिए लंका मै घूम रहे। - सीता की खोज मै निकले,
वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड षष्ठः सर्गः छठा सर्ग श्लोक १ से २३ तक
स निकामं विमानेषु विषण्णः कामरूपधृत् । । विचचार कपिर्लङ्कां लाघवेन समन्वितः ॥१॥
अपनी इच्छानुसार रूप धारण किये कपिश्रेष्ठ हनुमान, विषादित हो, जल्दी जल्दी अटारियों पर चढ़ चढ़ कर, लङ्कापुरी में विचरने लगे ॥१॥
आससादाथ लक्ष्मीवान्राक्ष सेन्द्रनिवेशनम् । प्राकारेणार्कवर्णेन भास्वरेणाभिसंवृतम् ॥ २॥
वे राक्षसराज रावण के भवन के समीप पहुँचे। वह राजभवन सूर्य सदृश चमकीले परकोटे से घिरा हुआ था ॥२॥ 1
रक्षितं राक्षसीभैः सिंहरिव महद नम । समीक्षमाणो भवनं १चकाशे कपिकुञ्जरः ॥ ३॥
जिस प्रकार सिंहों से कोई महावन रक्षित होता है, उसी प्रकार वह राजभवन बड़े बड़े राक्षसों से रक्षित था। उस राजभवन की बनावट और सजावट देख हनुमान जी प्रसन्न हो गये ॥३॥
रूप्यकोपहितैश्चित्रस्तोरणेहेमभूषितः । विचित्राभिश्च कक्ष्याभिरिश्च रुचिरैतम् ॥ ४ ॥
उस राजभवम का तोरणद्वार चांदी का था और चांदी के ऊपर सोने का काम किया गया था। उस भवन की ड्योढ़ियाँ तरह तरह की बनी हुई थीं । वहाँ की भूमि और दरवाजे विविध प्रकार के बने थे । वे देखने में सुन्दर और भवन की शोभा बढ़ाने वाले थे॥४॥
गजास्थितैर्महामात्रैः२ शुरैश्च विगतश्रमैः । उपस्थितमसंहाहयैः स्यन्दनयायिभिः ॥ ५॥
वहां पर श्रमरहित (अथवा सहसा न थकने वाले ) शूरवीर ओर हाथियों पर चढ़े हुए महावत, मौजूद थे। ऐसे वेगवान कि, जिनका वेग कोई रोक न सके, ऐसे रथों में जोते जाने वाले घोड़े भी वहाँ उपस्थित थे ॥ ५॥
सिहव्याघ्रतनुत्राणैर्दान्तकाञ्चनराजतैः । । घोषवद्भिर्विचित्रैश्च सदा विचरितं रथैः ॥ ६॥
सिंह और व्यान के चर्म को धारण किये हुए; सोने, चांदी, और हाथीदांत की प्रतिमाओं (खिलौनों) से सुसजित तथा गम्भीर शब्द करने वाले विचित्र रथ, भवन के चारों ओर ( रक्षा के लिये ) घूमा करते थे ॥६॥
बहरत्नसमाकीण पराध्यासनभाजनम् । महारथसमावापं महारथमहास्वनम् ॥ ७॥
वहाँ पर विविध प्रकार के श्रेष्ठ अनेक रत्न जटित मूढ़े, कुर्सी प्रादि रखे हुए शोभा दे रहे थे। वहां पर बड़े बड़े महारथियों के रहने के मकान ( बारक) बने हुए थे और वहाँ सदा महारथियों का सिंहनाद हुआ करता था। अर्थात् राजभवन के पहरे पर बड़े बड़े महारथी नियुक्त थे ॥ ७ ॥
नोट-महारथी का लक्षण यह बतलाया गया है:
दृश्यैश्च परमोदारैस्तैस्तैश्च मृगपक्षिभिः । या विविधैर्बहुसाहस्रैः परिपूर्ण समन्ततः ॥ ८ ॥
वह राजभवन बड़े बड़े डीलडौल के हज़ारों देखने योग्य पक्षियों और मृगों से भरा हुआ था ॥८॥
सहि विनीतैरन्तपालैश्चर रक्षाभिश्च सुरक्षितम् । को मुख्याभिश्च वरस्त्रीभिः परिपूर्ण समन्ततः ॥९॥
विनीत वाहनरक्षक राक्षसों द्वारा उस राजभवन की रखवाली की जाती थी और मुख्य मुख्य सुन्दरी नियां उस राजभवन में सर्वत्र देख पड़ती थीं ॥ ६॥ का मुदितममदारत्नं राक्षसेन्द्रनिवेशनम् ।
वराभरणसंहादैः समुद्रस्वननिःस्वनम् ॥ १० ॥
प्रसन्नवदना स्त्रीरत्नों के सुन्दर श्राभूषणों की मधुर झनकार से रावण का राजभवन समुद्र की तरह ( सदा ) शब्दायमान रहा करता था॥ १०॥
तद्राजगुणसम्पन्नं मुख्यश्चागुरचन्दनैः । महाजनैः समाकीर्ण सिंहैरिव महद्वनम् ॥ ११ ॥
वह सुगन्धित धूपादि मुख्य मुख्य राजोपचार सामग्रियों से परिपूर्ण था। जिस प्रकार महावन में सिंह रहैं, उसी प्रकार उस भवन में मुख्य मुख्य राक्षस रहा करते थे ॥ ११ ॥
भेरीमृदङ्गाभिरुतं शङ्खघोषविनादितम् । नित्यार्चितं पर्वहुतं पूजितं राक्षसैः सदा ॥ १२॥
वह भेरी, मृदंग, और शङ्ख के शब्दों से प्रतिध्वनित हुश्रा करता था तथा उस भवन में नित्य अर्चन और पर्व दिवसों में राक्षसों द्वारा हवनादि भी हुश्रा करते थे ॥ १२॥
हनुमान जी सीता का पता लगाने के लिए लंका मै घूम रहे। - सीता की खोज मै निकले हनुमान जी, हनुमान जी के कितने छोटे बड़े रूप है, सीता माता, हनुमान जी का लंका में प्रवेश, हनुमान जी लंका में
महारत्नसमाकीर्णं ददर्श स महाकपिः । ने विराजमानं वपुषा गजाश्वरथसङ्कलम् ॥ १४ ॥
कभी कभी रावण के डर के मारे राजभवन समुद्र की तरह गम्भीर और निःशब्द बना रहता था। अर्थात् वहाँ कोलाहल नहीं होने पाता था। उत्तम उत्तम सामग्री से तथा भरे हुए उत्तम रत्नों से रावण के विशाल राजभवन को हनुमान जी ने देखा। उस भवन में जहाँ तही गज, अश्व और रथ मौजूद थे १३ ॥१४॥
लङ्काभरणमित्येव सोऽमन्यत महाकपिः । चचार हनुमांस्तत्र रावणस्य समीपतः ॥१५॥
हनुमान जी ने उस राजभवन को लङ्कापुरी का भूषण समझा । वे अब उस स्थान पर गये, जहां रावण सो रहा था ॥ १५ ॥
गृहागृहं राक्षसानामुद्यानानि च वानरः । वीक्षमाणो ह्यसंत्रस्तः प्रासादांश्च चचार सः॥१६॥
हनुमान जो राक्षसों के एक घर से दूसरे घर में तथा उनके उद्यानों में जा जा कर, सीता को दृढ़ रहे थे । यद्यपि वे रूप बदल कर घूम रहे थे, तथापि उनको किसी प्रकार का भय नहीं था। वे भवनों में घूम फिर रहे थे ॥१६॥
अवप्लुत्य महावेगः प्रहस्तस्य निवेशनम् । ततोऽन्यत्पुप्लुवे वेश्म महापार्श्वस्य वीर्यवान् ॥ १७॥
महावेगवान् हनुमान जी कूद कर प्रहस्त के भवन में घुसे। वहां से कूद कर, महावली महापर्व के घर में गये ॥ १७ ॥
अथ मेघप्रतीकाशं कुम्भकर्णनिवेशनम् । विभीषणस्य च तथा पुप्लुवे स महाकपिः ॥ १८ ॥
म तदनन्तर वे कुम्भकर्ण के मेघ की सदृश विशाल भवन में गये । वहाँ से छलांग मार वे विभीषण के घर पर पहुँचे ॥ १८ ॥
वज्रदंष्ट्रस्य च तथा पुप्लुवे स महाकपिः। शुकस्य च महावेगः सारणस्य च धीमतः ॥ २० ॥
तदनन्तर क्रमशः उन्होंने महोदर, विरूपाक्ष, विद्युजिह्व, विद्य न्माली, वज्रदंष्ट, महावेगवान शुक और बुद्धिमान् सारण के घरों की तलाशी ली ॥ १६ ॥ २० ॥
तथा चेन्द्रजितो वेश्म जगाम हरियूथपः । जम्बुमालेः सुमालेश्च जगाम भिवनं ततः ॥ २१ ॥
तदनन्तर वे वानरयूथपति हनुमान जी इन्द्रजीत-मेघनाद के घर में गये। वहाँ से वे जम्बुमालो, सुमाली के भवनों में गये॥२१॥
रश्मिकेतोश्च भवनं स्वर्यशत्रोस्तथैव च । वज्रकायस्य च तथा पुप्लुवे स महाकपिः ॥ २२ ॥
कि हनुमान जी ने रश्मिकेतु, सूर्यशत्रु और वज्रकाय के घरों में जाकर सीता को ढूढा ॥२२॥
धूम्राक्षस्याथ सम्पातेर्भवनं मारुतात्मजः । विद्यु पस्य भीमस्य घनस्य विधनस्य च ॥ २३ ॥
पवननन्दन हनुमान जी ने धूमाक्ष, सम्पात, विद्युद्र प, भीम, घन और विघन के घरों को हूँदा ॥ २३
वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड षष्ठः सर्गः छठा सर्ग श्लोक २४ से
शुकनासस्य वक्रस्य शठस्य विकटस्य च । हस्वकर्णस्य दंष्ट्रस्य रोमशस्य च रक्षसः॥ २४॥
फिर शुकनास, वक्र, शठ, विकट, हस्वकर्ण, दंष्ट्र, रामश राक्षस के घरों को देखा ॥ २४ ॥
युद्धोन्मत्तस्य मत्तस्य ध्वजग्रीवस्य रक्षसः । विद्युज्जिद्वेन्द्रजिह्वानां तथा हस्तिमुखस्य च ॥ २५ ॥
फिर वे युद्धोन्मत्त, मत्त, ध्वजग्रीव, विद्युजिह्व, इन्द्रजिह्व और हस्तिमुख नामक राक्षसों के घरों में गये ॥ २५ ॥
करालस्य पिशाचस्य शोणिताक्षस्य चैव हि । मा क्रममाणः क्रमेणैव हनुमान्मारुतात्मजः ॥ २६ ॥
फिर कराल, पिशाच, शोगिताक्ष के घरों में पवननन्दन हनु मान जी क्रमशः गये ॥ २६ ॥
तेषु तेषु महार्हेषु भवनेषु महायशाः । तेषामृद्धिमतामृद्धि ददर्श स महाकपिः ॥ २७ ॥
इन सब बड़े भवनों में जा जा कर, इन ऋद्धिशाली रक्षसों की समृद्धिशालीनता हनुमान जी ने देखी ॥ २७ ॥
सर्वेषां समतिक्रम्य भवनानि महायशाः । आससादाथ लक्ष्मीवान्राक्ष सेन्द्रनिवेशनम् ॥ २८ ॥
इन सब भवनों में होते हुए बड़े यशस्वी हनुमान जी, प्रतापी राक्षसराज रावण के भवन में पहुँचे ॥ २८ ॥
रावणस्योपशायिन्यो ददर्श हरिसत्तमः । विचरन्हरिशार्दूलो राक्षसीर्विकृतेक्षणाः ॥ २९ ॥
हनुमान जी ने वहाँ जा कर देखा कि, रावण पड़ा तो रहा है। राजभवन में घूमते हुए हनुमान जी ने बड़ी भयङ्कर सूरत वाली राक्षसियों को रावण के शयनगृह की रक्षा करते हुए देखा ॥ २६ ॥
शूलमुद्गरहस्ताश्च शक्तितोमरधारिणीः । ददर्श विविधान्गुल्मांस्तस्य रक्षःपतेहे ॥३०॥ .
वे हाथों में त्रिशूल, मुगदर, शक्ति, तोमर लिये हुए थीं। हनुमान जो ने रावण के घर में विविध सूरत शक्ल को और विविध प्रकार के आयुधों का लिये हुए राक्षसियों के दलों को देखा ॥ ३० ॥
नोट- गुल्म का अर्थ दल अथवा टोली है। इसे दस्ता भी कह सकते हैं । ऐसे प्रत्येक दल या दस्ते में ९ हाथो, ९ रथ, २७ घोड़े और ४५ पैदल हुआ करते थे ।
निहन्तन्परसैन्यानां गृहे तस्मिन्ददर्श सः ।। क्षरतश्च यथा मेघान्स्रवतश्च यथा गिरीन् ॥ ३३ ॥ मेघस्तनितनिर्घोषान्दुर्धर्षान्समरे परैः। सहस्रं वाजिनां तत्र जाम्बूनदपरिष्कृतम् ॥ ३४ ॥
ददर्श राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य निवेशने । शिबिका विविधाकाराः स कपिारुतात्मजः ॥ ३५ ॥
जो इन पहरेवालियों के अतिरिक्त वहाँ पर विशालकाय और शस्त्रधारण किये हुए राक्षस भो थे और लाल और सफेद रंग के घोड़े भी बँधे हुए थे। कुलोन और सुन्दर हाथियों को, जो शत्रु के हाथियों को मारने वाल, शिक्षित, रण में ऐरावत के तुल्य शत्रु सैन्य का नाश करने वाले, मेघों की तरह मद को चुआने वाले अथवा करने की तरह मद की धारा को बहाने वाले, मेघों की तरह चिंधारने वाले, युद्ध में शत्रु से दुर्धर्ष थे, देखे; तथा कलाबत्तू के सामान से सजी हुई घुड़सवार सेना भो हनुमानजी ने राक्षस राज रावण के घर में देखी । पवननन्दन हनुमान जी ने विविध प्रकार की पालकियाँ भी देखीं ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४॥ ३५ ॥
क्रीडागृहाणि चान्यानि दारुपर्वतकानपि । ना कामस्य गृहकं रम्यं दिवागृहकमेव च ॥ ३७ ।।
ददर्श राक्ष सेन्द्रस्य रावणस्य निवेशने । स मन्दरगिरिप्रख्यं मयूरस्थानसङ्कलम् ॥ ३८ ॥
ये पालकियां सुवर्ण को जालियों से भूषित, मध्यान्ह के सूर्य की तरह चमचमाती थीं। अनेक चित्र विचित्र लतागृह, चित्र शालाएँ, क्रीड़ागृह, काठ के पहाड़, रतिगृह और दिन में विहार करने के गृह हनुमान जी ने राक्षसेन्द्र रावण के भवन में देखें। उस भवन में एक स्थान मन्दराचल की तरह विशाल था, जिस पर मोरों के रहने के स्थान बने हुए थे ॥ ३६ ॥ ३७ ।। ३८ ॥
हनुमान जी सीता का पता लगाने के लिए लंका मै घूम रहे। - सीता की खोज मै निकले हनुमान जी, हनुमान जी के कितने छोटे बड़े रूप है, सीता माता,
ध्वजयष्टिभिराकीर्ण ददर्श भवनोत्तमम् । अनन्तरत्नसङ्कीर्ण निधिजालसमावृतम् ॥ ३९ ॥
और वहां ध्वजाएँ फहरा रही थों। कहीं पर रत्नों के ढेर लगे हुए थे और कहीं पर विविध प्रकार का द्रव्य एकत्र था, ऐसा सर्वश्रेष्ठ भवन हनुमान जो ने देखा ॥ ३६॥
विरराजाथ तद्वेश्म रश्मिमानिव रश्मिभिः । जाम्बूनदमयान्येव शयनान्यासनानि च ॥४१॥
वहाँ पर निर्भीक, स्थिरचित्त राक्षस उन निधियों की रक्षा कर रहे थे। उस घर की शोभा ऐसी हो रही थी, जैसी कि, यक्ष राज कुवेर के घर की होती है । रत्नों के प्रकाश और रावण के तेज से वह भवन ऐसा शोभित हो रहा था, जैसे सूर्य अपनी किरणों से शोभित होते हैं। वहाँ पर हनुमान जी ने जरदोजी के काम के उत्तमोत्तम विस्तर तथा प्रासन और चांदी के स्वच्छ बरतन देखे । मद्य व पासव से वह घर तर था अर्थात् उस घर में मदिरा और आसवों का कीचड़ हो रहा था और जगह जगह मणियों के बने ( शराब पीने के ) पात्र ढेर के ढेर इकट्ठे किये हुए थे ॥ ४० ॥ ४१ ।। ४२ ॥
मनोरममसम्बाधं कुबेरअवनं यथा । नूपुराणां च घोषेण काञ्चीनां निनदेन च । मृदङ्गतलघोषैश्च घोषवद्भिर्विनादितम् ॥ ४३ ॥
उस घर में सब वस्तुएँ मनोहर और यथास्थान नियम से रखी हुई थीं। वह घर कुबेरभवन की तरह रमणीक था। कहीं नूपुरों की कम छम, कहीं करधनियों की झनकार, कहीं मृदङ्ग की नमक और कहीं ताल सुन पड़ता था। इस प्रकार के विविध शब्दों से वह घर नादित था ॥ ४३ ॥
प्रासादसङ्घातयुतं स्त्रीरत्नशतसङ्कलम् ॥ ४४ ॥ सुव्यूढ कक्ष्यं हनुमान्प्रविवेश महागृहम् ।
इति षष्ठः सर्गः॥
भवन में अनेक अटारियां बनी हुई थी, जिनमें सैकड़ों सुन्दरी स्त्रियाँ भरी पड़ी थीं। उस भवन की ड्योढ़ियां बदी मजबूत बनी हुई थीं। ऐसे उस विशाल भवन में हनुमान जी गये ॥४४॥
सुन्दरकाण्ड का छठवां सर्ग पूर्ण हुआ।
Read: सावित्री और सत्यवान की कथा,
0 Comments