आपने हमेशा सुना होगा कि हिन्दुओ में अमुक पर्व आने वाला है सनातन संस्कृति में पर्वो का एक महत्वपूर्ण स्थान है चाहे वो कोई भी हो क्योंकि हर पर्व का एक सामाजिक मानसिक और शारीरिक लाभ है और विधर्मी उन त्योहारों पर प्रश्नचिन्ह लगाकर उन्हें विकृत करके सिर्फ उन त्योहारों का उपहास ही नही कर रहे बल्कि हमारी सनातनी परम्परा पर भी आघात कर रहे है जिससे सिर्फ समाज ही नही अपितु हमारा भी शारीरिक और मानसिक हाँनि हो रही है ।।
पर्व मतलब उत्साह या उल्लास मनाने का दिन
आपने ये तो जान लिया की पर्व मतलब उत्साह या उल्लास मनाने का दिन लेकिन आप ढूँढिये तो पर्व का एक अर्थ मिलता है संधि काल संस्कृत में पर्व का एक अर्थ संधिकाल भी मिलता है और पर्व का मूल भाव भी यही है संधिकाल का पर्व से क्या तात्पर्य है मतलब है आइये देखते है
हिन्दुओ के पर्वो की एक लिस्ट बनाये आप आपको एक पैटर्न मिलेगा जैसे जहां ठंडी खत्म और गर्मी शुरू हो रही है गर्मी खत्म बारिश शुरू हो रही है बारिश खत्म ठंड शुरू हो रही है अब दीपावली दशहरा पड़ता है बारिश और ठंड के संधिकाल में होली पड़ती है ठंड और गर्मी के संधिकाल में शिवरात्रि आदि पड़ती है गर्मी और बारिश के संधि काल मे । ये सिर्फ हिन्दुओ के प्रमुख पर्व नही है बल्कि मानव सभ्यता नए मौसम के लिए खुद को तैयार करती है व्रत उपवास भोजन की निर्धारित मात्रा और श्रेणी इसमे सहायता करती है उदाहरण बारिश में पालक की मनाही है कारण बरसात के मौसम में पालक और अन्य पत्तेदार सब्जियों में में छोटेछोटे कीड़े पड़ जाते हैं।
सनातनी पुरुषार्थ खत्म कैसे किया जा रहा है
पहले सनातनी पर्वो को लेकर हीन भावना भरी जाती है उसका माध्यम बनते है प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया फिर कुछ तथ्यों को इस तरह तोड़कर कॉइन कर दिया जाता है जिसे जातिवादी लपक लेते है जैसे आजकल रावण दहन को लेकर ब्राम्हण समाज विरोध कर रहा है अब राक्षस किसके आराध्य हो सकते है ये सबको पता लेकिन पढ़े लिखे लोग भी इसमे सम्मिलित है देखकर बुरा लगता है इन सबसे फिर आसानी से सनातनी सामाजिक एकजुटता को छिन्न भिन्न किया जाता है चलिए विस्तार से समझते है
होली Holi
होली में पानी की बर्बादी सूखी होली खेलने का निर्देश समर्थन हिन्दुओ ने ही किया और उल्लास का पर्व एक सीढ़ी नीचे आया जो पर्व समाज को जोड़ता था लोगो का आपसी सौहार्द बढ़ता था उसमे अब मांस मदिरा का सेवन करके उसे सामाजिक ताना बाना बिगाड़ने का एक जरिया बना दिया बसंत में सूर्य दक्षिणायण से उत्तरायण में आ जाता है। फलफूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु भी अमृत प्राण हो जाती है। इसलिए होली के पर्व को मन्वन्तरांभ भी कहा गया है। लेकिन होली आते ही सबसे पहले जो चीज आनी चाहिए थी उल्लास उत्साह खुसी लेकिन अब वही नाम आता है हुड़दंग दंगाई छेड़छाड़ । होली का उत्साह कब होली की हुड़दंग बन गया कभी गौर किया आपने
श्रावण मास में शिवलिंग पर दूध मत चढ़ाओ इसपर पीछे की पोस्ट पढ़ सकते है इसका खंडन कर चुका हूँ लेकिन बाकायदा इसको लेकर हीनभावना से भरा गया नई पीढ़ी को ताकि इन उत्सवों को लेकर एक दूरी बन जाये और हम अपनी जड़ों से दूर हो जाये ।
दशहरा और दीपावली
अब आते है दशहरा और दीपावली पर मोमबत्तियां आ गयी झालर आगये दीपक की जगह सामाजिक व्यवस्था में सम्मिलित एक कुम्हार वर्ग को जिसकी जीविका इससे चलती थी वो धीरे धीरे टूटता जा रहा है या यूं कह लीजिए टूट गया शस्त्रपूजन न होने से हथियार लेने बन्द कर दिए लोहार टूटता जा रहा है ऐसे ही पटाखों पर भी रोक लगाकर एक दलित श्रमिक का हाथ भी काट दिया गया क्योंकि पटाखों के शोर सिर्फ दीपावली में होते है क्रिसमस न्यू ईयर पर इनसे ऑक्सीजन निकलती है । तो भाइयों सांस्कृतिक विनाश की ओर हम तीव्र गति से अग्रसर है और इसमे विधर्मी कम जिम्मेदार है उससे कही ज्यादा हम है । और हाँ कहते है कि सनातन सदैव था सदैव रहेगा ये वही कबूतर की तरह है जो बिल्ली को अपनी ओर आता देखकर आंख बंद कर लेते है कि खतरा टल गया लेकिन वो मृत्यु को ही प्राप्त होती है । धर्मपरिवर्तन हो रहे है लोग हिंदुत्व को गाली देते है क्योंकि हमने किया ये स्थिति हमने खड़ी की ये सामाजिक व्यवस्था हमने भंग की जिसे अब भी समय है सुधारा जा सकता है ।
हम अपनी संस्कृति को हजारों सालों से बचाते आये है फिर भी आज की भौगोलिक क्षेत्र और प्राचीन सनातन संस्कृति की भौगोलिक क्षेत्र को जरा ध्यान से देखिएगा कितना सफल रहे है हम अपनी संस्कृति को जीवित रख पाए तो उसका कारण हमारा सभी वर्गों को पर्वो के नाम पर उनको बांध के रखा हर तबके के फायदा है इन पर्वो से और सामाजिक सुरक्षा होती है इससे उनकी जीविका बढ़ती है समरसता बढ़ती है परस्पर स्नेह बढता है । लेकिन इनपर हमला हो रहा है इस बार हथियार से नही बौद्धिक आतंकवाद से हमपर हमला किया जा रहा है जिसका मुँहतोड़ जवाब अभी नही दिया तो कल आप अपने नाम के पीछे लगे आस्पद ढूंढोगे ।।
विशेष
जो पर्व हमारी सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं।वे आशा आकांक्षा उत्साह एवं उमंग के प्रदाता हैं तथा मनोरंजन उल्लास एवं आनंद देकर वे हमारे जीवन को सरस बनाते हैं।ये पर्व युगों से चली आ रही हमारी सांस्कृतिक धरोहरों परंपराओं मान्यताओं एवं सामाजिक मूल्यों का मूर्त प्रतिबिंब हैं जो हमारी संस्कृति का अंतरस्पर्शी दर्शन कराते हैं। सनातनी परम्परा को खंडित करने और अपने स्वार्थ पूर्ति की ऐसी कई साजिशो को एक एक कर नंगा किया जा सकता है परन्तु समस्त समस्याओ का लेखन संभव नहीं हो सकता इसीलिए बस आंखे और कान खुला रखिये सब दिखाई सुनाई देगा ।।
अगर अब्राह्मिक चश्मे से देखेंगे तो भारतीय और हिन्दुओं को समझ पाने में परेशानी होना स्वाभाविक है। पाप से घृणा करो पापी से नहीं वाली गाँधी जी की उक्ति किताबी बात भी लग सकती है। इसे समझने के लिए किसी भी धार्मिक आदमी के सामने रावण का जिक्र छेड़ दीजिये। ये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति रावण को अव्वल दर्जे का पापी कपटी धूर्त घृणा योग्य मानता होगा।
शिव तांडव स्त्रोत
अब उसी से अगर शिव तांडव स्त्रोत का जिक्र करेंगे तो अभी रावण की बुराई कर रहा व्यक्ति उस स्त्रोत की तारीफ में जुट जाएगा। आप भौचक्के होते रहिये कि रावण की बुराई करने वाला उसी के रचे स्त्रोत की तारीफ कैसे कर सकता है हिन्दुओं में कृत्य को तौलने की परंपरा है आयातित विचारधाराओं की तरह व्यक्ति की निजी चीज़ों पर टीकाटिप्पणी से परहेज किया जाता है। ओछे लोग व्यक्ति की बात करते हैं साधारण लोग घटनाओं की और महान लोग विचारों पर चर्चा करते हैं ये आचरण में सिखाया जाता है बोलकर नहीं।
बिलकुल यही तब भी दिख जाएगा जब आप वकील हरीश साल्वे का मामला देखेंगे। सलमान वाले मामले में अल्पसंख्यक समुदाय विशेष के गरीबों पर गाड़ी चढ़ाने वाले को बचाने के लिए जहाँ उसे गलत कहने में किसी ने परहेज नहीं किया वहीँ जब इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में वो भारत के पक्ष में एक रुपये में मुकदमा लड़ रहे थे तो तारीफ में भी कसर नहीं छोड़ी गई। गाँधी को नापसंद रहे राजनैतिक दल कांग्रेस को और गाँधी को नापसंद करने वाले कॉमरेडों को पाप से घृणा करो पापी से नहीं समझ में आया
मुझे रावण यादआता है फिर से
मुझे ताड़का याद आती है। उसे यज्ञों का विध्वंस करना है इसके लिए वो सभी मन्त्र जानने वालों की हत्या नहीं करती वो सारी सामग्री चुरा नहीं भागती। वो बस हवनकुण्ड में एक हड्डी फेंक जाती है। विदेशी आक्रमणों में हुए जौहर का इतिहास बिगाड़ना था तो बहुत मेहनत नहीं करनी पद्मिनी नाम था या पद्मावती इसमें संशय पैदा कर देना भी बहुत है। एक हड्डी ही तो फेंकनी थी इसलिये ताड़का और राक्षसी तरीका याद आता है।
मुझे सिंहिका राक्षसी याद आती है। ये जीव को नहीं उसकी परछाई को दबोच लेती थी परछाई को त्यागने में असमर्थ जीव खुद उसके चंगुल में चला आता था। कोई बंधन ना हो स्वतंत्रता युवाओं को प्रिय होती है इसलिए वो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर युवाओं को ही बहकाती हैं। संतान तो अपनी ही परछाई सी है उसे छोड़कर लोग कहाँ जायेंगे बच्चों के पीछे वो खुद ही फंसा चला आता है।
मुझे कालनेमि याद आता है। उसे हनुमान को ठगकर उन्हें समय से संजीवनी ले आने से रोकना है इसलिए वो साधू का वेष बनाता है। बिलकुल वैसे ही जैसे बड़े से तिलक भगवा वस्त्रों और मोटीमोटी मालाओं में खुले बालों वाली स्त्रियाँ टीवी बहसों में पद्मावती फिल्म के समर्थन में उतरी हैं। उन्हें भी बस फिल्म के विरोधियों का विरोध थोड़ा कम करना है। वो जीतेंगी नहीं कालनेमि जैसा ही उन्हें भी पता है इसलिए मुझे कालनेमि याद आता है।
मुझे मारीच याद आता है। उसे पता है वो गलत कर रहा है लेकिन जिनके राजाश्रय में पल रहा है उनकी आज्ञा से बाध्य भी तो है वो भेष बदलता है सोने का मृग बनकर सीता को लुभाने पहुँच जाता है। अंतिम समय तक भी छल नहीं छोड़ता हे राम कहते ही मुक्ति मिलेगी ये जानकार भी हा लक्ष्मण हा सीते चिल्लाता है। फिर वो कलाकार दिखते हैं जो कल निर्माताओं के पैसे पर पले और कल फिर उनके ही पास काम मांगने जाना है। उधार के तीस किलो का लहंगा और कई किलो के जेवर पहनकर वो लुभाने आ जाते हैं अंत तक मेरी बरसों की मेहनत डूबी का रोना रोते हैं। भेष बदलकर वो स्त्रियों को लुभाने आये इसलिए मारीच भी याद आता है।
मुझे रावण याद आता है। वो ज्ञानी है लक्ष्मण रेखा क्यों लांघनी चाहिए इसके लिए नीतिधर्म की ही दुहाई देता है। अपने तरीकों शालीनता सभ्यतासंस्कृति की सीमाओं के अन्दर मौजूद सीता का वो अपहरण नहीं कर सकता। विमान सेनाएं बलज्ञान सब उसपर बेकार होगा ये जानता है। इसलिए वो बहकाकर सीता को लक्ष्मणरेखा के बाहर लाना चाहता है। उसे पता है कि आग से जल सकते हो दूर रहो बच्चे को समझाया जा सकता है गालियाँ क्यों नहीं सीखनी इसमें गलत क्या है ये समझाना मुश्किल है। बस माय चॉइस फासीवाद के विरोध आखिर ऐसा होगा क्या देख भर लेने से चल देखें कुछ गलत दिखाया भी या नहीं जैसे किसी बहाने से दिखा देना है।
इसलिए मुझे रावण याद आता है।
पोंगलजल्लीकट्टूकम्बालापोळासोहरायसोनहाना
आदि आदि परब त्योहार पशुधन को समर्पित परब है जो कृषि प्रधान भारत वर्ष को विविधता के साथ संस्कृति के एक सूत्र में बाँधने का काम करता है। कोई एक साथ ही दीपावली मना रहा तो कोई सोहराय तो कोई काली पूजा तो कोई कुछ और कहीं कोई समस्या नहीं। पश्चिम में गणेश जी की धूम है तो पूर्व में दुर्गाकाली की उत्तर में रामशिव है तो दक्षिण में अयप्पा और मुरुगन स्वामी का कहीं कोई टकराव नहीं। और बीच में
बिशुकरमजितियामकरआखाइनदं साय छठ चैती
जैसे सैकड़ों परब त्योहार आते जिसमें कहीं कोई समस्या नहीं कोई दुत्कार नहीं। किसी ने ये नहीं टोका कि ये मत करो वो मत करोसभी ने एक दूसरे के परब त्योहार को सम्मान ही दिया और सदैव ही दियाकिसी ने भी अपने परब संस्कृति को ऊँचा कहकर सामने वाले को नीचा दिखाना का प्रयास नहीं किया। यही तो बोरओत भारत हैयही तो भारतीयता है और यही तो भारतीय संस्कृति है। विविधताओं में भारतीयता निहित है।
कृषि प्रधान भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कृषि के दौरान और उनके विकास के दौरान स्वतः उपजे पर्व त्योहार ही भारतीयता को परिभाषित करते हैं। ये यहीं के मिट्टी में उपजी संस्कृति हैकहीं बाहर से आयात न किया गया। और जो भारतीय वरदानी मिट्टी में उपजी संस्कृति है उन्हीं में सब समाहित करने की क्षमता है अन्य किसी में नहीं। यहीं की संस्कृति में एक दूसरे के प्रति सम्मान हैप्यार है और स्वीकार्यता है।अंधाधुंध हजारों आक्रमण के बावजूद भी सबसे प्राचीनतम संस्कृतियों में जो अब तक भी जीवंत है भारत में ही है। अन्यत्र कहीं दुर्लभ सी जान पड़ती है। अन्यत्र बस 2000 साल पुरानी चीजें ही प्राचीनता के घेरे में आती है।
भारत भूमि में हमने जिस जीवट और उत्कृष्ट संस्कृति को खड़ा किया विकास किया ये उन्हीं की शक्ति है कि हम अब तक भी भारतीय बने हुए हैंअपनी संस्कृतियों में जी रहे हैं व आगे की संततियों में बढ़ा भी रहे हैं। क्या संस्कृति के मामले में ऐसी जीवटता कहीं और हम देख पाते हैं बर्बर सभ्यताओं से निकली संस्कृति और रिलीजन ने विश्व संस्कृति का कितना सम्मान किया है ये जहाँ भी गए क्या वहाँ की प्राचीन संस्कृति अब सांस ले पा रही है उनका अपने लिए कुछ अपना कहने भर का कुछ शेष बचा है अपनी ऐसी कौन सी चीज है जिसपे वे गर्व कर सकते हैं
थोपी हुई या आयात की हुई चीजें आपके मूल को मार देती है। आपकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम करती है। कुछेक वर्षों में ही आपके जड़ पूर्णतः सड़ जाते हैं। फिर आप सहस्र वर्षों से सिंचित व पल्लवित वृक्ष का एक जड़विहीन सूखा ठूठ बन कर खड़े रह जाते हैं जिसके ऊपर तरहतरह के झालर लगा दिए जाते हैं और तब आप उस झकमक करती झालरों में ही गर्व करने लगते है गौरवशाली पल्लवित प्राचीनता को भूलकर कृत्रिम टिमटिम करती शाखाओं से उन्हें ढंकने का प्रयास करते हैं व आधुनिकता का चोला पहना कर उसे श्रेष्ठ साबित करने का कुत्सित प्रयास करने लग जाते हैं।
आयातित संस्कृतियों में यही गुण है सम्मान व स्वीकार्यता नहीं। जो इसमें पूर्ववत है उसे ही ग्रहण करना है और अपनी चीजों का त्याग करना है। और कुछ समय पश्चात अपनी चीजों को गाली देते हुए जो तुम्हें यहाँ तक ले के आया को नीचा दिखाना है उसे अपने में समाहित करना है हर वो चीज अपनाना है जिससे कि सब कोई इनके खेमे में आये और न माने तो खून के बहाव के लिए कोई मनाही नहीं है।
जो परिवर्तित है क्या उन्हें अपने सहोदरों द्वारा हर्षोल्लास के साथ मनाए जा रहे परबत्योहारों को देख कर टीस नहीं उठती है नहीं सोचते कि हम इतने धनी संस्कृति को छोड़ कर किसी रेगिस्तानी संस्कृति को जबरन ढोये जा रहे हैं जबरदस्ती का गर्व किये जा रहे हैं बेकार का श्रेष्ठ साबित करने में तुले हुए हैं हमारे पाँचछः पीढ़ियों ने जो गलती करी उसे हम अब तक भी क्यों ढोये जा रहे है
ऐसे प्रश्न उन्हें हम जिस दिन सोचने को विवश कर देंगेयकीन मानिए उस दिन से पुनः भारत भारत की ओर लौटना प्रारंभ कर देगा।
हिन्दू परंपरा लक्ष्मी पूजक है। यदि रावण की लंका सोने की थी तो दशरथ की अयोध्या भी अत्यंत वैभवशाली थी। अंतर धर्माचरण का था। लक्ष्मी को धन का पर्याय मान लिया जाता है। किन्तु धन से कुबेर भी जुड़ा है। कुबेर अर्थात कुत्सित शरीर वाला राक्षसराज रावण का भाई। धन का पर्याय होकर भी कुबेर पूजा भारतीय परंपरा में कहीं नहीं। हिन्दू परंपरा किसी भी तरह के धन की चाह नहीं करती। केवल लाभ नहीं वरन शुभलाभ चाहती है। परंपरा से भारतीय व्यापारी इसे समझते रहे हैं। इसीलिए पहले यह देश धनवान ही नहीं ज्ञानवान और यशस्वी भी था।
माता लक्ष्मी मात्र धन की देवी नहीं हैं। वह श्रीरंगधामेश्वरी त्रैलोक्यकुटुम्बिनी सरसिजां प्रसन्नवदनां सौभाग्यदां भाग्यदां हैं। वह प्रसन्नवदन सौभाग्य और भाग्य प्रदान करने वाली भगवान विष्णु के समीप रहने वाली उन की प्रिया कमला तीनों लोकों की माता हैं। धर्माचरण युक्त धनवैभव के साथ लक्ष्मी की पहचान है। अधर्म लोभ और अनैतिकता से अर्जित धन के साथ लक्ष्मी का कोई संबंध नहीं।
यहाँ धर्म रिलीजन का पर्याय नहीं। सच्चे हिन्दू अर्थ में सदाचार ही धर्म है। अतः जहाँ अधर्म लोलुपता और भष्टाचार हो वहाँ से लक्ष्मी तुरंत चली जाती है। इसी अर्थ में वह चंचला हैं। धर्मविहीन धन आसुरी अशुभ वस्तु है। इसीलिए ऐसे धनस्वामी प्रसन्न और सौभाग्यवान नहीं होते। वे तनावग्रस्त अप्रसन्न होते हैं। क्योंकि उन के पास से लक्ष्मी चली गई हैं।
अतः शुभ लाभ लिखते हुए अर्थ का स्मरण रहना चाहिए। कैसे भी बैलेंसशीट को लक्ष्य मानना सौभाग्यपूर्ण नहीं। घोटाले रिश्वतखोरी मिलावट और अनाचार से जुड़ा धन पापपूर्ण इसलिए अशुभ है। ऐसे धनार्जन के चक्कर में जो लोग जेल जाते हैं केवल वही दंड नहीं भोगते। स्वतंत्र दिखने वाले भी कष्ट भोगते हैं। कुसंगति डिप्रेशन झगड़ालूपन भय रोगी विलासी जीवन और दिशाहीनता जैसे रोग असंख्य धनिकों में देखे जाते हैं। उन के धन में लक्ष्मी का कल्याण का सौभाग्य का वास नहीं है। वे अपने अशुभ धन के दास हो जाते हैं। अधिकाधिक लालसा धनरक्षा की चिंता सामाजिक अकेलापन कुरुचि अशांति आदि अनेक दुर्गुणों से ग्रस्त उन का जीवन विषाक्त हो जाता है। उन्हें ध्यान से देखें। तब उन जैसा होने की इच्छा नहीं हो सकती। नहीं होनी चाहिए।
इस के विपरीत जो धर्माचरण छोड़े बिना धनार्जन करते हैं वे अधिक स्वस्थ प्रसन्न और शांत होते हैं। गरीब लोग भी। पैदल चलती मजदूरिनें अधिक प्रसन्न और उदार नजर आती हैं। बड़ीबड़ी गाड़ियों पर चलती धनिकाओं के चेहरे पर वैसी सहज प्रसन्नता बहुत कम दिखती है।
अतः अधर्म से दूर रहने वाले ही लक्ष्मी के सच्चे उपासक हैं। उन्हें कल्याण और अभय का प्रसाद मिलता है। अधिक धनी होने से अधिक प्रसन्न होने का कोई संबंध नहीं। अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों ने भी कुछ पहले हैप्पीनेस इंडेक्स के आधार पर दुनिया के कई देशों का सर्वेक्षण किया था। उन्हें फिलीपीन्स जैसे गरीब देश में सब से अधिक प्रसन्न लोग मिले। भारत भी प्रसन्नता सूची में बहुत ऊपर था। आज भी असंख्य भारतीय मानते हैं कि किसी भी तरीके से धन पद पाना उचित नहीं। उन की प्रसन्नता कुछ मूल्यों पर भी आधारित है। ऐसे लोग अमीर भी हैं गरीब भी। सदाचार और धर्माचरण को सर्वोपरि मानने वाले ही प्रसन्न रह सकते हैं। उन्हें ही लक्ष्मीकृपा प्राप्त रहती है। यह सब केवल सैद्धांतिक बातें नहीं। व्यवहार में भी यहाँ इन का पालन होता रहा है।
अंग्रेजों ने सर्वेक्षण में पाया था कि दक्षिणभारत के कई धनीमानी मठ दान के धन को एक सीमा के बाद जमा नहीं रखते थे। उसे कुंभ मेले में गरीबों में बाँट कर कोश खाली कर लेते थे। पुनः अर्जन शुरु होता था और लोककल्याण के विविध कामों में उपयोग होता रहता था। इस प्रकार सभी धन माँ भगवती का है और मनुष्य केवल उस के ट्रस्टी के रूप में उपभोग उपयोग करें यह व्यवहार में भी मान्य रहा है। हमारे आधुनिक ऋषि ज्ञानी भी इसे अभिव्यक्त करते रहे हैं। तुलसीदास और बड़े हिन्दू ज्ञानी कभी बादशाह अकबर के यहाँ नहीं गए। कवि निराला भी ऐसे ही थे। भूखे रहकर भी अतिथिसत्कार धर्म निभाते थे। कवि अज्ञेय ने एक विश्वविद्यालय की बड़ी कुर्सी का त्याग केवल इसलिए कर दिया क्योंकि उन्होंने देखा कि वह बिना किसी काम वाली कुर्सी थी और खाली मोटी तनख्वाह लेना उन्हें स्वीकार्य न हुआ। हनुमान प्रसाद पोद्दार जैसे अनेक व्यापारी उद्योगपति हुए जिन्होंने सारा धन सामाजिक कल्याण में अर्पित कर दिया।
आज जैसे तैसे धन कमाने की भूख केवल यहीं नहीं पूरी दुनिया का रोग हो गया है। पर दूसरों के पास धर्मयुक्त वैभवशाली जीवन का व्यवस्थित दर्शन नहीं है जो भारत के पास है। हम इसे दूसरों की ही नकल में छोड़े दे रहे हैं यह दोहरी विडंबना है। हम देख कर भी नहीं देखते कि बेशुमार धनदौलत अर्जित करने वाले अमेरिकी यूरोपीय भी ज्ञान व शांति की खोज में भारत ही आते हैं। अनायास नहीं कि जीवन का अर्थ ढूँढने वाले सब से बड़ी संख्या में भारत ही आते हैं। यहाँ पाखंडी लालची बाबाओं की भरमार दूसरी बात है। किन्तु इस से यह तथ्य नहीं बदलता कि वह ज्ञानभंडार भारत में ही है जिस की जरूरत संपूर्ण मानवता को है। यही आभास पाकर दुनिया भर के अभीप्सु यहाँ आते हैं। हिन्दू धर्मचेतना में ही वह आकर्षण है।
इस चेतना में वैभव और धर्मयुक्त जीवन का ऐसा समन्वय है जो विश्व में कहीं नहीं। शुभ लाभ इसी समन्वय का सूत्र हैः अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थच चिन्तयेत्। गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत।। अर्थात् स्वयं को अजरअमर मान कर विद्या और धन का अर्जन करो। यह अर्जन कभी बंद न करो। किन्तु साथ ही धर्म का आचरण यह मान कर करो जैसे मृत्यु ने तुम्हारे केश पकड़ रखे हैं किसी भी क्षण मृत्यु संभावित है यह ध्यान रखते हुए धर्माचरण से क्षण भर भी विचलित न होओ। यही धर्मयुक्त जीवन और लक्ष्मीसरस्वती की अनन्त उपासना का सूत्र है। यह हमारे शास्त्र ही नहीं लोक में भी व्याप्त रहा है। काल गहे कर केश के रूप में जिसे लोग कहावत में भी जानते हैं।
इसी से यह भी स्पष्ट है कि हिन्दू चिंतन ने कभी दरिद्रता को महिमामंडित नहीं किया। गाँधीजी ने यहाँ भी गलती की और गरीबी में भगवान वाला ईसाई मत प्रचारित किया। अतः जो लोग गाँधीजी की तरह धन को ही गड़बड़ी की जड़ मानते हैं वे गलत हैं। गरीब भी पापी लोभी अधर्मी हो सकता है। उसी तरह धनवान भी शुद्ध सात्विक धर्मनिष्ठ हो सकते हैं होते रहे हैं। धन एक शक्ति है। ईश्वरीय शक्ति। इसे गलत हाथों से निकाल कर सही हाथों में देना इस का पुनरुद्धार करना आवश्यक है। इसे भगवान का कार्य समझ कर करना चाहिए। दरिद्रता की पूजा और अपरिग्रह भारतीय ज्ञानपरंपरा नहीं है।
मनुष्य के हाथ में धन ईश्वर का न्यास है। इसलिए उस में आसक्ति न रहे। धर्मभाव से धनार्जन करना तथा भागवतभाव से इस का उपयोग करना ही हिन्दू मार्ग है। यह विस्मृत न हो वरन देदीप्यमान रूप में हमारे चित्त मानस पर अंकित रहे लक्ष्मीपूजन करते हुए यही हमारी अभीप्सा होनी चाहिए।
दीपावली से एक दिन पहले आने वाली चतुर्दशी को रूपचौदस के रूप में मनाया जाता है। पिछले कुछ सालों ने इस पर ब्यूटी पार्लर वालों ने कब्जा कर दिखाया है और महिलाएं ही नहीं पुरुष भी स्पा की ओर भागने लगे हैं। अच्छा दिखने दिखाने का पर्व कब हुआ और इसमें मार्केटिंग वालों ने कैसे गुंजाइश निकाली यह कहने की जरूरत नहीं है मगर यह रूप चतुर्दशी इसलिए था कि रूप पर कुबेर अर्थात् धनपतियों का अधिकार था। रुप का आशय है चांदी।
चांदी के सिक्के से ही हमें रूपया शब्द मिला है जिसको पहले रुप्यकाणि या रूपा कहा जाता था। कुबेर की पहचान उसकी नौली से रही है। नौली से आशय है कमर या हाथ में रखने योग्य रूपयों की थैली। यक्षों की मूर्तियों के साथ नौली का अंकन मिलता है। भारत में विशेषकर भंडारों में कुबेर की स्थापना की जाती थी अर्थशास्त्र में यह संदर्भ मिलता भी है। लक्ष्मी प्रारंभ में इंद्र के साथ थी फिर कुबेर के साथ और कालांतर में विष्णु के वामभाग में आई। जब भार्गवों ने उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकारा। अन्यथा वह कुबेर के साथ ही स्वीकारी गई।
उत्तर वैदिक श्रीसूक्त में इसका विवरण आया है उसमें कुबेर यक्ष का नाम देवसख और उनके मित्र मणिभद्र नाम आया है उनके ही आगमन से कीर्ति मणियां मिलती हैं उपैतु मां देवसख कीर्तिश्च मणिना सह। प्रादुभूतोSस्मि राष्ट्रेSस्मिन् कीर्तिमृद्धि ददातु मे। श्रीसूक्त 7 यह प्राचीन संदर्भ है और इतना महत्वपूर्ण है कि यामलों से लेकर छठवीं सदी के विष्णुधर्मोत्तरपुराण तक में यह सूक्त आया है। महालक्ष्युपनिषद में भी इसका अंशांश मिलता है।
देखने वाली बात ये है कि यह जिस लक्ष्मी के रूप में सुवर्ण और चांदी के खानों से मिलने वाले पाषाणखंडों को प्रदावित कर धातु प्राप्त करने के लिए जातवेद या अग्नि से प्रार्थना की गई है तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। कार्तिक ही वह अवधि होती थी जबकि खानों में खुदाई का काम फिर से शुरू होता था। चांदी की सबसे पुरानी खानों में जावर आंगूचा आदि के साथ यही मान्यता जुडी रही है। इस दिन देहात में चांदी के सिक्कों कलदारों को धोपोंछकर पूजा के लिए तैयार करने की परंपरा रही है। ऐसे में यह रूप या चांदी के लिए कार्य आरंभ करने का दिवस कैसे हमारे सजनेसंवरने का दिन हो गया। है न ताज्जुब की बात। आप सभी को यह पर्व नए और पुराने दोनों ही रूप में शुभ हो अन्त में मेरा वही निवेदन जो गत कई दिनों के पोस्ट पर लगातार है वही एक बार फिर से
पूरे वर्ष का एक तिहाई व्यय इन उत्सवों में होने वाला है। शोरूम और कॉरपोरेट को छोड़कर जहाँ तक सम्भव हो अपनी जड़ों को खोजिए। एक परिवार पर आश्रित सात शिल्प हुआ करते थे ढूंढिए कि आज वे किस स्थिति में है और वर्षपर्यन्त तक किसी को कोई रियायत नहीं। इन लफंगों को तो बाद में भी नहीं।विचार कीजिए हमारा स्वयं का इकोसिस्टम विकसित करने में योगदान दीजिये। बस इतना करने का प्रयास कीजिए शेष का मार्ग स्वयं स्पष्ट हो जाएगा
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थ तेरा कर्म करने में ही अधिकार है उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो
0 Comments