Pradosh Vrat Katha व्रत के उद्यापन की विधि प्रातः स्नानादि कार्य से निवृत होकर रंगीन वस्त्रों से मण्डप बनावें। फिर उस मण्डप में शिवपार्वती की प्रतिमा स्थापित करके विधिवत पूजन करें तदनन्तर शिवपार्वती के उद्देश्य से खीर से अग्नि में हवन करना चाहिए।
हवन करते समय ॐ उमा सहितशिवायै नमः मन्त्र
से १०८ बार आहुति देनी चाहिए। इसी ॐ नमः शिवाय के उच्चारण से शंकर जी के निमित्त आहुति प्रदान करें। हवन के अन्त में किसी धार्मिक व्यक्ति को सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिए। ऐसा करने के बाद ब्राह्मण को भोजन दक्षिणा से सन्तुष्ट करना चाहिए। व्रत पूर्ण हो ऐसा वाक्य ब्राह्मणों द्वारा कहलवाना चाहिए। ब्राह्मणों की आज्ञा पाकर अपने बन्धु बान्धवों को साथ में लेकर मन में भगवान शंकर का स्मरण करते हुए व्रती को भोजन करना चाहिए। इस प्रकार उद्यापन करने से व्रती पुत्रपौत्रादि से युक्त होता है तथा आरोग्य लाभ करता है। इसके अतिरिक्त वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता एवं सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
Pradosh Vrat Katha स्कन्द पुराण कथा प्रारम्भ.
पूर्वकाल में एक पुत्रवती ब्राह्मणी थी। उसके दो पुत्र थे। वह ब्राह्मणी बहुत निर्धन थी। दैवयोग से उसे एक दिन महर्षि शाण्डिल्य के दर्शन हुए। महर्षि के मुख से प्रदोष व्रत में शिव पूजन की महिमा सुनकर उस ब्राह्मणी ने ऋषि से पूजन की विधि पूछी। उसकी श्रद्धा और आग्रह से ऋषि ने उस ब्राह्मणी को शिव पूजन का उपर्युक्त विधान बतलाया और उस ब्राह्मणी से कहा तुम अपने दोनों पुत्रों से शिव की पूजा कराओ। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हें एक वर्ष के पश्चात् पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी। उस ब्राह्मणी ने महर्षि शाण्डिल्य के वचन सुनकर उन बालकों के सहित नतमस्तक होकर मुनि के चरणों में प्रणाम किया और बोलीहे ब्राह्मण आज मैं आपके दर्शन से धन्य हो गई हूँ। मेरे ये दोनों कुमार आपकी शरण में हैं। यह शुचिब्रत मेरा पुत्र है और यह राजसुत मेरा धर्मपुत्र है। ये दोनों बालक आपके सेवक हैं। आप मेरा उद्धार कीजिए। उस ब्राह्मणी को शरणागत जानकर मुनि ने मधुर वचनों द्वारा दोनों कुमारों को शिवजी की आराधना विधि बताई। तदनन्तर वे दोनों बालक और ब्राह्मणी मुनि को प्रणाम कर शिव मन्दिर में चले गए। उस दिन से वे दोनों बालक मुनि के कथनानुसार नियमपूर्वक प्रदोष काल में शिवजी की आराधना करने लगे। पूजा करते हुए उन दोनों को चार महीने बीत गए।
एक दिन राजसुत की अनुपस्थिति में शुचिब्रत स्नान करने नदी किनारे चला गया और वहाँ जलक्रीड़ा करने लगा। संयोग से उसी समय उसे नदी की दरार में चमकता हुआ धन का बड़ा कलश भी दिखाई पड़ा। उस धनपूरित कलश को देखकर शुचिब्रत बहुत ही प्रसन्न हुआ। उस कलश को वह सिर पर रख कर घर ले आया। कलश को भूमि पर रखकर वह अपनी माता से बोला, हे माता शिवजी की महिमा तो देखो। भगवान ने इस घड़े के रूप में मुझे अपार सम्पत्ति दी है। उसकी माता घड़े को देखकर आश्चर्य करने लगी और राजसुत को बुलाकर कहाबेटे मेरी बात सुनो। तुम दोनों इस धन को आपस में आधा आधा बांट लो। माता की बात सुनकर शुचिब्रत अत्यन्त प्रसन्न हुआ परन्तु राजसुत ने अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहाहे माँ यह धन तेरे पुत्र के पुण्य से उसे प्राप्त हुआ है। मैं इसमें किसी प्रकार का हिस्सा लेना नहीं चाहता। क्योंकि अपने किये हुए कर्म का फल मनुष्य स्वयं ही भोगता है। इस प्रकार शिव पूजन करते हुए एक ही घर में उन्हें एक वर्ष व्यतीत हो गया। एक दिन राजकुमार ब्राह्मण के पुत्र के साथ बसंत ऋतु में वनविहार करने के लिये गया। वे दोनों जब साथ साथ वन में बहुत दूर निकल गये तो उन्हें वहां पर सैकड़ों गन्धर्व कन्यायें खेलती हुई दिखाई पड़ी। ब्राह्मण कुमार उन गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़रत देखकर राजकुमार से बोला, यहां पर कन्यायें विहार कर रही हैं इसलिए हम लोगों को अब और आगे नहीं जाना चाहिये। क्योंकि वे गन्धर्व कन्यायें शीघ्र ही मनुष्यों के मन को मोहित कर लेती हैं। इसीलिए मैं तो इन कन्याओं से दूर ही रहूँगा। परन्तु राजकुमार उसकी बात अनसुनी कर कन्याओं के विहार स्थल में निर्भीक भाव से अकेला सुनो। तुम दोनों इस धन को आपस में आधा आधा बांट लो। माता की बात सुनकर शुचिब्रत अत्यन्त प्रसन्न हुआ परन्तु राजसुत ने अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहाहे माँ यह धन तेरे पुत्र के पुण्य से उसे प्राप्त हुआ है। मैं इसमें किसी प्रकार का हिस्सा लेना नहीं चाहता। क्योंकि अपने किये हुए कर्म का फल मनुष्य स्वयं ही भोगता है। इस प्रकार शिव पूजन करते हुए एक ही घर में उन्हें एक वर्ष व्यतीत हो गया। एक दिन राजकुमार ब्राह्मण के पुत्र के साथ बसंत ऋतु में वनविहार करने के लिये गया। वे दोनों जब साथसाथ वन में बहुत दूर निकल गये तो उन्हें वहां पर सैकड़ों गन्धर्व कन्यायें खेलती हुई दिखाई पड़ीं।
ब्राह्मण कुमार उन गन्धर्व कन्याओं को क्रीडरत देखकर राजकुमार से बोलायहां पर कन्यायें विहार कर रही हैं इसलिए हम लोगों को अब और आगे नहीं जाना चाहिये। क्योंकि वे गन्धर्व कन्यायें शीघ्र ही मनुष्यों के मन को मोहित कर लेती हैं। इसीलिए मैं तो इन कन्याओं से दूर ही रहूँगा। परन्तु राजकुमार उसकी बात अनसुनी कर कन्याओं के विहार स्थल में निर्भीक भाव से अकेला ही चला गया। उन सभी गन्धर्व कन्याओं में प्रधान सुन्दरी उस आये हुए राजकुमार को देखकर मन में विचार करने लगी कि कामदेव के समान सुन्दर रूप वाला यह राजकुमार कौन है उस राजकुमार के साथ बातचीत करने के उद्देश्य से उस सुन्दरी ने अपनी सखियों से कहासखियों तुम लोग निकट के वन में जाकर अशोक चम्पक मौलसिरी आदि के ताजे फूल तोड़ लाओ। तब तक मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में यहीं रुकी रहूँगी। उस गन्धर्व कुमारी की बात सुनते ही सब सखियाँ वहाँ से चली गई। सखियों के जाने के बाद वह गन्धर्व कन्या उस राजकुमार को स्थिर दृष्टि से देखने लगी। उन दोनों में परस्पर प्रेम का संचार होने में लगा। गन्धर्व कन्या ने राजकुमार को बैठने के लिये आसन दिया। प्रेमालाप के कारण राजकुमार के सहवास के लिये वह सुन्दरी व्याकुल हो उठी और राजकुमार से प्रश्न करने लगी, हे कमल के समान नेत्रों वाले आप किस देश के रहने वाले हैं आपका यहाँ आना क्योंकर हुआ गन्धर्व कन्या की बात सुनकर राजकुमार ने उत्तर दिया मैं विदर्भराज का पुत्र हूँ। मेरे माता पिता स्वर्गवासी हो चुके हैं। शत्रुओं ने मुझसे मेरा राज्य हरण कर लिया है। राजकुमार ने अपना परिचय देकर उस गन्धर्व कन्या से पूछा, आप कौन हैं किसकी पुत्री हैं और इस वन में किस उद्देश्य से आई हैं आप मुझसे क्या कहना चाहती हैं। राजकुमार की बात सुनकर गन्धर्व कन्या ने कहा मैं विद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री अंशुमती हूँ। आपको देखकर आपसे बातचीत करने के लिये ही यहाँ पर सखियों का साथ छोड़कर रह गई हूँ। मैं गान विद्या में बहुत ही निपुण हूँ। मेरे गान पर सभी देवांगनायें रीझ जाती हैं। मैं चाहती हूँ कि आपका और मेरा प्रेम सर्वदा बना रहे। इतनी बात कहकर उस गन्धर्व कन्या ने अपने गले का बहुमूल्य मुक्ताहार राजकुमार के गले में डाल दिया। वह हार उन दोनों के प्रेम का प्रतीक बन गया। इसके पश्चात राजकुमार ने उस कन्या से कहाहे सुन्दरी तुमने जो कुछ कहा है वह सब सत्य है। लेकिन आप राजविहीन राजकुमार के पास कैसे रह सकेंगी आप अपने पिता की अनुमति के लिये बिना मेरे साथ कैसे चल सकेंगी राजकुमार की बात पर वह कन्या मुस्करा कर कहने लगी जो कुछ भी हो मैं अपनी इच्छा से आपका वरण करूंगी। अब आप परसों प्रातःकाल यहाँ पर आइयेगा। मेरी बात कभी झूठ नहीं हो सकती। गन्धर्व कन्या ऐसा कहकर पुनः अपनी सखियों के पास चली गई। इधर वह राजकुमार भी शुचिब्रत के पास जा पहुंचा और उसने अपना सारा वृत्तांत कह सुनाया। इसके बाद वे दोनों घर को लौट गये। घर पहुंच कर उन लोगों ने ब्राह्मणी से सब हाल कहा जिसे सुनकर वह ब्राह्मणी भी हर्षित हुई। गन्धर्व कन्या द्वारा निश्चित दिन को वह राजकुमार शुचिब्रत के साथ उसी वन में पहुंचा। वहाँ पहुंच कर उन लोगों ने देखा गन्धर्वराज अपनी पुत्री अंशुमती के साथ उपस्थित होकर प्रतीक्षा में बैठे हैं।
Pradosh Vrat Katha
गन्धर्व ने उन दोनों कुमारों का अभिनन्दन करके उन्हें सुन्दर आसन पर बिठाया और राजकुमार से कहा मैं परसों कैलाशपुरी को गया था। वहाँ पर भगवान शंकर पार्वती सहित विराजमान थे। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहापृथ्वी पर राज्यच्युत होकर धर्मगुप्त नामक राजकुमार घूम रहा है। शत्रुओं ने उसके वंश को नष्टभ्रष्ट कर दिया है। वह कुमार सदा ही भक्तिपूर्वक मेरी सेवा किया करता है। इसलिये तुम उसकी सहायता करो जिससे वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके। इसलिये मैं भगवान शिव की आज्ञा से अपनी पुत्री अंशुमती आपको सौंपता हूँ। मैं शत्रुओं के हाथ में गये हुए आपके राज्य को वापिस दिला दूंगा। आप इस कन्या के साथ दस हजार वर्षों तक सुख भोगकर शिवलोक में आने पर भी मेरी पुत्री इसी शरीर से आपके साथ रहेगी। इतना कहकर गन्धर्वराज अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार के साथ कर दिया। दहेज में अनेक बहुमूल्य रत्न वस्त्र रथ आदि प्रदान किये। इसके अतिरिक्त दासदासियाँ तथा शत्रुओं पर विजय पाने के लिये गन्धर्वो की चतुरंगिणी सेना भी दी। राजकुमार ने गन्धर्वो की सहायता से शत्रुओं को नष्ट किया और वह अपने नगर में प्रविष्ट हुआ। मंत्रियों ने राजकुमार को सिंहासन पर बैठाकर राज्याभिषेक किया। अब वह राजकुमार राजसुख भोगने लगा। जिस दरिद्र ब्राह्मणी ने इसका पालनपोषण किया था उसे ही राजमाता के पद पर आसीन 11 किया गया। वह शुचिब्रत ही उसका छोटा भाई बना। इस प्रकार प्रदोष व्रत में शिव पूजन के प्रभाव से वह राजकुमार दुर्लभ पद को प्राप्त हुआ। जो मनुष्य प्रदोषकाल में अथवा नित्य ही इस कथा को श्रवण करता है वह निश्चय ही सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह परम पद का अधिकारी बनता है। ।।
Pradosh Vrat Katha सौम्य प्रदोष व्रत कथा।।
व्रत की विधि यदि किसी मास में त्रयोदशी सोमवार के दिन आये तो उसे सौम्य अथवा सोम प्रदोष कहते हैं। सोम प्रदोष का महात्म्य अन्य दिनों में आने वाली त्रयोदशी से अधिक होता है क्योंकि सोमवार शिव पूजा का विशेष दिन है। इसकी महत्ता इसलिए भी अधिक है क्योंकि अधिकांश लोग अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिये यह व्रत नियमित रूप से करते हैं जब तक इच्छित फल की प्राप्ति न हो जाए। प्रदोष व्रत की विधि और उद्यापन कर्म उसी प्रकार करने चाहियें जैसे अन्य प्रदोष व्रतों में करते हैं। । कथा प्राचीन समय में किसी नगर में एकवैश्य रहता था। वह वैश्य बहुत ही धनी था उसे किसी बात का कष्ट न था। परन्तु उसके पास विशाल वैभव होते हुए भी कोई सन्तान न थी जिसके कारण वह वैश्य हमेशा दुःखी रहता था। वह वैश्य भगवान शिव का अनन्य उपासक था। प्रत्येक सोमवार को वह शिवजी की पूजा तथा व्रत किया करता था। सोमवार के दिन सांयकाल वह शिव मंदिर में दीपक जलाता तथा उन्हें अनेकों प्रकार के व्यंजन अर्पित किया करता था। इसके बाद पत्नी सहित भगवान का प्रसाद ग्रहण करता था। उस वैश्य के भक्ति भाव को देखकर पार्वती जी दयार्द्र हो गई और शिवजी से बोलींहे शिवजी यह वैश्य प्रति सोमवार को आपका पूजन कितनी श्रद्धा से करता है आप इसकी सन्तानहीनता दूर क्यों नहीं करते पार्वती जी की बात सुनकर शिवजी ने कहाहे देवी इस वैश्य को सन्तान न होना इसके पूर्व जन्म का फल है और वह अपने कर्मों का फल भुगत रहा है। पार्वती जी ने कहाहे भगवन यदि आप अपने भक्तों का कष्ट दूर नहीं करेंगे तो भक्तजन आपकी पूजा और आराधना क्योंकर करेंगे। इसलिए आप उसे अवश्य ही पुत्रवान बनाइए। पार्वती जी के उत्तर में शिवजी ने कहाहे देवी मैं तुम्हारे आग्रह से उसे पुत्र प्राप्ति का वर देता हूँ परन्तु इसके भाग्य में पुत्र सुख न होने से वह पुत्र केवल बारह वर्ष तक ही जीवित रह सकेगा। कुछ काल के अनन्तर भगवान शिव की कृपा से वैश्य पत्नी गर्भवती हुई और दसवें मास में उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र उत्पन्न होने से वैश्य के घर में अत्यन्त आनन्द मनाया गया परन्तु फिर भी वह वैश्य निश्चिन्त न हो सका। क्योंकि वह जानता था कि यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक ही मेरे साथ रहेगा। इस प्रकार आनन्द मंगल में ग्यारह वर्ष का समय बीत गया। एक दिन उसकी माता ने पति से पुत्र के विवाह के लिए आग्रह किया। वैश्य ने अपनी पत्नी से कहाअभी विवाह की क्या चिन्ता है अभी तो मैं इसे काशी में विद्याध्ययन के लिए भेजना चाहता हूँ। पत्नी से ऐसा कहकर उस वैश्य ने लड़के के मामा को बुलाया और उसे अत्यन्त धन देकर कहा तुम अपने इस भांजे को पढ़ाने के लिये काशी ले जाओ। परन्तु एक बात याद रखना कि मार्ग में ब्राह्मणों को भोजन दक्षिणा देते तथा यज्ञ करते हुए जाना। इस प्रकार घर से वे दोनों विदा होकर रास्ते में ब्राह्मणों को भोजन दक्षिणा देते तथा यज्ञ करते हुए एक नगर में पहुंच गए। संयोग से उस नगर के राजा की कन्या का विवाह उसी दिन था। कन्या अत्यन्त सुन्दरी तथा सुलक्षणा थी। परन्तु जिस राजकुमार से विवाह होने वाला था वह एक आंख का काना था। वर के पिता को इस बात की बहुत चिन्ता था। जब उसने वैश्य के उस सुन्दर पुत्र को देखा E तो उसने उसके मामा से कहायदि आप अपने भाँजे को कुछ समय के लिए मुझे दे देवें तो आपकी बड़ी कृपा होगी। विवाह के पश्चात मैं इसे आपके पास वापस भेज दूंगा और आपको बहुत सा धन दूंगा। वर के पिता के इस प्रस्ताव से वह सहमत हो गया। और अपने भाँजे को नकली वर बनाकर विवाह मण्डप में भेज दिया। विवाह कार्य विधिवत सम्पन्न हुआ। परन्तु जब वैश्यपुत्र सिन्दूर दान करके वापस लौटने लगा तो उसने राजकुमारी की साड़ी के एक छोर पर लिख दिया कि हे प्रिये तुम्हारा वैश्य पुत्र के साथ हुआ है। अब मैं पढ़ने के लिए काशी जा रहा हूँ। अब तुम्हें एक नकली वर के साथ विदा होना पड़ेगा जो कि एक आंख से काना है और तुम्हारा पति नहीं। इतना लिखकर वैश्यपुत्र चला गया। विदाई के समय जब राजकुमारी ने अपनी साड़ी पर वैश्यपुत्र द्वारा लिखित बात पढ़ी तो उसने विवाह मुझ राजकुमार के साथ जाना अस्वीकार कर दिया और उत्तर में कहायह मेरा पति नहीं है। मेरा पति तो वैश्यपुत्र है जो इस समय पढ़ने के लिए काशी गया है। राजकुमारी की बात सुनकर उसके मातापिता बहुत ही सोच में पड़ गए और वर के पिता द्वारा किये गए छल से दुःखी हुए और कन्या को विदा न किया। बारात खाली हाथ वापस लौट गई। उधर वे दोनों वैश्य काशी पहुंच गए। वहाँ जाकर वैश्यपुत्र विद्याध्ययन तथा उसका मामा यज्ञ सम्पादन में लगा। इस प्रकार कुछ ही दिनों बाद उस लड़के के बारह वर्ष पूरे हो गए। उस दिन यज्ञ हो रहा था। लड़के ने अपने मामा से कहाआज मेरी तबीयत ठीक नहीं जान पड़ रही है इसलिए मैं सोने के लिये जा रहा हूँ। थोड़ी देर बाद आकर जब मामा ने देखा तो भाँजे को मृत अवस्था में पाया जिससे वह बहुत दुःखी हुआ। परन्तु उधर यज्ञ कार्य चल रहा था इसलिए यज्ञ भंग होने के भय से मौन ही रहा। जब यज्ञ की पूर्णाहुती हो गई और सभी ब्राह्मण वहाँ चले गये तो वह जोरों से विलाप करने लगा। उसी समय दैवयोग से पार्वती के साथ शिवजी उधर आ निकले। उस विलाप को सुनकर पार्वती जी का मन दयाई हो उठा और वह शिवजी से बोलीहे भगवन इतना करुण क्रन्दन कौन कर रहा है आप वहाँ चलकर देखिये कि उसके रोने का क्या कारण है पार्वती जी के आग्रह से शिवजी उस स्थान पर गए। वहाँ पहुँच कर पार्वती जी ने उस बालक को पहचान लिया और कहाहे भगवन आपके वरदान से उत्पन्न बालक मृत हो चुका है। इसका क्या कारण है शिवजी बोलेहे देवी यह बालक अपनी पूरी आयु समाप्त कर चुका और अब मृत्यु को प्रात हो गया। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। पार्वती जी ने कहाहे शिवजी आपने जिस प्रकार कृपा करके इसे बारह वर्ष की आयु दी थी उसी प्रकार अनुग्रह करके इसे जीवन की पूरी आयु प्रदान कीजिये नहीं तो वह वैश्य इस वियोग में अपने प्राण छोड़ देगा। पार्वती जी के आग्रह से शिव ने उस बालक को जीवन दान दिया। और स्वयं पार्वती जी सहित शिवलोक को चले गए। इधर शिवजी से वरदान पाकर वह बालक जी उठा और कुछ दिनों के बाद अपने मामा के साथ अपने नगर को प्रस्थान किया। वहाँ से चलकर पुनः उसी नगर में आया जहाँ उसका विवाह राजकुमारी के साथ हुआ था। वहाँ उसने यज्ञ कराकर ब्राह्मणों को भोजन तथा दक्षिणा दी। ब्राह्मणों द्वारा राजा को यह सूचना मिली कि काशी से एक वैश्य पुत्र आया है जो ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा दे रहा है । राजा उसे देखने के लिए गया। वहाँ जब राजा ने प्रत्यक्ष रूप से अपने दामाद को देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वह आदरपूर्वक अपने महल में ले आया। कुछ दिनों तक आदर भाव करने के बाद अपनी पुत्री को अत्यन्त धन देकर विदा किया। वह वैश्य पुत्र अपनी पत्नी और मामा के साथ अपने नगर को चला। जब सब लोग घर के समीप पहुंचे तो उसके मामा ने कहातुम लोग यहीं रुको । मैं घर जाकर आने की खबर देता हूँ। इधर इस बालकं का पिता अपनी पत्नी सहित छत पर बैठा था और अपने मन में संकल्प कर रखा था कि यदि मेरा पुत्र काशी से लौटकर नहीं आवेगा तो हम दोनों यहीं से नीचे कूदकर अपने प्राण गंवा देंगे। से जब लड़के के मामा ने जाकर कहा कि तुम्हारा पुत्र विद्याध्ययन करके अपनी पत्नी को साथ 1 लेकर कुशलतापूर्वक वापस आ गया है तो माता के आनन्द की सीमा न रही। उन लोगों ने अपने पुत्र । और पुत्रवधू का स्वागत किया और नियमपूर्वक सोमवार को व्रत रखकर शिवजी की पूजा करने लगे। व्यक्ति सोमवार को व्रत रखकर श्रद्धापूर्वक शिव पूजन करते हैं इस कथा को पढ़ते और सुनते हैं वे निश्चय ही सभी कष्टों से मुक्त होकर मनोवांछित फल को प्राप्त करते हैं। शिव महिमा १ मैं शिव की पुजारन बनूंगी अपने भोले की जोगन बनूंगी। मैं तो पहनूंगी जोगन का चोला वो है पारस महादेव भोला । चरण छूकर मैं कुन्दन बनूंगी अपने भोले की जोगन बनूंगी। नहीं मिलते हैं अनुरागियों को शिव तो मिलते बैरागियों को। मैं भी बैरागन बनूंगी अपने भोले की जोगन बनूंगी। करके जीजान से उनकी भक्ति शिव से मागूंगी नारी की मुक्ति । नारी जाति का दर्पण बनूंगी अपने भोले की जोगन बनूंगी। सुबह सुबह ले शिव का नाम करले बदे ये शुभ काम । सुबह सुबह ले शिव का नाम शिव आयेंगे तेरे काम। ॐ नमः शिवाय खुद को राख लपेटे फिरते ले औरों को देते धनधान । देवों के हित विष पी डाला नीलकंठ को कोटि कोटि प्रणाम । ॐ नमः शिवाय शिव के चरणों में मिलते हैं सारे तीरथ चारों धाम करनी सुख तेरे हाथों शिव के हाथों में परिणाम । सुबहसुबह ले शिव का नाम । ॐ नमः शिवाय । शिव के रहते कैसी चिन्ता। साथ रहें प्रभु आठों याम। शिव को भज ले सुख पाएगा। मन को आएगा आराम । सुबह सुबह ले शिव का नाम । ॐ नमः शिवाय । चे शिव नाम से है जगत में उजाला हरि भक्तों के है मन में शिघाला। ए शंभू बाबा मेरे भोलेनाव तीनों लोक में तू ही तू। श्रद्धासुमन मेरा मन बेलपत्री जीवन भी अर्पण कर दूं। ए शंभू बाबा । जग का स्वामी है तू अर्न्तयामी है तू। मेरे जीवन की अनमिट कहानी है। तेरी शक्ति अपार तेरा पावन है द्वार । तेरी पूजा ही मेरा जीवन तू आधार । घूल तेरे चरणों की लेकर जीवन को साकार किया। ए शंभू बाबा । मन में हैं कामना कुछ मैं ओर जानू ना जिन्दगी भर। करूं तेरी आराधना सुख की पहचान दे तू मुझे ज्ञान दे। प्रेम सबसे करूं ऐसा वरदान दे। तूने दिया बल निर्वल को अज्ञानी को ज्ञान दिया। ऐ शंभू बाबा । जय ह्ये वैद्यनाथ जय हो भोले भण्डारी। बोल बम बम बम बम बम भोले । जय हो वैद्यनाथ भंडारी तेरी महिमा है न्यारी। सबकी नैया तूने तारी तुझे माने दुनिया सारी बोल बम बम बम भोले। चल कांवरिया चल कांवर उठा कांवर उठा नारा शिव का लगा। मन चाह्य फल देंगे बाबा चल कांवरिया कांवर उठा। सुल्तानगंज में गंगाजल भर ले। कांवर उठा के नंगे पांव चल दे। बोलो बस बम तू भज ले शिवम औघड़ दानी करेंगे सब पूरा। चल कांवरिया चल कांवरिया। जय हो वैद्यनाथ । नदी ह्ये पहाड़ हो पाव व रुके। नारा बोल क्षोल बम बम भोला । तू शिव का कहार वह करे बेड़ा पार । तू चलके शिवनी को कांवर चय। चल कांवरिया। जय हो वैद्यनाथ बाबा वैद्यनाथ की। उन्हीं की दया से चले जग संसार। शिव शम्बू के लिए जोगी कांवर लाते। दीप सुशियों के भोलेनाथ देते है जगा। चल कांवरिया कांवर उठा ।
Pradosh Vrat Katha Shiv ji ka geet.
चल कांवरिया जय हो वैद्यनाथ जय हो वैधनाथ । बोल बम भोला। हे भोले शंकर पधारो हे भोले शंभू पधारो। बैठे छुप के कहां जटाधारी। बैठे छुप के कहां। गंगा जटा में तुम्हारी। हम प्यासे यहां महासती के पति मेरी सुनो वन्दना। हे भोले शंकर पधारो बैठे छुप के कहां आओ मुक्ति के दाता। पड़ा संकट यहां। महासती के पति भोले छुपे हो कहां हे भोले। भागीरव को गंगा प्रभु तूने दी थी सगरजी के पुत्रों को मुक्ति मिली थी। नीलकंठ महादेव हमें है परोसा इच्छा तुम्हारी बिन कुछ भी न होता। हे भोले शंभू पधारो हे गौरी शंकर पधारो किसने रोका वहां। आओ भस्म रमैया सबको तज के यहां हे भोले शंकर पधारों भोले शंभू पधारो बैठे छुप के कहां। मेरी तपस्या का फल चाहे ले लो गंगा जल अब अपने भक्तों को दे दो। प्राण पखेरु कहीं प्यासा उड़ जाएगा कोई तेरी करुणा पे उंगली उठाए ना। भिक्षा में मांगू जन कल्याण । इच्छा पूरी गंगा रूगन की। जा ढेर करो आदेकष्ट हो। मेरी बात रख लो मेरी लाज रख लो। हे भोले गंगाधर पकते हे भोले विषधर पधारो। होऽ टूट जाएगा मेरा जग में नहीं को तेरे बिना। हे भोले शंकर पधारो। ६ शिवनाथ तेरी महिमा। जग तीन लोक गाए नाचे भरा गगन तो झूमे दसों दिशाएं। शिवनाथ तू देव सबसे न्यारा । तुझको नमन हमारा। लाई है तेरे द्वारे दर्शन की कामनाएं शिक्नाथ तेरी महिमा पंछी पवन सुनाएं। नाचे शिवनाथ मस्तक पे चन्द्र आधा है रूप तेरा सादा। आई है गंगधारा लेकर जटाएं शिवनाव तेरी महिमा तारे गगन के गाएं नाचे शिवनाथ । हैं प्रेम की सुधा भी हैं रूप चन्द्रिका भी। ओ नीलकंठ वाले कैसे तुझेरिझाएं शिक्नाव तेरी नाचे भरी गगन। ७ ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय । शिवशंकर का गुणगान करो शिवभक्ति का रसपान करो। जीवन ज्योर्तिमय हो जाए ज्योर्तिलिंगों का ध्यान करो। शिवशंकर का गुणगान करो ॐ नमः शिवाय । उसने ही जगत बनाया है कणकण में वह समाया है। दुख भी सुख सा ही बीतेगा सिर पर जब शिव की छाया है। बोलो हर हर हर महादेव हर मुश्किल को आसान करो। शिव शंकर का गुणगान करो ॐ नमः शिवाय । शंकर तो है अन्तर्यामी भक्तों के लिए सखा से हैं। भगवान भाव के भूखे हैं भगवान प्रेम के प्यासे हैं। मन के मन्दिर में इसीलिए शिव मन्दिर का निर्माण करो। शिव शंकर का गुणगान करो ॐ नमः शिवाय । शिव शंकर का जीवन जयोर्तिमय ॐ नमः शिवाय। सारे गांव से दूध मंगाकर पिंडी को नहला दो। भोले को नहला दो। मेरे शंकर को नहला दो। आया बाबा का त्यौहार शिवरात्रि का त्यौहार आया महारात्रि शिवरात्रि की महिमा जो नर नारी गावे। व्रत पूजा परिवार सहित कर सकल पदारव पार्वे धूप दीप बेलपत्र से बाबा को संवारो शंकर जटा जूट गंगाधर है गौरीश पुकारो । आया बाबा का त्यौहार । भोले दया के सागर अपने पूरे करते सपने । तन मन सब अर्पित कर दो। प्राण दिये हैं उसने सुरह शाम बाबा दर आकर मन मंदिर संवारो। श्रद्धा पूर्वक भक्ति भाव से शंकर को पुकारो आया बाबा सारे गांव से भोले आश गबा का त्यौहार । ६ भोले बाबा भोले भंडारी आए दर पे तेरे पुजारी । जय सोमेश्वर जय सोमेश्वर जय कैलाशी जय अविनाशी। प्रभु मेरे मन को बना दे शिवाला तेरे नाम की जपूं माला। अब तो मनोकामना है ये मेरी जिधर देखू उधर नजर आए उमरु वाला । प्रभु मेरे मन को बना दे शिवाला । भोले जय परमेश्वर जय गंगाधर जय बम भोले जय जय नटवर। कहीं और ज्यों ढूंढने तुझको जाऊं प्रभु मन भीतर ही मैं तुझे पाऊं। ये मन का शिवाला सबसे निराला जिधर देखू आए नजर डमरु वाला । प्रभू मेरे मन को बना दे बाबा भोले जय ओंकारी जय दुखभंजन जय त्रिलोकी जय नटराजन । भक्ति पे अपनी है विश्वास मुझको। बनाएगा चरणों का दास मुझको। मैं तुझको में तुझसे । प्रभू मेरे मन को बना दे शिवाला। भोलेनाथ भोले बाबा जय जय स्वामी अन्तर्यामी ओंकारेश्वर त्रिपुरारि । तू दर्पण सा उजाला मेरे मन में भर दे। तू अपना उजाला मेरे मन को भर दे। हैं चारो दिशाओं में तेरा उजाला। जिधर देखू आए नजर डमरु वाला । प्रभू मेरे मन को बना दे शिवाला। मिलता है सच्चा सुख केवल शिवजी तुम्हारे चरणों में। ये विनती है पल छिनछिन की रहे ध्यान तुम्हारे चरणों में। चाहे बैरी जग संसार बने चाहे जीवन मुझ पर भार बने। चाहे मौत गले का हार बने रहे ध्यान तुम्हारे चरणों में। चाहे अग्नि में मुझे जलना हो चाहे काटों पे मुझे चलना हो। चाहे छोड़ के दिश निकलना रहे ध्यान तुम्हारे चरणों में। चाहे संकट ने मुझे घेरा हो चारों ओर अंधेरा हो पर मन नहीं डगमग मेरा हो। रहे ध्यान तुम्हरे चरणों में मिलता। जिव्हा पर तेरा नाम रहे तेरा ध्यान सुबह शाम रहे तेरी याद तो आठों याम रहे ध्यान तुम्हारे चरणों में। हर हर गगे महादेव शिवशंकर की जय बोलो। हर हर गंगे हर हर गगे हर हर हर जय महादेव शिवशंकर बेड़ा पार करो। हम भक्तों का उद्धार करो। सब कष्ट क्लेश मन के। भोले बाबा उपकार करो कृपा कर दो हे शिव शंकर दुखड़े हर लो। हे शिव शंकर हम सब तो संसारी है दाता तेरे पुजारी हैं जय आदि देव । जय महादेव जय शिवशंकर जय कैलाशी जय महादेव हे उमापति हे गंगाधर हे नटराजन हम पर भी दया दृष्टि कर दो। ह्ये सफल हमारा भी जीवन । हमको अपने दर्शन देके मन के सपने साकार करो। है नील गगन में तू ही तू वन में उपवन में तू ही तू कणकण में तेरा डेरा है। तेरा हर ओर बसेरा है। हर हर महादेव । हे वैरागी हे सन्यासी हे नागेश्वर हे भण्डारी हम भक्तजनों के जीवन पर उपकार करो। हे उपकारी मन पुष्प चढ़ाने आऐ हैं। ये प्रेम प्रभू स्वीकार करो। है झट में पावन नाम तेरा है सबकी जुबां पर नाम तेरां जब तक इस तन में प्राण रहें तेरे चरणों में ध्यान रहे। जय सारे संसार में है भगवान तुम सा वरदानी कोई नहीं। मुझ सा कोई दीन नहीं जग में और तुम सा उपकारी कोई नहीं। तुम सबकी बिगड़ी बनाते हो मुझ पर भी दया करो। मैं बन के भिखारी आया हूं और खाली झोली भर दो दाता । मुझको सुख का वर दो। हर हर गंगे महादेव । ।।
Pradosh Vrat Katha आरती शिवजी की।।
जै शिव ओंकारा हर शिव ओंकारा ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्धांगी धारा ।। एकानन चतुरानन पंचानन राजै हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन दो भुज चार चर्तुभुज दस भुजते सौहे तीनों रूप निरखता त्रिभुवन जन मौहे ।। अक्षमाला बनमाला मुण्डमाला धारी चन्दन मृगमद सोहे भोले शशि धारी।। श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे।। कर में श्रेष्ठ कमण्डलु चक्र त्रिशुलधर्ता जगकर्ता जगहा जगपालनकर्ता ।। ब्रह्मा विष्णु सदाशिव व जानत अविबेका प्रणवाक्षर के मध्ये यह तीनों एका।। त्रिगुणशिव की आरती जोकोई नर गावे कहत शिवानंदस्वामी मन वांछित फल पावे ।।
Pradosh Vrat Katha जै आरती जय जगदीश हरे,
ॐ जय जगदीश हरे स्वामी जय जगदीश हरे। भक्त जनों के संकट पल में दूर करे। ॐ। जो ध्यावे फल पावे दुख बिनसे मन का। सुख सम्पत्ति घर आवे कष्ट मिटे तन का । ॐ । मात पिता तुम मेरे शरण गहूं किसकी। तुम बिन और न दूजा आस करूं किसकी। ॐ। तूम पूरण परमात्मा तुम अन्तर्यामी। पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी । ॐ। तुम करुणा के सागर तुम पालन कर्ता। मैं मूरख खल कामी कृपा करो भर्ता । ॐ। तुम हो एक अगोचर सबके प्राण पती। किस विधि मिलूं दयामय तुमको मैं कुमती । ॐ। दीन बन्धु दुःख हर्ता तुम ठाकुर मेरे। अपने हाथ उठाओ द्वार पड़ा मैं तेरे। ॐ। विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा। श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ सन्तन की सेवा । ॐ।
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