योग का नियमित अभ्यास 'मन:पूतं समाचरेत्' इस सिद्धांत के अनुसार शुद्ध चित्त होकर
जो कुछ किया जाय वह शीघ्र फलदायक होता है। अतः मानसिक शुद्धि के लिए योगका अभ्यास अत्यावश्यक है। उसमें प्राणायाम ही परम बल है। इसके नियमित अभ्यास से प्राणका संचारी मार्ग प्रशस्त होकर जीवात्माको परमात्माके निकट पहुंचानेमें समर्थ होता है। प्राणके अधीन मन, मनके अधीन इन्द्रियां, और मनरूपी लगामसे दसों इन्द्रीयरूपी घोड़ोंको वशमें करनेमें बुद्धिरूपी सारथि सक्षम है। अतः प्राणायामके बिना उत्तरोत्तर भूमिकापर आरूढ़ होना कठिन होता है। इसलिए मन रूपी दुर्दम्य घोड़ोंको निग्रह करनेके लिए यौगिक क्रियाका उपदेश है। यह योगिक क्रिया अव्योक्तोपासना करनेवालोंके लिए उपयोगी है। अव्यक्तोपासना कष्ट साध्य होती है। भक्तिभाव में भी शुद्ध मनकी परमावश्यकता है अन्यथा जप, तप, सेवा, पूजा, ध्यान इत्यादि में मन नहीं लगेगा। इस मनको नियन्त्रित करने के लिए ही योग का सहारा लेना पड़ता है।
सभी कर्मोंको निष्काम-भावसे भगवत्समर्पित करनेपर कर्म संज्ञा नष्ट हो जाती है और वे अर्पित कर्म भगवद्धर्म कहलाते हैं, जो बंधक नहीं मोचक हो जाते हैं।
भगवद्भक्तियोगसे स्वर्ग अपवर्ग आदि सकल पुरुषार्थों की प्राप्ति हो जाती है। भक्तियोगमें दूसरे साधनोंकी विशेष अपेक्षा नहीं होती है, किंतु अन्य प्रायः सभी साधनोंमें भक्तिकी अपेक्षा रहती है। यह भक्तियोग सर्वतंत्र, सर्व सुलभ होकर भी सर्वदुष्कर है। बिना गुरू गोविन्दकी कृपाके उसमें अधिकार पाना कठिन है। अतः भगवत्प्रसाद पानेके लिये सद्गुरु का आश्रयण अभिष्ट है, जनके सदुपदेशसे चित्तकी वृत्तियोंका निरोधकर भगवान् में मन इन्द्रियों को लवलीन करनेकी शक्ति प्राप्त होती है।
श्रद्धा-भक्ति से मन लगाकर भगवत्सेवन, श्रवण, कीर्तनादि करनेवाला भक्तियोगी सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं।
इसलिए भगवान कहते हैं__मच्चित: सततं भव, मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसात्तरिष्यसि' इससे सिद्ध होता हैं कि भगवान् में चित्तको एकाग्र करना ही योग है। उससे भगवत्प्रसाद सिद्ध होनेपर सभी दुर्गम मार्गोंको पार कर जाता है।
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