ऋषि वाल्मीकि का अयोध्या वर्णन राम राज्य की अयोध्या कैसी थी राम राज्य की विशेषता, उच्च शिक्षा, न्याय व्यवस्था, उतम स्वास्थ, नैतिक चरित्र, राम राज्य श्लोक राम राज्य की कल्पना राम राज्य का अर्थ राम राज्य की विशेषता
अयोध्या नगरी का वर्णन राम राज्य की अयोध्या कैसी थी राज्य व्यवस्था
उन दिनो कोशल के राजा दशरथ थे, वह अपनी राजधानी अयोध्या मे वास करते थे, स्वर्ग के देव लोग भी महान पराक्रमी राजा दशरथ को युद्ध मे सहायता के लिए बुलाया करते थे, तीनो लोको मे दशरथ का नाम प्रसिद्ध था, राजा दशरथ की तुलना इद्र और कुबेर के साथ की जाती थी, कोशल की सभ्य प्रजा सदा प्रसन्न रहती थी, असख्य वीर तथा योद्धा नगर की रक्षा के लिए नियुक्त रहते थे, दशरथ के कौशल पूर्ण प्रबनध से शत्रु लोग अयोध्या के पास तक भी नही पहुच पाते थे, दुर्ग की प्राचीर को घेरती हुई नहरो और नाना प्रकार के शत्रु घातक यंत्रों से अयोध्या सर्वदा अजेय थी, उसका अयोध्या नाम यथार्थ था, यश और ऐश्वर्य मे देवेद्रतुल्य राजा दशरथ के मंत्री भी बडे योग्य थे, आठ मत्री थे सब के सब अच्छे सलाहकार राजाज्ञा का तुरत पालन करने वाले और राजा की सेवा मे तत्पर रहते इन सचिवो के अतिरिक्त धर्मोपदेश देने तथा यज्ञ आदि विधियो को शास्त्रोक्त विधि से कराने के लिए वसिष्ठ वामदेव आदि राजगुरु तथा अन्य उत्तम ब्राह्मण राजा के साथ रहा करते थे, दशरथ के राज्य मे कभी बल पूर्वक कर वसूल नही किये जाते थे, जब कभी अपराधियो को दड दिया जाता तो अपराधी की परिस्थिति और शक्ति का भी विचार किया जाता था, समर्थ सलाहकार और कर्मचारियो के बीच राजा दशरथ सूर्य की तरह प्रकाशमान थे,
दशरथ को कुछ की कमी ना थी एक ही कमी थी संतान का आभाव
दशरथ को राज करते हुए कई वर्ष बीत गये किंतु उनकी एक मनो कामना पूरी नही हुई थी, अब तक उन्हे पुत्र लाभ नही हुआ था, एक बार वसत ऋतु मे चिंतातुर राजा के मन में यह बात आई कि पुत्रकामेष्टि और अश्वमेध यज्ञ किया जाय, उन्होने गुरुजनो से राय ली गुरुजनो ने समर्थन किया सबने निर्णय किया कि ऋषि ऋष्यशृग को आमंत्रित किया जाए और इनके के निर्देशन मै यज्ञ संपन्न करवाया जाए यज्ञ की तैयारिया होने लगी राजाओ को निमत्रण भेजे जाने लगे और यज्ञमडप का निर्माण आदि कार्य तेजी से शुरू हो गये,
पुत्र येष्ठी यज्ञ करने का संकल्प
उन दिनों यज्ञ करना कोई मामूली बात न थी सबसे पहले वेदी का निर्माण ध्यानपूर्वक किया जाता था इस कार्य के लिए निपुण लोग ही नियुक्त किये जाते थे उनके नीचे कई कर्मचारी होते थे, विशेष विशेष प्रकार के बर्तन बनवाने पडते थे बढई शिल्पी कुए खोदने वाले चित्रकार गायक विविध वाद्यो को बजाने वाले और नर्तक एकत्र करने पडते थे, हजारो की संख्या मे आने वाले अतिथियो को ठहराने के लिए एक नये नगर का ही निर्माण किया जाता था जहा सब के लिए भोजन और मनोरजन की भी व्यवस्था होती थीी, सभी को वस्त्र धन गौ आदि का दान देना भी आवश्यक माना जाता थाा, ऐसे अवसर पर उन दिनो उसी प्रकार के प्रबध होते थे जैसे आज कल के बडे बडे सम्मेलनो के लिए हुआ करते है ये सब कार्य सम्यक् रूप मे हो जाने के उपरात चारो दिशाओ मे भ्रमण कर के विजयी होकर लौटने के लिए यज्ञ के अश्व को बडी सेना के साथ भेजा गया, एक वर्ष बीत जाने के बाद यज्ञ का अश्व और सैनिक विजय पताका फहराते हुए कौतुक तथा शोर शराबे के साथ निर्विघ्न अयोध्या लौट आये तत्पश्चात् शास्त्रो के आदेशो के अनुसार यज्ञ क्रिया प्रारभ हुई,
रावण के आतंक पर देवलोक स्वर्ग मै देवताओं का मंत्राना
अयोध्या मे जिस समय यह सब चल रहा था देव लोक मे देवो की एक भारी बैठक हुई, वाल्मीकि कहते है कि ब्रह्मा को सबोधित करके देवो ने शिकायत की हे पभु राक्षस रावण को आपसे वरदान मिल गया है, उसके बल से वह हम सबको बुरी तरह से सता रहा है, उसे दबाना जीतना या मारना हमारी शक्ति के बाहर है, आपसे वरदान पाकर वह सुरक्षित हो गया है, उसका अहंकार अधिक बढ़ चुका है, उसके अत्याचारो का अत नही वह इद्र के स्वर्ग पर कब्जा कर लेना चाहता है उसे देखकर सूर्य वायु और वरुण भी डर से कापते है, उसकेे अत्याचारो से बचने का आप ही कोई उपाय बता सकते है,
ब्रह्मा जी का सुझाव भगवान विष्णु के पास जाए
ब्रह्मा ने देवो की शिकायत सुनी उन्होने उत्तर दिया रावण ने अपने तपोबल से वरदान प्राप्त किया है, किंतु हमारे सद्भाग्य से वर मागते समय वह एक बात भूल गया, देव गधर्व राक्षसो से युद्ध मै न हारने व न मारे जाने की मांग की थी, मनुष्यो को उसने अति तुच्छ समझ कर वरदान मांगने मै मनुष्य से हानि न हो एसा नहीं मांगा है, अत अभी भी उसे परास्त के लिए युक्ति है, यह सुनकर देवगण बहुत प्रसन्न हुए,
देवताओं का भगवान विष्णु से सहायता हेतु प्रार्थना करना
सब के सब भगवान विष्णु के पास पहुचे, उनको प्रणाम कर के सब ने एक स्वर से कहा हे नाथ पापी रावण ब्रह्मा से वरदान पाकर सारे जगत को पीडित कर रहा है अब हमसे सहा नही जाता, उसने देव गधर्व राक्षसादि से अमरत्व माग लिया है, मनुष्यो का नाम उसने नहीं लिया या तो भूल गया या उसने मनुष्य जाति को अति दुर्बल समझा हमे आपकी कृपा चाहिए मनुष्यजन्म लेकर आपको हमारी रक्षा करनी होगी,
भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा जल्द ही रामा अवतार होगा जो रावण के आतंक से अभय दिलाएगा
नारायण ने देवो की प्रार्थना स्वीकार कर ली उन्होने सान्त्वना देते हुए कहा पृथ्वी लोक पर महराज दशरथ पुत्रप्राप्ति हेतु पुत्रयेस्टी यज्ञ कर रहे है, मैं उसके घर चार पुत्रो के रूप मे जन्म लूगा रावण को मारकर आप लोगो को सकट से मुक्त करूगा,
यज्ञ से पायश का निकलना और दशरथ की रानियो ने सेवन किया
अपने वचन का पालन करने के लिए भगवान विष्णु ने दशरथ की रानियो के गर्भ मे वास करने का सकल्प कर लिया दशरथ के यज्ञ की विधिया चल रही थी ऋष्यशृंग ने अग्नि मे घी की आहुति दी अग्नि देवता ने घी का पान किया, अग्नि से एक बडी भारी ज्वाला निकली, सूर्य के समान उसके प्रकाश से सबकी आखो मे चकाचौंध व्याप्त हो गई, उस ज्वाला के अदर दोनो हाथो मे सुवर्ण पात्र लिये एक मूर्ति खडी थी, गभीर दुदुभिनाद जैसे स्वर मे उसने महाराजा को सम्बोधित करके कहा राजन् तुम्हारी प्रार्थना को सुनकर देवो ने तुम्हारी रानियो के लिए यह पायस भेजा है, तुम्हे पुत्रो की प्राप्ति होगी, यह पायस ले जाकर अपनी पत्नियो को पिलाओ,
दशरथ ने प्रसाद को अपनी रनियो मै बाट दिया, भगवान विष्णु का अपना संकल्प पूरा करना
तुम्हारा मगल हो दशरथ के आनद का पार न था जैसे माबाप बालक को वात्सल्य से उठाते है वैसे ही उन्होने सुवर्ण पात्र अपने हाथो मे लिया और अग्नि से निकला हुआ यज्ञपुरुष अतर्धान हो गया, यज्ञ की शेष विधिया पूरी हो जाने के बाद दशरथ पायस से पूर्ण पात्र को अपने अत पुर मे रानियो के पास ले गये और कहने लगे देवताओ का प्रसाद लाया हू। तुम तीनो इसे ग्रहण करो, इससे पुत्रो का जन्म होगा। इस बात को सुनते ही सारा अत पुर प्रसन्नता से खिल उठा । दशरथ के तीन रानिया थी। महारानी कौशल्या ने पायस का आधा भाग पिया । शेष आधा कौशल्या ने सुमित्रा को दिया। सुमित्रा ने उसका आधा स्वयं पिया और जो बचा वह कैकेयी को दे दिया। उसके आधे को कैकेयी ने पिया और बाकी को दशरथ ने पुन सुमित्रा को पीने के लिए दे दिया। परम दरिद्र को कही से खजाना मिल जाय तो उसे जैसी खुशी होगी वैसे ही दशरथ की तीनो रानिया फूली न समाई । उनकी आशा पूर्ण हुई तीनो ने गर्भ धारण किया,
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