Valmiki Ramayana Sunderkand shlok sarg 1 वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड सर्ग १ श्लोक १६२ से २१० Pratham Sarg shlok 162 se 210
चकार सुरसा वक्त्रमशीतीयोजनायतम् । हनूमानचलप्रख्यो नवतीयोजनोच्छ्रितः ॥ १६२ ॥ इस पर जब सुरसा ने अपना मुख अस्सी योजन का कर लिया तब हनुमान जी बृहदाकार पर्वत की तरह नब्बे बोजन लंबे हो गये ॥१६२॥
हनुमान विभीषण संवाद
हनुमान लंकिनी संवाद
सुरसा और हनुमान जी का संवाद,
दीर्घजिलं सुरसया सुघोरं नरकोपमम् । स संक्षिप्यात्मनः कायं जीमूत इव मारुतिः ॥ १६४ ॥
तन्मुहूर्त हनुमान्बभूवाङ्गुष्ठमात्रकः।। सोऽभिपत्याशु तद्वक्त्रं निष्पत्य च महाबल: ॥१६५।।
इस पर जब सुरसा ने अपना मुख सौ योजन फैलाया ; तब बुद्धिमान् वायुनन्दन हनुमान जी ने उसके उस सौ योजन फैले हुए बड़ी जिह्वा से युक्त, भवङ्कर और नरक की तरह मुख को देख, मेघ को तरह अपने शरीर को समेटा और वे तत्क्षण अंगूठे के बराबर छोटे शरीर वाले हो गये। तदनन्तर वे महाबली उसके मुख में प्रवेश कर तुरन्त बाहिर निकल आये ॥ १६३ ॥ १६४ ॥ १६५ ॥
अन्तरिक्षे स्थितः श्रीमान्प्रहसनिदमब्रवीत् । प्रविष्टोऽस्मि हि ते वक्त्रं दाक्षायणि नमोस्तु ते॥१६६ ॥
और आकाश में खड़े हो हँसते हुए यह बोले-हे दाक्षायणि ! तुझको नमस्कार है । मैं तेरे मुख में प्रवेश कर चुका ॥ १६६ ॥
गमिष्ये यत्र वैदेही सत्यश्चास्तु वरस्तव । तं दृष्ट्वा वदनान्मुक्तं चन्द्रं राहुमुखादिव ॥ १६७॥
तेरा वरदान सत्य हो गया। अब मैं वहाँ जाता हूँ, जहाँ सीता जी हैं । राहु के मुख से चन्द्रमा के समान, हनुमान जी को अपने मुख से निकला हुश्रा देख, ॥ १६७ ॥ सुरसा अपना रूप धारण कर हनुमान जी से बोली-हे कपि श्रेष्ठ ! तुम अपना कार्य सिद्ध करने के लिये जहाँ चाहो तहाँ जाओ ॥ १६८ ॥ और महात्मा श्रीरामचन्द्र जी से सीता को लाकर मिला दो। हनुमान जी का यह तीसरा दुष्कर कर्म देख, ॥ १६६ ॥
साधु साध्विति भूतानि प्रशशंसुस्तदा हरिम् । स सागरमनाधृष्यमभ्येत्य वरुणालयम् ॥ १७० ॥
जगामाकाशमाविश्य वेगेन गरुडोपमः । सेविते वारिधाराभिः पन्नगैश्च निषेविते ॥ १७१॥
साधु साधु कह कर सब लोग हनुमान जी की प्रशंसा करने लगे । तदनन्तर हनुमान जी वरुणालय समुद्र के ऊपर, श्राकाशमार्ग से गरुड़ की तरह बड़े वेग से जाने लगे। वह श्राकाशमार्ग जलधारा से युक्त, पक्षियों से सेवित था ॥ १७० ॥ ॥ १७१॥
चरिते कैशिकाचारैरावतनिषेविते । सिंहकुञ्जरशार्दूलपतगोरगवाहनैः ॥ १७२ ॥ विमानैः सम्पतद्भिश्च विमलैः समलङकृते । वज्राशनिसमाघातैः पावकैरुपशोभिते ॥ १७३ ॥
तुम्बुरु आदि विद्याधरों से सेवित, ऐरावत सहित, सिंह, गजेन्द्र, शार्दूल, पक्षी और सर्प आदि वाहनों से युक्त निर्मल विमानों से भूषित; वज्र के तुल्य स्पर्श वाले, अग्नि तुल्य ॥ १७२ ॥ १७३ ॥
देवराजगजाक्रान्ते चन्द्रसूर्यपथे शिवे ॥ १७६ ॥
बहुशः सेविते वीविद्याधरगणैर्वरैः ॥ १७७ ॥
पुण्यात्मा महाभाग स्वर्ग को जीतने वालों से शोभित, सदा ही हव्य को लिये हुए अग्नि, ग्रह, सूर्य और तारागण से सेवित; महर्षि, गन्धर्व, नाग और यक्षों से पूर्ण, एकान्त, विमल, विशाल और विश्वावसु गन्धर्व से सेवित, इन्द्र के ऐरावत गज से रोदा हुआ; चन्द्रमा और सूर्य का सुन्दर मार्ग ॥ १७४ ॥ १७५ ॥ १७६ ॥ ।जीवलोक का चँदोवा रूपी इस स्वच्छ मार्ग को ब्रह्मा जी ने बनाया है । इस मार्ग का सेवन अनेक वीर और श्रेष्ठ विद्याधर गण किया करते हैं ॥ १७७॥
जगाम वायुमार्गे च गरुत्मानिव मारुतिः । [हनूमान्मेघजालानि प्रकर्षन्मारुतो यथा ॥ १७८ ॥
ऐसे वायुमार्ग से पवनकुमार हनुमान जी गरुड़ जी की तरह बड़ी तेजी के साथ, उड़े चले जाते थे । जाते हुए वे मेघों को चीरते हुए चले जाते थे ॥ १७ ॥
कालागुरुसवर्णानि रक्तपीतसितानि च । कपिनाऽऽकृष्यमाणानि महाभ्राणि चकाशिरे ॥ १७९ ॥
काले, अगर की तरह लाल, पीले और सफेद रंग के बड़े बड़े बादल कपिश्रेष्ठ हनुमान जो द्वारा खींचे जाकर अत्यन्त शोभा को प्राप्त होते थे ॥ १७६ ॥
प्रविशन्नभ्रजालानि निष्पतंश्च पुनः पुनः । प्रादृषीन्दुरिवाभाति निष्पतन्प्रविशंस्तदा ] ॥ १८० ॥
प्रदृश्यमानः सर्वत्र हनुमान्मारुतात्मजः । भेजेऽम्बरं निरालम्ब लम्बपक्ष इवाद्रिराट् ॥ १८१ ॥
हनुमान जी कभी तो मेघों के पीछे छिप जाते और कभी बाहिर निकल आते थे। उनके बारंबार मेघों में छिपने और निकलने से वे वर्षा कालीन चन्द्रमा की तरह सर्वत्र सब को देख पड़ते थे। हनु मान जी पंख लटकाये पर्वतश्रेष्ठ की तरह निराधार मार्ग में देख पड़ते थे ॥ १८० ॥ १८१ ॥
प्लवमानं तु तं दृष्ट्वा सिंहिका नाम राक्षसी । मनसा चिन्तयामास प्रवृद्धा कामरूपिणी ॥ १८२ ॥
इनको आकाश-मार्ग से जाते देख सिंहिका नाम राक्षसी, जो समुद्र में रहती थी और जो बहुत बूढी हो चुकी थी तथा जो इच्छानुसार तरह तरह के रूप धारण कर सकती थी अपने मन में विचारने लगी कि, ॥ १८२॥
कृया अद्य दीर्घस्य कालस्य भविष्याम्यहमाशिता । १८३ ॥
पाहा आज मुझे बहुत दिनों बाद भोजन मिलेगा। क्योंकि अाज यह विशालकाय जीव बहुत दिनों बाद मेरे हाथ लगा है ॥ १८३ ॥
इति संचिन्त्य मनसा छायामस्य समाक्षिपत् । छायायां संगृहीतायां चिन्तयामास वानरः ॥ १८४ ॥
इस प्रकार विचार, सिंहिका ने हनुमान जी की परछाई पकड़ी । छाई पकड़ जाने पर हनुमान जी विचारने लगे ॥ १८४॥ अचानक मेरी छाया पकड़ा जाने पर मै शिथिल हो चुका है। इस क्षण मेरी स्तिथि समुंद्री तूफान मै फसी नाव की भाती हो गया है। ॥ १८५ ॥
तिर्यगूर्ध्वमधश्चैव वीक्षमाणः समन्ततः । ददर्श सा महासत्त्वमुत्थितं लवणाम्भसि ॥ १८६॥
इस प्रकार सेोच, हनुमान जी अगल बगल, ऊपर नीचे देखने लगे। तब उन्होंने देखा कि, खारी समुद्र में कोई एक बड़ा भारी जन्तु उतरा रहा है ॥ १८६ ॥
valmiki Ramayana Pratham Sarg shlok 187 se 210 in Sanskrit hindi text,
तां दृष्ट्वा चिन्तयामास मारुतिर्विकृताननाम् । कपिराज्ञा यदाख्यातं सत्त्वमद्भुतदर्शनम् ॥ १८७ ॥
छायाग्राहि महावीर्य तदिदं नात्र संशयः। स तां बुद्धार्थतत्त्वेन सिंहिकां मतिमान्कपिः ॥१८८॥
व्यवर्धत महाकायः प्रादृषीय बलाहकः । तस्य सा कायमुद्वीक्ष्य वर्धमानं महाकपेः ॥ १८९ ॥
उस विकराल मुख वाले जन्तु को देख जब हनुमानजी ने अपने मन में विचार किया, तब इन्हें कपिराज सुग्रीव की बात याद पड़ी और उन्होंने निश्चय किया कि, अद्भुत सूरत वाला और छाया पकड़ने वाला महाबली जीव निस्सन्देह यही है । इस प्रकार उसके कर्म को देख, बुद्धिमान् हनुमान जी उस सिंहिका को पहचान कर वर्षाकाल के बादल की तरह बढ़े। जब सिंहिका ने हनुमान के शरीर को बढ़ता हुआ देखा ॥ १८७ ॥ १८८ ॥ १८६ ॥
वक्त्रं प्रसारयामास पातालतलसन्निभम् । घनराजीव गर्जन्ती वानरं समभिद्रवत् ॥ १९० ॥
तब उसने पाताल की तरह अपना मुख फैलाया और वह बादल की तरह गर्जती हुई हनुमान जी की ओर दौड़ी ॥ १६० ॥
स ददर्श ततस्तस्या विकृतं सुमहन्मुखम् । कायमानं च मेधावी मर्माणि च महाकपिः ॥ १९१॥
तब हनुमान जी ने उसके भयङ्कर और विशाल मुख को और उसके शरीर की लंबाई चौड़ाई तथा शरीर के मर्मस्थलों को भली भांति देखा भाला ॥ १६१॥
स तस्या विकृते वक्त्रे वज्रसंहननः कपि।। संक्षिप्य मुहुरात्मानं निष्पपात महाबलः ॥ १९२ ॥
महाबली और वज्र के समान दृढ शरीर वाले हनुमान जी ने, अपना शरीर अत्यन्त छोडा कर लिया और वे उसके बड़े मुख में घुस गये ॥ १९२॥
आस्ये तस्या निमज्जन्तं ददृशुः सिद्धचारणाः। . ग्रस्यमानं यथा चन्द्र पूर्ण पर्वणि राहणा ॥ १९३॥
उस समय सिद्धों और चारणों ने हनुमान जी को सिंहिका के मुख में गिरते हुए देखा । जिस प्रकार पूर्णिमा का चन्द्रमा, राहु से ग्रसा जाता है, उसी प्रकार हनुमान जी भी सिंहिका द्वारा असे गये ॥ १६३॥
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः । उत्पपाताथ वेगेन मनःसम्पातविक्रमः ॥ १९४॥
हनुमान जी ने सिंहिका के मुख में जा, अपने पैने नखों से उसके मर्मस्थल चीर फाड़ डाले और मन के समान शीघ्र वेग से वे वहां से निकल कर, फिर ऊपर चले गये ॥ १९४॥
तां तु दृष्टया च धत्या च दाक्षिण्येन निपात्य हि । स कपिप्रवरो वेगाद्ववृधे पुनरात्मवान् ।। १९५॥
इस प्रकार से हनुमान जी ने उसे दूर ही से देख कर, धैर्य और चतुराई से मार गिराया। तदनन्तर उन्होंने पुनः अपना शरीर पूर्व वत् बड़ा कर लिया ॥ १६५ ॥
हृतहृत्सा हनुमता पपात विधुराम्भसि । तां हतां वानरेणाशु पतितां वीक्ष्य सिंहिकाम् ॥१९६॥
वह राक्षसो हृदय के फट जाने से श्रात हो, समुद्र के जल में डूब गयी । हनुमान जी द्वारा बात को बात में मार कर गिरायो गयी सिंहिका को देख ॥ १६६ ॥
भूतान्याकाशचारीणि तमूचुः प्लवगर्षभम् । भीममद्य कृतं कर्म महत्सत्त्वं त्वया हतम् ॥ १९७॥
आकाशचारी प्राणियों ने हनुमान जी से कहा । तुमने जो इस बड़े जन्तु को मारा से प्राज तुमने बड़ा भयङ्कर काम कर डाला ॥ १६७॥
साधयार्थमभिप्रेतमरिष्टं गच्छ मारुते । यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव ॥ १९८ ॥
धृति ष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति । स तैः सम्भावितः पूज्यैः प्रतिपन्नप्रयोजनः ॥ १९९ ॥
हे मारुतिनंदन ।जिसमे धर्य, पैनी दृष्टि, सूक्ष्म बुद्धि और ज्ञानवान हो वह विकट स्थिति मै भी नहीं घबराता है। तुममें यह सब गुण मौजूद है। अब तुम्हारे मार्ग मै कोई बाधा नहीं आएगी, तुम अपना राम कार्य को अवश्य पूर्ण करो, पूज्य हनुमान जी उन प्राणियों से पूजित और अपने कार्य की सिद्धि के विषय में निश्चित से हो ॥ १९९ ॥
जगामाकाशमाविश्य पनगाशनवत्कपिः । प्राप्तभूयिष्ठपारस्तु सर्वतः प्रतिलोकयन् ॥ २०० ॥
गरुड़ की तरह बड़े वेग से आकाश में उड़ने लगे और समुद्र के दूसरे तट के निकट पहुँच चारों बार देखने लगे ॥ २०० ॥
योजनानां शतस्यान्ते वनराजि ददर्श सः । ददर्श च पतन्नेव विविधद्रुमभूषितम् ॥ २०१॥
तब उन्हें वहाँ से सौ योजन के फासले पर बड़ा भारी एक जंगल देख पड़ा । जाते जाते उन्होंने विविध वृक्षों से भूषित ॥ २०१॥
द्वीपं शाखामृगश्रेष्ठो मलयोपवनानि च । सागरं सागरानूपं सागरानूपजान्दुमान् ॥ २०२॥
द्वीप ( टापू ), और मलयागिरि के उपवनों को देखा । उन्होंने सागर और सागर का तट और सागरतट पर लगे हुए पेड़ों को ॥ २०२॥
सागरस्य च पत्नीनां मुखान्यपि विलोकयन् । स महामेघसङ्काशं समीक्ष्यात्मानमात्मवान् ॥ २०३॥
निरुधन्तमिवाकाशं चकार मतिमान्मतिम् । कायद्धिं प्रवेगं च मम दृष्ट्वैव राक्षसाः ॥ २०४॥
तथा सागर की पत्नी अर्थात् नदियों को और नदियों के और समुद्र के संगमस्थानों को ( भी) देखा । बुद्धिमान् हनुमान जी ने महामेघ के समान अपने शरीर को जो आकाश को ढके हुए था, देख कर अपने मन में विचारा कि, मेरा यह बड़ा शरीर और मेरा वेग देख कर राक्षस लोग ॥ २०३ ॥ २०४ ॥
मयि कौतूहलं कुर्युरिति मेने महाकपिः । ततः शरीरं संक्षिप्य तन्महीधरसन्निभम् ॥ २०५॥
पुनः प्रकृतिमापेदे वीतमोह २इवात्मवान् । तद्रूपमतिसंक्षिप्यः हनूमान्प्रकृतौ स्थितः। त्रीन्क्रमानिव विक्रम्य बलिवीयहरो हरिः॥ २०६॥
मुझे एक खेल की वस्तु समझेगे । यह विचार उन्होंने अपने पर्वताकार शरीर को अति छोटा कर लिया। उन्होंने काम मोहादिविहीन जीवन्मुक योगी की तरह पुनः अपना लघुरूप जा सदा बना रहता था, वैसे ही धारण कर लिया ; जैसे भगवान् वामन ने बलि को छलने के समय अपने शरीर को बढ़ा कर, पुनः छोटा कर लिया था ॥ २०५ ॥ २०६ ॥
स चारुनानाविधरूपधारी परं समासाद्य समुद्रतीरम् । परैरशक्यः प्रतिपन्नरूपः समीक्षितात्मा समवेक्षितार्थः ॥ २०७॥
विविध मनोहर रूप धारण करने वाले हनुमान जी ने दूसरे द्वारा न पार जाने योग्य समुद्र के पार पहुँच कर, और आगे के कर्तव्य का भली भांति विचार कर, अपना कार्य सिद्ध करने के लिये अत्यन्त छोटा रूप धारण किया ॥ २०७॥
सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 1-40,
सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 44-77,
प्रथम सर्ग 78 से 117,
Sarg shlok 139 se 161 in hindi,
ततः स लम्बस्य गिरेः समृद्ध विचित्रकूटे निपपात कूटे । सकेतकोदालकनारिकेले महाद्रिकूटप्रतिमो महात्मा ॥ २०८ ॥
तदनन्तर समुद्रतट से हनुमान जी लम्ब नामक पर्वत के ऊपर गये । उस लम्बपर्वत पर केतकी, उद्दालक, नारियल आदि के अनेक फले फूले वृत्त लगे हुए थे। इस पर्वत के शिखर भी बड़े सुन्दर थे । उन्हीं सुन्दर शिखरों में से एक शिखर पर हनुमान जी जा कर ठहरे ॥ २०८ ॥
ततस्तु सम्प्राप्य समुद्रतीरं समीक्ष्य लङ्कां गिरिराजमूर्ध्नि । कपिस्तु तस्मिन्निपपात पर्वते विधृय रूपं व्यथयन्मृगद्विजान् ॥ २०९ ॥
हनुमान जी, समुद्र तीरवर्ती त्रिकूटपर्वत के शिखर पर बसी हुई लङ्का को देख और अपने पूर्वरूप को त्याग तथा वहां के पशुपक्षियों को डराते हुए, लम्ब गिरि नामक पर्वत पर उतरे ॥२०६॥
स सागरं दानवपन्नगायुतं ददर्श लङ्काममरावतीमिव ।। २१०॥
दानवों और सर्पो से व्याप्त और महातरङ्गों से युक्त महासागर को अपने बल पराक्रम से नांघ कर और उसके तट पर पहुँच कर, अमरावती के समान लङ्कापुरी को हनुमान जो ने देखा ॥ २१०॥ ।
॥ इति प्रथमः सर्गः ॥
सुन्दरकाण्ड का प्रथम सर्ग पूरा हुआ।
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