पूजिते त्वयि धर्मज्ञ पूजां प्रामोति मारुतः । तस्मात्त्वं पूजनीयो मे शृणु चाप्यत्र कारणम् ॥११८॥
हे धर्मज्ञ ! आपकी पूजा मानो पवन देवता का पूजन है, अतः आप मेरे पूज्यनिय हो । एक और विशेषता है जिस के कारण आप मेरे पूजनीय हो। उसको भी सुनिए ॥ ११८ ॥ Valmki Ramayan Sunder kanda Pratham Sarg shlok 139 se 161 in hindi,
पूर्व कृतयुगे तात पर्वताः पक्षिणोऽभवन् । तेऽभिजग्मुर्दिशः सर्वा गरुडानिलवेगिनः ॥ ११९ ॥
हे तात ! आदि काल समय सत्ययुग में पहाड़ों के पंख होते थे। सब पंखधारी पहाड़ बड़े वेग से चारों ओर उड़ा करते थे ॥ ११६॥
Valmiki Ramayana sunderkand सुरसा ने अपना मुख चालीस योजन चौड़ा कर लिया- इस पर हनुमान जी ने अपना शरीर पचास योजन ऊँचा कर लिया - sursa ka vadh kisne kiya tha
ततस्तेषु प्रयातेषु देवसङ्घाः सहर्षिभिः । भूतानि च भयं जग्मुस्तेषां पतनशङ्कया ॥ १२० ॥
पर्वतों को उड़ते देख, देवता, ऋषि तथा अन्य समस्त प्राणी उनके अपने ऊपर गिरने की शङ्का से डर गये ॥ १२० ॥ तब इन्द्र ने कुपित होकर व्रज से हजारों पहाड़ों के पंख काट दिए ॥ १२१ ॥
स मामुपगतः क्रुद्धो वज्रमुद्यम्य देवराट् । ततोऽहं सहसाक्षिप्तः श्वसनेन महात्मना ॥ १२२ ॥
जब देवराज इन्द्र बज्र उठा कर मेरी ओर पाये, तब महात्मा पवनदेव ने मुझको सहसा उठा कर फेंक दिया ॥ १२२ ॥
अस्मिँल्लवणतोये च प्रक्षिप्तः प्लवगोत्तम । गुप्तपक्षः समग्रश्च तव पित्राभिरक्षितः ॥ १२३॥
हे वानरोत्तम ! मुझे उन्होंने इस खोरी समुद्र में उठा कर फेंक दिया। इस प्रकार तुम्हारे पिता पवनदेव ने मेरे समस्त पंखों की रक्षा की ॥ १२३ ॥
ततोऽहं मानयामि त्वां मान्यो हि मम मारुतः । त्वया मे ह्येष सम्बन्धः कपिमुख्य महागुणः॥१२४
हे बजरंगी ! आप तो मेरे आराध्य पवनदेवता के पुत्र तथा कपियों में बड़े गुणवान, बलशाली, संकट हरने हारे होने से मेरे माननीय है, अतः मैं आपका नमन करता हूँ॥१२४॥
अस्मिन्नेवंविधे कार्ये सागरस्य ममैव च । प्रीतिं प्रीतमनाः कर्तुं त्वमर्हसि महाकपे ॥ १२५ ॥ ।
हे महाकपे ! तुम्हारे ऐसा करने पर मेरी और सागर की प्रीति और भी बढ़ेगी अथवा तुम्हारे ऐसा करने पर मैं और समुद्र बहुत प्रसन्न होंगे, अतः हे महाकपे! तुम मेरा आतिथ्य ग्रहण कर मुझे प्रसन्न करो ॥ १२५ ॥
श्रमं मोचय पूजां च गृहाण कपिसत्तम । प्रीतिं च बहुमन्यस्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात् ॥ १२६॥
हे कपिसत्तम! तुम अपना श्रम दूर कर, मेरा आतिथ्य ग्रहण कर मुझे प्रसन्न करो। तुम्हें देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है
एवमुक्तः कपिश्रेष्ठस्तं नगोत्तमब्रवीत् । प्रीतोऽस्मि कृतमातिथ्यं मन्युरेषोऽपनीयताम् ॥ १२७ ॥
जब मैनाक ने इस प्रकार कहा तब कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने गिरिश्रेष्ठ मैनाक से कहा-मैं आपके अतिथ्य से प्रसन्न हूँ। श्रापने मेरा सत्कार किया, अब आप अपने मन में किसी प्रकार का खेद न करें ॥ १२७ ॥
त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते । प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरा ।। १२८ ॥
एक तो मुझे कार्य करने की त्वरा है । दूसरे समय भी बहुत हो चुका है। तीसरे मैंने वानरों के सामने यह प्रतिज्ञा भी की है कि, मैं बीच में कहीं न ठहरूँगा ॥ १२८ ॥
इत्युक्त्वा पाणिना शैलमालभ्य हरिपुङ्गवः । जगामाकाशमाविश्य वीर्यवान्प्रहसन्निव ॥ १२९ ।।
यह कह कर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने मैनाक को हाथ से छुपा। तदनन्तर पराक्रमी हनुमान हँसते हुए आकाश में उड़ चले ॥१२६॥
स पर्वतसमुद्राभ्यां बहुमानादवेक्षितः। पूजितश्चोपपन्नाभिराशीर्भिरनिलात्मजः ॥ १३०॥
तब तो समुद्र और मैनाक पर्वत ने हनुमान जी को बड़ो प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा, उनको आशीर्वाद दिया और उनका अभिनन्दन किया ॥ १३०॥
अथोषं दूरमुत्पत्य हित्वा शैलमहार्णवौ । पितुः पन्थानमास्थाय जगाम विमलेऽम्बरे ॥ १३१ ॥
तइनन्तर हनुमान जो, मैनाक तथा समुद्र को छोड़, बहुत ऊँचे विमल श्राकाश में जा, पवन के मार्ग से उड़ कर जाने लगे ॥१३१ ॥
ततश्चोर्ध्वगतिं प्राप्य गिरिं तमवलोकयन् । वायुमूनुनिरालम्बे जगाम विमलेऽम्बरे ॥ १३२ ।।
हनुमान जी ने आकाश में पहुँच मैनाक की ओर देखा और फिर वे पवननन्दन निरालम्ब (विना सहारे ) विमल आकाश में उड़ चले ॥ १३२ ॥
नोट-हनुमान जी का आकाश मार्ग से जाना पूर्व श्लोकों से स्पष्ट है ।
द्वितीयं हनुमत्कर्म दृष्ट्वा तत्र सुदुष्करम् । प्रशशंसुः सुराः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः ॥ १३३ ॥
हनुमान जी का यह दूसरा दुष्कर कार्य देख, सब देवता, सिद्ध और महर्षि गण उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १३३ ॥
देवताश्चाभवन्दृष्टास्तत्रस्थास्तस्य कर्मणा । काश्चनस्य सुनाभस्य सहस्राक्षश्च वासवः ॥ १३४॥
उस समय वहाँ जो देवता उपस्थित थे वे तथा सहस्र नेत्र इन्द्र सुवर्णशृङ्ग वाले मैनाक के इस कार्य से उसके ऊपर बहुत प्रसन्न हुए ॥ १३४॥
उवाच वचनं धीमान्परितोषात्सगद्गदम् । लिम सुना पर्वतश्रेष्ठं स्वयमेव शचीपतिः ॥ १३५ ॥
शचीपति देवराज इन्द्र स्वयं सुवर्ण शृङ्गवाले पर्वतश्रेष्ठ मैनाक से प्रसन्न हो. गद्गद वाणो से बोले ॥ १३५ ॥
हिरण्यनाभ शैलेन्द्र परितुष्टोऽस्मि ते भृशम् । अभयं ते प्रयच्छामि तिष्ठ सौम्य यथासुखम् ॥ १३६॥
हे सुवर्ण शिखरों वाले शैलेन्द्र ! मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हुआ। मैं तुझको अभयवर देता हूँ। तू अब जहाँ चाहे वहाँ सुख पूर्वक रह सकता है ॥ १३६ ॥
साह्यं कृतं त्वया सौम्य विक्रान्तस्य हनूमतः । क्रमतो योजनशतं निर्भयस्य भये सति ॥ १३७ ॥
हे सौम्य ! भय रहते भी पराक्रमी हनुमान जी को निर्भीक हो सौ योजन समुद्र के पार जाते देख, तथा उनको बीच में विश्राम करने का अवसर दे तूने उनकी बड़ी सहायता की है ॥ १३७ ॥
रामस्यैष हि दौत्येन याति दाशरथेहरिः। सत्क्रियां कुर्वता तस्य तोषितोऽस्मि भृशं त्वया ॥१३८॥
ये हनुमान जी, श्रीरामचन्द्र जी के दूत बन कर जा रहे हैं। इनका तूने जो सत्कार किया, इससे मैं तेरे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ ॥ १३८ ॥
Sunder kanda Pratham Sarg shlok 139 se 161 in hindi,
ततः प्रहर्षमगमद्विपुलं पर्वतोत्तमः । देवतानां पतिं दृष्ट्वा परितुष्टं शतक्रतुम् ॥ १३९ ॥
इन्द्र से अभयदान प्राप्त कर, मैनाक सुस्थिर हुआ। उधर हनु मान जी भी मैनाक अधिकृत समुद्र के भाग को मुहुर्त मात्र में पार कर गये ॥ १४०॥
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः । अब्रुवन्सूर्यसङ्काशां सुरसां नागमातरम् ॥ १४१ ॥
तब तो देवताओं, गन्धर्वो, सिद्धों और महषियों ने सूर्य के समान प्रकाश वाली नागों की माता सुरसा से कहा ॥ १४१॥ पवननन्दन हनुमान जी समुद्र के पार जाने के लिये श्राकाश मार्ग से चले जा रहे हैं । अतः तुम उनके गमन में एक मुहूर्त्त के लिये विघ्न डालो ॥ १४२॥
राक्षसं रूपमास्थाय सुघोरं पर्वतोपमम् । दंष्ट्राकरालं पिङ्गाक्षं वक्त्रं कृत्वा नभःसमम् ॥ १४३ ॥
अतः तुम अति भयङ्कर पर्वत के समान बड़ा राक्षस का रूप धर कर पोले नेत्रों सहित भयङ्कर दांतों से युक्त अपना मुख बना कर इतनी बढ़ेा कि आकाश छू लो ॥ १४३ ॥
बलमिच्छामहे ज्ञातुं भूयश्चास्य पराक्रमम् । त्वां विजेष्यत्युपायेन विषादं वा गमिष्यति ॥ १४४ ॥
क्योंकि हम सब हनुमान जी के बल और पराक्रम को परीक्षा लेना चाहते हैं। बा तो हनुमान तुमको किसी उपाय से जीत लेंगे अथवा दुःखी हो कर चले जायगे ॥ १४४॥
एवमुक्ता तु सा देवी देवतैरभिसत्कृता । समुद्रमध्ये सुरसा बिभ्रती राक्षसं वपुः ॥ १४५ ॥
उस समय का सुरसा का रूप ऐसा विकट और भयङ्कर था कि, जिसे देख सब को डर लगता था। सुरसा, समुद्र के पार जाते . हुए हनुमान जी का रास्ता छेक कर उनसे कहने लगी ॥ १४६ ॥
मम भक्ष्यः प्रदिष्टस्त्वमीश्वरैर्वानरर्षभ । अहं त्वां भक्षयिष्यामि प्रविशेदं ममाननम् ॥ १४७ ॥
हे वानरश्रेष्ठ ! देवताओं ने तुझको मेरा भक्ष्य बनाया है । इस लिये मैं तुझको खा जाऊँगी । श्रा तू अब मेरे मुख में घुस ॥ १४७ ॥
एवमुक्तः सुरसया प्राञ्जलिर्वानरर्षभः । प्रहृष्टवदनः श्रीमान्सुरसां वाक्यमब्रवीत् ॥ १४८ ॥
सुरसा के इस प्रकार कहने पर हनुमान जी ने प्रसन्न हो कर सुरसा से कहा ॥ १४८ ॥
रामो दाशरथिः श्रीमान्प्रविष्टो दण्डकावनम् । लक्ष्मणेन सह भ्राता वैदेह्या चापि भार्यया ॥ १४९ ॥
दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्र जी अपने भाई लक्ष्मण और भार्या सीता के साथ दण्डकारण्य में आये ॥ १४६ ॥
अन्यकार्यविषक्तस्य बद्धवरस्य राक्षसैः।। तस्य सीता हृता भार्या रावणेन तपस्विनी ॥ १५०
और कारणान्तर से उनसे और राक्षसों से परस्पर शत्रुता हो गयी । इससे रावण उनकी तपस्विनी भार्या सीता को हर कर ले गया ॥ १५०॥
तस्याः सकाशं दूतोऽहं गमिष्ये रामशासनात् । कतमहसि रामस्य साह्यं विषयवासिनी ॥ १५१ ॥
श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से मैं सीता जी के पास दूत वन कर जा रहा हूँ। तुम श्रीरामचन्द्र जी के राज्य में बसने वाली हो, अतः तुम्हें तो मेरी सहायता करनी चाहिये ।। १५१ ॥
अथवा मैथिली दृष्ट्वा रामं चाक्लिष्टकारिणम् । आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोमि ते ॥ १५२ ॥
अथवा जब मैं सीता को देख, अक्लिष्टकर्मा श्रीरामचन्द्र जी को उनका समाचार दे आऊँ तब मैं तुम्हारे मुख में आकर प्रवेश करूँगा। मैं यह तुमसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ ॥ १५२ ॥
एवमुक्ता हनुमता सुरसा कामरूपिणी । तं प्रयान्तं समुद्वीक्ष्य सुरसा वाक्यमब्रवीत् ॥ १५३ ॥
जब हनुमान जी ने इस प्रकार उससे कहा, तब वह कामरूपिणी सुरसा हनुमान जी को जाते देख, उनसे बोली ।। १५३॥
बलं जिज्ञासमाना वै नागमाता हनूमतः । हनूमानातिवर्तेन्मां कश्चिदेष वरो मम ।। १५४ ॥
हे वानरोत्तम ! पहिले तुम मेरे मुख में प्रवेश करो, फिर तुरन्त चले जाना । विधाता ने मुझे पूर्वकाल में यही वरदान दिया
व्यादाय वक्त्रं विपुलं स्थिता सा मारुतेः पुरः। एवमुक्तः सुरसया क्रुद्धो वानरपुङ्गवः ॥ १५६ ॥
यह कह कर नागमाता सुरसा, अपना बड़ा भारी मुख फैला, हनुमान जी के सामने खड़ी हो गयी । सुरसा के ऐसे वचन सुन कपिश्रेष्ठ हनुमान जी क्रुद्ध हुए ॥ १५६ ॥
इत्युक्ता सुरसां क्रुद्धा दशयोजनमायता ॥ १५७ ॥
हनुमान जी ने उससे कहा कि, तू अपना मुख उतना बड़ा फैला जिसमें कि मैं समा सकूँ। यह सुन सुरसा ने क्रुद्ध हो अपना मुख दस योजन फैलाया ॥ १५७॥
दशयोजनविस्तारो बभूव हनुमांस्तदा । तं दृष्ट्वा मेघसङ्काशं दशयोजनमायतम् ॥ १५८ ।।
तब हनुमान जी ने भी अपना शरीर दस योजन का कर लिया। तब हनुमान जी के शरीर को मेघ के समान दस योजन लंबा देख ॥१५८॥
चकारसुरसाप्यास्यं विंशयोजनमायतम् ।। ततः परं हनूमांस्तु त्रिंशद्योजनमायतः ॥ १५९ ॥
सुरसा ने अपना मुख बीस योजन का कर लिया। तब हनुमान जी ने अपना शरीर तीस योजन लंबा कर लिया ॥ १५६ ॥
चकार सुरसा वक्त्रं चत्वारिंशत्तथायतम् । बभूव हनूमान्वीरः पञ्चाशद्योजनोच्छ्रितः ॥ १६०॥
तब सुरसा ने अपना मुख चालीस योजन चौड़ा कर लिया। इस पर हनुमान जी ने अपना शरीर पचास योजन ऊँचा कर लिया ॥१६०॥
सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 1-40,
सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 44-77,प्रथम सर्ग 78 से 117,
चकार सुरसा वक्त्रं षष्टियोजनमायतम् । तथैव हनुमान्वीरः सप्ततीयोजनोच्छ्रितः ॥ १६१ ॥
इस पर जव सुरसा ने अपना मुख साठ योजन चौड़ा किया, तब हनुमान जी सत्तर योजन के हो गये ॥ १६१॥
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