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Valmiki Ramayana shlok सुंदरकाण्ड प्रथम सर्ग 78 से 117 - हनुमान जी को समुद्र पार करना लंका कैसे पहुंचे लंका में प्रवेश - मैनाक पर्वत हनुमान जी के वेग

सुंदरकाण्ड प्रथम सर्ग 78 से 117, हनुमान जी को समुद्र पार करना, लंका कैसे पहुंचे,लंका में प्रवेश, Sunderkanda Pratham Sarg shlok In Hindi 78 se 117, 



वायुमार्गे निरालम्बे पक्षवानिव पर्वतः । येनासौ याति बलवान्वेगेन कपिकुञ्जरः॥ ७९ ॥ 

आकाश में अवलंब रहित हो पंख वाले पर्वत की तरह सुशो भित हुए। वानरोत्तम बलवान हनुमान जी जिस मार्ग से बड़े वेग से गमन कर रहे थे, ॥ ७ ॥ 


तेन मार्गेण सहसा द्रोणीकृत इवार्णवः । आपाते पक्षिसङ्घानां पक्षिराज इवाबभौ ॥ ८० 


वह समुद्र का मार्ग मानों दोना ऐसा मालूम पड़ता था । आकाश में गमन करते हुए हनुमान जी गरुड़ की तरह जान पड़ते थे॥५०॥ 

hanumaan-ji-ka-samunder-paar-karna-in-hindi


हनूमान्मेघजालानि प्रकर्षन्मारुतो यथा । प्रविशन्नभ्रजालानि निष्पतंश्च पुनः पुनः ॥ ८१ ॥ 


हनुमान जी वायु की तरह मेघ समूह को चोरते फाड़ते चले जाते थे। कभी तो वे बादल के भीतर छिप जाते थे और कभी वे बादल के बाहिर प्रकट हो जाते थे ॥ ८१॥ 


प्रच्छन्नश्च प्रकाशश्च चन्द्रमा इव लक्ष्यते । पाण्डुरारुणवर्णानि नीलमाञ्जिष्ठकानि च ॥ ८२ ॥ 

जब वे बादल के बाहिर आते तब वे घटा से निकले हुए चन्द्रमा की तरह जान पड़ते थे। सफेद, नीले, लाल और मंजीठ रंग के ॥२॥ 


कपिनाकृष्यमाणानि महाम्राणि चकाशिरे । प्लवमानं तु तं दृष्ट्वा प्लवगं त्वरितं तदा ॥ ८३॥ 

बड़े बड़े बादल, कपिप्रवर हनुमान जी से खोंचे जाकर, ऐसे जान पड़ते थे, मानों वे पवन के द्वारा चालित हो रहे हों। हनुमान जी को बड़ी तेज़ी से समुद्र लाँघते देख ॥८३ ॥ 


ववृषुः पुष्पवर्षाणि देवगन्धर्वचारणा: । तताप न हि तं सूर्यः प्लवन्तं वानरेश्वरम् ॥ ८४ ॥ 


देवताओं, गन्धर्वो, और चारणों ने उन पर फूलों की वर्षा की सूर्यनारायण ने भी समुद्र लांघते समय हनुमान जी को अपनी किरणों से सन्तप्त नहीं किया ॥४॥


सिषेवे च तदा वायू रामकार्यार्थसिद्धये। ऋषयस्तुष्टुबुश्चैनं प्लवमानं विहायसा ॥ ८५॥ 

और पवनदेव ने भी, श्रीरामचन्द्र जी के कार्य की सिद्धि के लिये, जाते हुए  हनुमान जी का श्रम हरने के लिये, शीतल हो, मन्द गति से सञ्चार किया । आकाश मार्ग से जाते हुए हनुमान जी की ऋषियों ने स्तुति की ॥५॥ 


नोट-जो लोग लठ्ठा में हनुमान जी का जाना समुद्र तैर कर बतलाते हैं : उनको इस श्लोक में प्रयुक्त विहायसा (आकाशमार्ग से ) शब्द पर ध्यान देना चाहिये ।


जगुश्च देवगन्धर्वाः प्रशंसन्तो महौजसम् । नागाश्च तुष्टुवुर्यक्षा रक्षांसि विविधानि च ॥ ८६ ॥ 

महाबली हनुमान जी की देवता और गन्धर्व भी प्रशंसा कर रहे थे। विविध यक्ष, राक्षस और नाग सन्तुष्ट हो ॥ ६॥ 


प्रेिक्ष्याकाशे कपिवरं सहसा विगतक्लमम् । तस्मिन्प्लवगशार्दूले प्लवमाने हनूमति ॥ ८७॥ 

आकाश में कपिश्रेष्ठ हनुमान को सहसा श्रमरहित जाते देख, प्रशंसा कर रहे थे । जिस समय हनुमान जी समुद्र के पार जाने लगे ॥ ८७ ॥ 

तब समुद्र ईश्वाकुकुलोद्भव श्रीरघुनाथ जी का सन्मान करने की कामना से सोचने लगा कि, यदि इस समय मैं वानरश्रेष्ठ हनुमान जी की सहायता न ॥ ८८ ॥ 


करिष्यामि भविष्यामि २ सर्ववाच्यो विवक्षताम् । अहमिक्ष्वाकुनाथेन सगरेण विवर्धितः ॥ ८९ ॥ 

करूँगा तो मैं सब प्रकार से निन्द्य समझा जाऊँगा। क्योंकि मेरी उन्नति के करने वाले तो इक्ष्वाकुकुल के नाथ महाराज सगर ही थे॥८९॥ 


इक्ष्वाकुसचिवश्वायं नावसीदितुमर्हति । तथा मया विधातव्यं विश्रमेत यथा कपिः ॥ ९०॥

यह हनुमान जी इक्ष्वाकुकुलोद्भव श्रीरामचन्द्र जी के मंत्री हैं। इनको किसी प्रकार का कष्ट न होना चाहिये । अतः मुझे ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिससे हनुमान जी को विश्राम मिले ॥१०॥ 


शेषं च मयि विश्रान्तः सुखेनातिपतिष्यति । इति कृत्वा मतिं साध्वी समुद्रश्छन्नमम्भसि ॥ ९१ ॥ 

मेरे द्वारा यह विश्राम कर समुद्र का शेष भाग सुखपूर्वक कूद जाय । इस प्रकार अपने मन में साधु सङ्कल्प निश्चय कर समुद्र जल से ढके हुए ॥  ९१॥ और सुवर्ण की चोटी वाले गिरवर मैनाक पर्वत से बोले-हे मैनाक ! पातालवासी असुरों को ॥ १२॥ 


देवराज्ञा गिरिश्रेष्ठ परिघः सनिवेशितः । त्वमेषां ज्ञातवीर्याणां पुनरेवोत्पतिष्यताम् ॥ ९३ ॥ 


रोकने के लिये, इन्द्र ने तुमको यहां एक परिघ अर्गल बेड़ा की तरह स्थापित कर रक्खा है । इन्द्र को इन दैत्यों का पराक्रम मालूम है । जिससे वे पुनः ऊपर न निकल पावें ॥ ९३ ॥ 


पातालस्याप्रमेयस्य द्वारमात्त्य तिष्ठसि । तिर्यगूलमधश्चैव शक्तिस्ते शैल वर्धितुम् ॥ ९४ ॥ 

इसीसे तुम असीम पाताल का द्वार रोके रहते हो । हे मैनाक ! तुम सीधे तिरछे, ऊपर नीचे जैसे चाहो वैसे घट बढ़ सकते हो ॥१४॥ 


तस्मात्सञ्चोदयामि त्वामुत्तिष्ठ नगसत्तम । स एव कपिशार्दूलस्त्वामुपैष्यति वीर्यवान् ॥ ९५॥ 

अतएव हे पर्वतोत्तम ! मैं तुमसे कहता हूँ कि, तुम उठो । देखो ये बलवान हनुमान तुम्हारे ऊपर पहुँचना ही चाहते हैं ॥९५॥ 


हनूमारामकार्यार्थ भीमकर्मा खमाप्लुतः। अस्य साह्यं मया कार्यमिक्ष्वाकुहितवर्तिनः ॥९६ ॥ 

श्रीरामचन्द्र जी का काम करने के लिये, भयङ्कर कर्म करने वाले, हनुमान जी प्राकाशमार्ग से जा रहे हैं। मैं इक्ष्वाकुवंशियों का हितैषी हूँ। अतएव मेरा यह कर्तव्य है कि, मैं इनकी हनुमान जी की कुछ सहायता करूँ ॥
तुम हनुमान जी के श्रम की ओर देख कर जल के ऊपर उठो । क्षारसमुद्र के ये वचन सुन हिरण्यगृङ्ग मैनाक ॥ ९८ ।। 


 प्रथम सर्ग 97 से 117



उत्पपात जलात्तूर्णं महाद्रुमलतायुतः । स सागरजलं भित्त्वा बभूवात्युत्थितस्तदा ॥ ९८॥ 

बड़े बड़े वृक्षों और लताओं से युक्त, जल के ऊपर तुरन्त निकल पाया। उस समय वह सागर के जल को चीर कर वैसे ही ऊपर को उठा ॥१८॥ 


यथा जलधर मित्त्वा दीप्तरश्मिर्दिवाकरः। स महात्मा मुहूर्तेन पर्वतः सलिलावृतः ॥ ९९ ॥ दर्शयामास शृङ्गाणि सागरेण नियोजितः । शातकुम्भमयैः शृङ्गैः सकिन्नरमहोरगैः ॥१००॥ 


जैसे मेघों को चीर कर चमकते हुए सूर्यदेव उदय होते हैं। इस प्रकार समुद्र जल से ढके हुए उन महात्मा मैनाक पर्वत ने, समुद्र का कहना मान, एक मुहूर्त में, अपने वे शिखर पानी के ऊपर निकाल दिये जो सुवर्णमय और किन्नरों तथा बड़े बड़े उरगों द्वारा सेवित थे ॥ ९९ ॥ १०० ॥ 


आदित्योदयसङ्काशैरालिखद्भिरिवाम्बरम् । तप्त जाम्बूनदैः शृङ्गः पर्वतस्य समुत्थितैः ॥ १०१॥ 

वे शिखर उदयकालीन प्रकाशमान सूर्य की तरह थे और अाकाश को स्पर्श करते थे। उस पर्वत के तप्तसुवर्ण जैसी भाभा वाले शिखरों के जल के ऊपर निकलने से ॥ १०१ ॥ 


आकाशंशस्त्रसङ्काशमभवत्काञ्चनप्रभम् । जातरूपमयैः शृङ्गाजमानैः स्वयम्भैः ॥ १०२ ॥ 
आदित्यशतसङ्काशः सोऽभवगिरिसत्तमः । तमुत्थितमसङ्गेनर हनुमानग्रतः स्थितम् ॥ १०३॥ 
मध्ये लवणतोयस्य विघ्नोऽयमिति निश्चितः ।। स तमुच्छ्रितमत्यर्थं महावेगो महाकपिः ॥ १०४ ॥ 

नीला आकाश सुवर्णमय देख पड़ने लगा। उस समय वह अपनी अत्यन्त प्रकाश युक्त सुनहले शिखरों की प्रभा से शोभायमान हुआ । उस समय सौ सूर्य की तरह उस पर्वतश्रेष्ठ मैनाक की शोभा हुई । विना विलंब किये समुद्र से निकल, आगे खड़े हुए तथा खारी समुद्र के बीच स्थित मैनाक पर्वत को देख, हनुमान जी ने अपने मन में यह निश्चित किया कि, यह एक विघ्न या उपस्थित हुप्रा है । तब उस अत्यन्त ऊँचे उठे हुए मैनाक को हनुमान जी ने बड़े ज़ोर से ॥ १०२ ॥ १०३ ॥ १०४॥ 


उरसा पातयामास जीमूतमिव मारुतः । . सतथा पातितस्तेन कपिना पर्वतोत्तमः ॥ १०५॥ 

अपनी छाती की ठोकर से वैसे ही हटा दिया जैसे पवनदेव, बादलों को हटा देते हैं । जब हनुमान जी ने उस गिरिश्रेष्ठ को हटा दिया या नीचे बैठा दिया ॥ १०५॥ 


बुद्धा तस्य कर्वेगं जहर्ष च ननाद च । तमाकाशगतं वीरमाकाशे समवस्थितः ॥१०६॥
प्रीतो हृष्टमना वाक्यमब्रवीत्पर्वतः कपिम् । मानुषं धारयन्रूपमात्मनः शिखरे स्थितः ॥१०७॥ 


तब मैनाक, हनुमान जी के वेग का अनुभव कर, प्रसन्न हुश्रा और गर्जा । मैनाक पर्वत फिर श्राकाश की ओर उठा और आकाश स्थित वीर हनुमान जी से, प्रसन्न हो बड़ी प्रीति के साथ मनुष्य का रूप धारण कर तथा अपने शिखर पर खड़े हो कर बोला ॥ १०६ ॥ ॥ १०७ ॥ 

हे वानरोत्तम ! यह तुम बड़ा ही कठिन काम करने को उद्यत हुए हो । अतः तुम मेरे शृङ्ग पर कुछ देर ठहर कर विश्राम कर लो। तदनन्तर तुम सुख पूर्वक आगे चले जाना ॥ १०८ ॥ 


राघवस्य कुले जातैरुदधिः परिवर्धितः । स त्वां रामहिते युक्तं प्रत्यर्चयति सागरः ॥ १०९॥ 

इस समुद्र की वृद्धि श्रीरामचन्द्र जी के पूर्वपुरुषों द्वारा हुई है और तुम श्रीरामचन्द्र जी के हितसाधन में तत्पर हो, अतएव यह समुद्र आपका आतिथ्य सत्कार करना चाहता है १०६ ॥ 


कृते च प्रतिकर्तव्यमेष धर्मः सनातनः।। सोऽयं तत्प्रतिकारार्थी त्वत्तः सम्मानमर्हति ॥ ११० ॥ 


क्योंकि उपकार करने वाले का उपकार करना यह सनातन धर्म है । सेो यह श्रीरामचन्द्र जी का प्रत्युपकार करना चाहता है । अत: तुमको समुद्र के सम्मान की रक्षा करनी चाहिये ॥ ११० ॥ 


सुन्दरकाण्डे त्वन्निमित्तमनेनाहं बहुमानात्प्रचोदितः। योजनानां शतं चापि कपिरेष खमाप्लुतः ॥ १११ ॥ 

तुम्हारा सत्कार करने के लिये समुद्र ने मेरा बहुत सा सम्मान कर मुझे यहाँ भेजा है । उन्होंने मुझसे कहा है कि, देखो यह कपि सौ योजन जाने के लिये प्राकाश में उड़े हैं ॥ १११ ॥ 


तब सानुषु विश्रान्तः शेष प्रक्रमतामिति । तिष्ठ त्वं हरिशार्दूल मयि विश्रम्य गम्यताम् ॥ ११२ ॥ 

अतः हनुमान जी तुम्हारे शिखर पर विश्राम कर शेष मार्ग को पूरा करें। सो हे कपिशार्दूल ! तुम यहाँ ठहर कर विश्राम करो। तदनन्तर प्रागे चले जाना ॥ ११२ ॥ 


तदिदं गन्धवत्स्वादु कन्दमूलफलं बहु । तदास्वाद्य हरिश्रेष्ठ विश्रम्य श्वो गमिष्यसि ॥ ११३ ॥ 

हे कपिश्रेष्ठ ! मेरे वृत्तों से स्वादिष्ट और सुगन्ध युक्त बहुत से कन्दमूल फलों को खा कर विश्राम करो । कल सबेरे तुम चले जाना ॥ ११३ ॥ 


अस्माकमपि सम्बन्धः कपिमुख्य त्वयास्ति वै । प्रख्यातत्रिषु लोकेषु महागुणपरिग्रहः ॥११४ ॥ 


हे कपियों में प्रधान ! मेरा भी तुम्हारे साथ कुछ सम्बन्ध है, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। तुम महागुण के ग्रहण करने वाले हो अर्थात् बड़े गुणी हो ॥ ११४॥ 
हे पवननन्दन ! इस लोक में जितने कूदने वाले वेगवान् वानर हैं, हे कपीश्वर ! उन सब में, में तुमको मुख्य समझता हूँ ॥ ११५ ॥ 


अतिथिः किल पूजाहः प्राकृतोऽपि विजानता । धर्म जिज्ञासमानेन किं पुनर्यादृशो भवान् ॥ ११६॥ 

धर्म जिज्ञासुत्रों के लिये तो एक साधारण अतिथि भी पूज्य है, फिर श्रापके समान गुणी अतिथि का सत्कार करना तो मेरे लिये सर्वथा उचित ही है ॥ ११६ ॥ 



त्वं हि देववरिष्ठस्य मारुतस्य महात्मनः । पुत्रस्तस्यैव वेगेन सदृशः कपिकुञ्जर ॥ ११७ ॥ 

फिर तुम देवताओं में श्रेष्ठ महात्मा पवनदेव के पुत्र हो । हे कपिकुञ्जर ! वेग में भी तुम अपने पिता के समान ही हो ॥ ११७ ॥ 

सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 1-40,
सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 44-77,

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