इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
ध्यानम्
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां शङ्ख चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्। सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्ती ध्यायेद् दुर्गा जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥
ॐ ऋषिरुवाच ॥१॥
किसीकिसी प्रति में ऋषिरुवाच के बाद ततः सुरगणाः सर्वे देव्या इन्द्रपुरोगमाः। स्तुतिमारेभिरे कर्तुं निहते महिषासुरे॥ इतना पाठ अधिक है । शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या।
सिद्धि की इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते हैं तथा देवता जिन्हें सब ओर से घेरे रहते हैं उन जया नामवाली दुर्गादेवी का ध्यान करे।
उनके श्रीअंगों की आभा काले मेघ के समान श्याम है। वे अपने कटाक्षों से शत्रु समूह को भय प्रदान करती हैं।
उनके मस्तक पर आबद्ध चन्द्रमा की रेखा शोभा पाती है। वे अपने हाथों में शंख चक्र कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे सिंह के कंधे पर चढ़ी हुई हैं और अपने तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण कर रही हैं।
ऋषि कहते हैं ॥१॥ अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्यसेना के देवी के हाथ से मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता प्रणाम के लिये गर्दन तथा कंधे झुकाकर उन भगवती दुर्गा का उत्तम वचनों द्वारा स्तवन करने लगे।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः ॥२॥ देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥३॥ यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च। सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥४॥ या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः।
उस समय उनके सुन्दर अंगों में अत्यन्त हर्ष के कारण रोमांच हो आया था ॥२॥
देवता बोले सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है।
समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगों का कल्याण करें ॥३॥
जिन के अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें ॥४॥
जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से पापियों के यहाँ दरिद्रता रूप से शुद्ध अन्तः करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ॥५॥ किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत् किं चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि। किं चाहवेषु चरितानि तवाद्धृतानि सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु ॥६॥ हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषै न ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा। सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ॥७॥ यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि।
उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये ।।५॥ देवि आपके इस अचिन्त्य रूप का असुरों का नाश करनेवाले भारी पराक्रम का तथा समस्त देवताओं और दैत्यों के समक्ष युद्ध में प्रकट किये हुए आपके अद्भुत चरित्रों का हम किस प्रकार वर्णन करें ॥६॥
आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति में कारण हैं। आप में सत्त्वगुण रजोगुण और तमोगुण ये तीनों गुण मौजूद हैं।
तो भी दोषों के साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता। भगवान् विष्णु और महादेव जी आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है।
क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं ॥७॥ देवि सम्पूर्ण यज्ञों में जिसके उच्चारण से सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं वह स्वाहा आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आप पितरों की भी तृप्ति का कारण हैं।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च ॥८॥ या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्व मभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः। मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ॥९॥ शब्दात्मिका सुविमलय॑जुषां निधान मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्। देवी त्रयी भगवती भवभावनाय वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ॥१०॥ मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा। अतएव सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं ॥८॥
पा०च अभ्यः ।
देवि जो मोक्ष की प्राप्ति का साधन है अचिन्त्य महाव्रतस्वरूपा है समस्त दोषों से रहित जितेन्द्रिय तत्त्व को ही सार वस्तु मानने वाले तथा मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं वह भगवती परा विद्या आप ही हैं ॥९॥
आप शब्दस्वरूपा हैं अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद यजुर्वेद तथा उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठ से युक्त सामवेद का भी आधार आप ही हैं। आप देवी त्रयी तीनों वेद और भगवती छहों ऐश्वर्यों से युक्त हैं। इस विश्व की उत्पत्ति एवं पालन के लिये आप ही वार्ता खेती एवं आजीविका के रूप में प्रकट हुई हैं। आप सम्पूर्ण जगत् की घोर पीड़ा का नाश करनेवाली हैं ॥१०॥
देवि जिससे समस्त शास्त्रों के सार का ज्ञान होता है वह मेधाशक्ति आप ही हैं। दुर्गम भवसागर से पार उतारने वाली नौकारूप दुर्गा देवी भी आप ही हैं।
श्री कैटभारिहृदयैककृताधिवासा गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ॥११॥ ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम्। अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण ॥१२॥ दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः। प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं कै व्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन ॥१३॥ देवि प्रसीद परमा भवती भवाय सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि। विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य ॥१४॥
आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है। कैटभ के शत्रु भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में एकमात्र निवास करनेवाली भगवती लक्ष्मी तथा भगवान् चन्द्रशेखर द्वारा सम्मानित गौरीदेवी भी आप ही हैं ।।११॥
आपका मुख मन्द मुसकान से सुशोभित निर्मल पूर्ण चन्द्रमा के बिम्ब का अनुकरण करनेवाला और उत्तम सुवर्ण की मनोहर कान्ति से कमनीय है। तो भी उसे देखकर महिषासुर को क्रोध हुआ और सहसा उसने उस पर प्रहार कर दिया यह बड़े आश्चर्य की बात है ।।१२॥
देवि वही मुख जब क्रोध से युक्त होने पर उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति लाल और तनी हुई भौंहों के कारण विकराल हो उठा तब उसे देखकर जो महिषासुर के प्राण तुरंत नहीं निकल गये यह उससे भी बढ़कर आश्चर्य की बात है। क्योंकि क्रोध में भरे हुए यमराज को देखकर भला कौन जीवित रह सकता है ॥१३॥
देवि आप प्रसन्न हों। परमात्मस्वरूपा आपके प्रसन्न होने पर जगत् का अभ्युदय होता है और क्रोध में भर जाने पर आप तत्काल ही कितने कुलों का सर्वनाश कर डालती हैं यह बात अभी अनुभव में आयी है। क्योंकि महिषासुर की यह विशाल सेना क्षणभर में आपके कोप से नष्ट हो गयी है ॥१४॥
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः। धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना ॥१५॥ ध्म्रयाणि देवि सकलानि सदैव कर्मा ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति। स्वर्ग प्रयाति च ततो भवतीप्रसादा ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन ॥१६॥ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि। दारिद्रयदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥१७॥
सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं वे ही देश में सम्मानित हैं उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्टपुष्ट स्त्री पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं ॥१५॥
देवि आपकी ही कृपा से पुण्यात्मा पुरुष प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सदा सब प्रकार के धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभाव से स्वर्गलोक में जाता है। इसलिये आप तीनों लोकों में निश्चय ही मनोवांछित फल देनेवाली हैं ॥१६॥
माँ दुर्गे आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि आपके सिवा दूसरी कौन है जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दयाआरद्र रहता हो। ॥१७।।
एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्। संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि ॥१८॥ दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्। लोकान् प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी ॥१९॥ खङ्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम्। यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत् ॥२०॥ दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः। वीर्यं च हन्तु हृतदेवपराक्रमाणां वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम्॥२१॥
देवि इन राक्षसों के मारने से संसार को सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकाल तक नरक में रहने के लिये भले ही पाप करते रहे हों इस समय संग्राम में मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्गलोक में जायँ निश्चय ही यही सोचकर आप शत्रुओं का वध करती हैं ॥१८॥
आप शत्रुओं पर शस्त्रों का प्रहार क्यों करती हैं समस्त असुरों को दृष्टिपात मात्र से ही भस्म क्यों नहीं कर देती इसमें एक रहस्य है। ये शत्रु भी हमारे शस्त्रों से पवित्र होकर उत्तम लोकों में जायँ इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उत्तम रहता है ॥१९॥
खग के तेजपुंज की भयंकर दीप्ति से तथा आपके त्रिशूल के अग्रभाग की घनीभूत प्रभा से चौंधिया कर जो असुरों की आँखें फूट नहीं गयीं उसमें कारण यही था कि वे मनोहर रश्मियों से युक्त चन्द्रमा के समान आनन्द प्रदान करनेवाले आपके इस सुन्दर मुख का दर्शन करते थे ॥२०॥
केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र। चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि ॥२२॥ त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा। नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्त मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ॥२३॥ शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिस्वनेन च ॥२४॥
देवि आपका शील दुराचारियों के बुरे बर्ताव को दूर करनेवाला है। साथ ही यह रूप ऐसा है जो कभी चिन्तन में भी नहीं आ सकता और जिसकी कभी दूसरों से तुलना भी नहीं हो सकती। तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्यों का भी नाश करनेवाला है जो कभी देवताओं के पराक्रम को भी नष्ट कर चुके थे। इस प्रकार आपने शत्रुओं पर भी अपनी दया ही प्रकट की है ॥२१॥
वरदायिनी देवि आपके इस पराक्रम की किस के साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओं को भय देनेवाला एवं अत्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ है हृदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता ये दोनों बातें तीनों लोकों के भीतर केवल आप में ही देखी गयी हैं ।।२२।।
मातः आपने शत्रुओं का नाश करके इस समस्त त्रिलोकी की रक्षा की है। उन शत्रुओं को भी युद्धभूमि में मारकर स्वर्गलोक में पहुँचाया है तथा उन्मत्त दैत्यों से प्राप्त होनेवाले हमलोगों के भय को भी दूर कर दिया है आपको हमारा नमस्कार है ।।२३।।
देवि आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें। तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें ॥२४॥
प्राच्या रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे। भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ॥२५॥ सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते। यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ॥२६॥ खगशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके।। करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः ॥२७॥ ऋषिरुवाच ॥ २८॥ एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः। अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः ॥२९॥ भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैधूंपैस्तु धूपिता। प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान्॥३०॥
पा०पैः सुधूपिता।
चण्डिके पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशा में आप हमारी रक्षा करें। तथा ईश्वरि अपने त्रिशूल को घुमाकर आप उत्तर दिशा में भी हमारी रक्षा करें ।।२५।।
तीनों लोकों में आपके जो परम सुन्दर एवं अत्यन्त भयंकर रूप विचरते रहते द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोक की रक्षा करें ॥२६॥
अम्बिके आपके करपल्लवों में शोभा पानेवाले खड्ग शूल और गदा आदि जोजो अस्त्र हों उन सबके द्वारा आप सब ओर से हमलोगों की रक्षा करें ॥२७॥
ऋषि कहते हैं ॥२८॥ इस प्रकार जब देवताओं ने जगन्माता दुर्गा की स्तुति की और नन्दनवन के दिव्य पुष्पों एवं गन्धचन्दन आदि के द्वारा उनका पूजन किया फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपों की सुगन्ध निवेदन की तब देवी ने प्रसन्नवदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओं से कहा ॥२९३०॥
देव्युवाच ॥३१॥ व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम् ॥३२॥ देवा ऊचुः ॥३३॥ भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते ॥३४॥ यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः। यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि ॥३५॥ संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः। यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने ॥३६॥ तस्य वित्तद्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्। वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके ॥३७॥
मार्कण्डेयपुराण को आधुनिक प्रतियों मेंददाम्यहमतिप्रीत्या स्तवैरेभिः सुपूजिता। इतना पाठ अधिक है । किसीकिसी प्रति में कर्तव्यमपरं यच्च दुष्करं तन्न विद्महे। इत्याकर्ण्य वचो देव्याः प्रत्यूचुस्ते दिवौकसः॥ इतना और अधिक पाठ है।
देवी बोलीं ॥३१॥ देवताओ तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो उसे माँगो ॥३२॥
देवता बोले ॥३३॥ भगवती ने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी अब कुछ भी बाकी नहीं है ॥३४॥ क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया। महेश्वरि इतने पर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं ॥३५॥
तो हम जबजब आपका स्मरण करें तबतब आप दर्शन देकर हमलोगों के महान् संकट दूर कर दिया करें तथा प्रसन्नमुखी अम्बिके जो मनुष्य इन स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करे उसे वित्त समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पत्ति को भी बढ़ाने के लिये आप सदा हम पर प्रसन्न रहें ।।३६३७॥
ऋषिरुवाच ॥३८॥ इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः। तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप ॥३९॥ इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा। देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी ॥४०॥ पुनश्च गौरीदेहात्सा समुद्भूता यथाभवत्। वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ॥४१॥ रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी। तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते॥ ह्रीं ॐ ॥४२॥
किसीकिसी प्रति में गौरीदेहा सा गौरी देहा सा इत्यादि पाठ भी उपलब्ध होते हैं।
ऋषि कहते हैं ॥३८॥ राजन् देवताओं ने जब अपने तथा जगत् के कल्याण के लिये भद्रकाली देवी को इस प्रकार प्रसन्न किया तब वे तथास्तु कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥३९॥
भूपाल इस प्रकार पूर्वकाल में तीनों लोकों का हित चाहने वाली देवी जिस प्रकार देवताओं के शरीरों से प्रकट हुई थीं। वह सब कथा मैंने कह सुनायी ॥४०॥
अब पुनः देवताओं का उपकार करनेवाली वे देवी दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भनिशुम्भ का वध करने एवं सब लोकों की रक्षा करने के लिये गौरी देवी के शरीर से जिस प्रकार प्रकट हुई थीं वह सब प्रसंग मेरे मुँह से सुनो।
मैं उसका तुम से यथावत् वर्णन करता हूँ ॥४१४२॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शक्रादिस्तुति म चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥ उवाच ५ अर्धश्लोकौ २ श्लोकाः ३५ एवम् ४२ एवमादितः २५९॥
इस प्रकार श्री मार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में शक्रादिस्तुति नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥४॥
जय श्री कृष्णा
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