श्री दुर्गा सप्तशती सर्वस्वम् अध्याय 02 और 03 संपूर्ण पाठ संस्कृत हिन्दी। देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
विनियोगः
ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः महालक्ष्मीर्देवता उष्णिक् छन्दः शाकम्भरी शक्तिः दुर्गा बीजम् वायुस्तत्त्वम् यजुर्वेदः स्वरूपम् श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः ।
ध्यानम्
ॐ अक्षस्त्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिका दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्। शलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मी सरोजस्थिताम्॥
ॐ ह्रीं ऋषिरुवाच॥ १॥
देवासुरमभूयुद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा।
ॐ मध्यम चरित्र के विष्णु ऋषि महालक्ष्मी देवता उष्णिक् छन्द शाकम्भरी शक्ति दुर्गा बीज वायु तत्त्व और यजुर्वेद स्वरूप है।
श्री महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये मध्यम चरित्र के पाठ में इसका विनियोग है।
मैं कमल के आसन पर बैठी हुई प्रसन्न मुखवाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का भजन करता हूँ जो अपने हाथों में अक्षमाला फरसा गदा बाण वज्र पद्म धनुष कुण्डिका दण्ड शक्ति खड्ग ढाल शंख घण्टा मधुपात्र शूल पाश और चक्र धारण करती हैं।
महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे ॥२॥ तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्। जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः ॥३॥ ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्। पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ ॥४॥ यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।। त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम् ॥५॥ सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च। अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति ॥६॥ स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि। विचरन्ति यथा मा महिषेण दुरात्मना ॥७॥ एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्। शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम् ॥८॥
ऋषि कहते हैं ॥१॥ पूर्वकाल में देवताओं और असुरों में पूरे सौ वर्षों तक घोर संग्राम हुआ था।
उसमें असुरों का स्वामी महिषासुर था और देवताओं के नायक इन्द्र थे।
उस युद्ध में देवताओं की सेना महाबली असुरों से परास्त हो गयी।
सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर महिषासुर इन्द्र बन बैठा ॥२३॥ तब पराजित देवता प्रजापति ब्रह्माजी को आगे करके उस स्थान पर गये जहाँ भगवान् शंकर और विष्णु विराजमान थे ॥४॥
देवताओं ने महिषासुर के पराक्रम तथा अपनी पराजय का यथावत् वृत्तान्त उन दोनों देवेश्वरों से विस्तारपूर्वक कह सुनाया ॥५॥
वे बोले भगवन् महिषासुर सूर्य इन्द्र अग्नि वायु चन्द्रमा यम वरुण तथा अन्य देवताओं के भी अधिकार छीनकर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बना बैठा है ॥६॥
उस दुरात्मा महिष ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। अब वे मनुष्यों की भाँति पृथ्वी पर विचरते हैं ॥७॥
दैत्यों की यह सारी करतूत हमने आपलोगों से कह सुनायी। अब हम आपकी ही शरण में आये हैं। उसके वध का कोई उपाय सोचिये ॥८॥
इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः। चकार कोपं शम्भुश्च भृकुटीकुटिलाननौ ॥९॥ ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः। निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च ॥१०॥ अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः। निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत ॥११॥ अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्। ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम् ॥१२॥ अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा ॥१३॥ यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्। याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा ॥१४॥
इस प्रकार देवताओं के वचन सुनकर भगवान् विष्णु और शिव ने दैत्यों पर बड़ा क्रोध किया। उनकी भौंहें तन गयीं और मुँह टेढ़ा हो गया ।।९॥
तब अत्यन्त कोप में भरे हुए चक्रपाणि श्रीविष्णु के मुख से एक महान् तेज प्रकट हुआ।
इसी प्रकार ब्रह्मा शंकर तथा इन्द्र आदि अन्यान्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला।
वह सब मिलकर एक हो गया ॥१०११॥ महान् तेज का वह पुंज जाज्वल्यमान पर्वतसा जान पड़ा। देवताओं ने देखा वहाँ उसकी ज्वालाएँ सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त हो रही थीं ।।१२।।
सम्पूर्ण देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा ॥१३॥
भगवान् शंकर का जो तेज था उससे उस देवी का मुख प्रकट हुआ।
यमराज के तेज से उसके सिर में बाल निकल आये।
श्रीविष्णु भगवान् के तेज से उसकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं ॥१४॥
सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्। वारुणेन च जोरू नितम्बस्तेजसा भुवः ॥१५॥ ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदगुल्योऽर्कतेजसा। वसूनां च करामुल्यः कौबेरेण च नासिका ॥१६॥ तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा। नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा ॥१७॥ भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च। अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा ॥१८॥ ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्। तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः ॥१९॥
कई प्रतियों में इसके बाद ततो देवा ददुस्तस्यै स्वानि स्वान्यायुधानि च। ऊचुर्जयजयेत्युच्चैर्जयन्ती ते जयैषिणः॥ इतना पाठ अधिक है।
चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तनों का और इन्द्र के तेज से मध्यभाग कटिप्रदेश का प्रादुर्भाव हुआ।
वरुण के तेज से जंघा और पिंडली तथा
पृथ्वी के तेज से नितम्बभाग प्रकट हुआ ॥१५॥
ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उसकी अँगुलियाँ हुईं।
वसुओं के तेज से हाथों की अंगुलियाँ और
कुबेर के तेज से नासिका प्रकट हुई ॥१६॥
उस देवी के दाँत प्रजापति के तेज से और
तीनों नेत्र अग्नि के तेज से प्रकट हुए थे ॥१७॥
उसकी भौंहें संध्या के और
कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए थे।
इसी प्रकार अन्यान्य देवताओं के तेज से भी उस कल्याणमयी देवी का आविर्भाव हुआ ॥१८॥
तदनन्तर समस्त देवताओं के तेजःपुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर महिषासुर के सताये हुए देवता बहुत प्रसन्न हुए ॥१९॥
शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक् । चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य १ स्वचक्रतः ॥२०॥ शङ्ख च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः। मारुतो दत्तवांश्चापं बाणपूर्णे तथेषुधी ॥२१॥ वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य २ कुलिशादमराधिपः। ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात् ॥२२॥ कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ। प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्॥२३॥ समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः। कालश्च दत्तवान् खड्गं तस्याश्चर्म ३ च निर्मलम् ॥२४॥ क्षीरोदश्चामलं हारमजरे च तथाम्बरे। चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च ॥२५॥ अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।
१ पा०ट्य। २ पा०ट्य। ३ पा०तस्यै चर्म।
पिनाकधारी भगवान् शंकर ने अपने शूल से एक शूल निकालकर उन्हें दिया।
फिर भगवान् विष्णु ने भी अपने चक्र से चक्र उत्पन्न करके भगवती को अर्पण किया ॥२०॥
वरुण ने भी शंख भेंट किया।
अग्नि ने उन्हें शक्ति दी और
वायु ने धनुष तथा बाण से भरे हुए दो तरकस प्रदान किये ॥२१॥
सहस्त्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से वज्र उत्पन्न करके दिया और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घण्टा भी प्रदान किया ॥२२॥
यमराज ने कालदण्ड से दण्ड।
वरुण ने पाश।
प्रजापति ने स्फटिकाक्ष की माला तथा।
ब्रह्माजी ने कमण्डलु भेंट किया ॥२३॥
सूर्य ने देवी के समस्त रोमकूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया।
काल ने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी ॥२४॥
क्षीरसमुद्र ने उज्ज्वल हार तथा कभी जीर्ण न होनेवाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये। साथ ही उन्होंने दिव्य चूड़ामणि दो कुण्डल कड़े उज्ज्वल अर्धचन्द्र सब बाहुओं के लिये केयूर दोनों चरणों के लिये निर्मल नूपुर गले की सुन्दर हँसली और सब अंगुलियों में पहनने के लिये रत्नों की बनी अंगूठियाँ भी दीं।
नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम् ॥२६॥ अङ्गुलीयकरत्नानि समस्तास्वङ्गुलीषु च।। विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम् ॥२७॥ अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दशनम्। अम्लानपङ्कजां मालां शिरस्युरसि चापराम् ॥२८॥ अददज्जलधिस्तस्यै पङ्कजं चातिशोभनम्। हिमवान् वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च ॥२९॥ ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः। शेषश्च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम् ॥३०॥ नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्। अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधस्तथा ॥३१॥ सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः। तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः ॥३२॥ अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्। चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्च चकम्पिरे ॥३३॥
विश्वकर्मा ने उन्हें अत्यन्त निर्मल फरसा भेंट किया। ॥२५२७॥ साथ ही अनेक प्रकार के अस्त्र और अभेद्य कवच दिये। इनके सिवा मस्तक और वक्षःस्थल पर धारण करने के लिये कभी न कुम्हलाने वाले कमलों की मालाएँ दीं ॥२८॥
जलधि ने उन्हें सुन्दर कमल का फूल भेंट किया।
हिमालय ने सवारी के लिये सिंह तथा भाँतिभाँति के रत्न समर्पित किये ।।२९।।
धनाध्यक्ष कुबेर ने मधु से भरा पानपात्र दिया तथा।
सम्पूर्ण नागों के राजा शेष ने जो इस पृथ्वी को धारण करते हैं उन्हें बहुमूल्य मणियों से विभूषित नागहार भेंट दिया।
इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी आभूषण और अस्त्रशस्त्र देकर देवी का सम्मान किया।
तत्पश्चात उन्होंने बारंबार अट्टहासपूर्वक उच्चस्वर से गर्जना की। उनके भयंकर नाद से सम्पूर्ण आकाश गूंज उठा ।।३०३२॥
देवी का वह अत्यन्त उच्चस्वर से किया हुआ सिंहनाद कहीं समा न सका
चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्च महीधराः। जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम् ॥३४॥ तुष्टुवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः। दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः ॥३५॥ सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः। आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः ॥३६॥ अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः। स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा ॥३७॥ पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्। क्षोभिताशेषपाताला धनुानिःस्वनेन ताम् ॥३८॥
पा०वाहनाम्।
आकाश उसके सामने लघु प्रतीत होने लगा। उससे बड़े जोर की प्रतिध्वनि हुई जिससे सम्पूर्ण विश्व में हलचल मच गयी और समुद्र काँप उठे ॥३३॥ पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे।
उस समय देवताओं ने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ सिंहवाहिनी भवानी से कहा देवि तुम्हारी जय हो ॥३४॥ साथ ही महर्षियों ने भक्तिभाव से विनम्र होकर उनका स्तवन किया।
सम्पूर्ण त्रिलोकी को क्षोभग्रस्त देख दैत्यगण अपनी समस्त सेना को कवच आदि से सुसज्जित कर हाथों में हथियार ले सहसा उठकर खड़े हो गये।
उस समय महिषासुर ने बड़े क्रोध में आकर कहा आः यह क्या हो रहा है
फिर वह सम्पूर्ण असुरों से घिरकर उस सिंहनाद की ओर लक्ष्य करके दौड़ा और आगे पहुँचकर उसने देवी को देखा।
जो अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं ॥३५३७॥
उनके चरणों के भार से पृथ्वी दबी जा रही थी। माथे के मुकुट से आकाश में रेखासी खिंच रही थी तथा वे अपने धनुष की टंकार से सातों पातालों को क्षुब्ध किये देती थीं ॥३८॥
दिशो भुजसहस्त्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्। ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम् ॥३९॥ शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम्। महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः ॥४०॥ युयुधे चामरश्चान्यैश्चतुरङ्गबलान्वितः। रथानामयुतैः षड्भिरुदग्राख्यो महासुरः ॥४१॥ अयुध्यतायुतानां च सहस्त्रेण महाहनुः। पञ्चाशद्भिश्च नियुतैरसिलोमा महासुरः ॥४२॥ अयुतानां शतैः षड्भिर्बाष्कलो युयुधे रणे। गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः १ परिवारितः २ ॥४३॥ वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत। बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः ॥४४॥
१ पा०कैरुग्रदर्शनः। २ परितो वारयति शत्रूनिति व्युत्पत्तिः।
देवी अपनी हजारों भुजाओं से सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित करके खड़ी थीं।
तदनन्तर उनके साथ दैत्यों का युद्ध छिड़ गया ॥३९॥ नाना प्रकार के अस्त्रशस्त्रों के प्रहार से सम्पूर्ण दिशाएँ उद्भासित होने लगीं।
चिक्षुर नामक महान् असुर महिषासुर का सेनानायक था ॥४०॥ वह देवी के साथ युद्ध करने लगा।
अन्य दैत्यों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा।
साठ हजार रथियों के साथ आकर उदग्र नामक महादैत्य ने लोहा लिया ॥४१॥
एक करोड़ रथियों को साथ लेकर महाहनु नामक दैत्य युद्ध करने लगा। जिसके रोएँ तलवार के समान तीखे थे।
वह असिलोमा नाम का महादैत्य पाँच करोड़ रथी सैनिकों सहित युद्ध में आ डटा ॥४२॥
साठ लाख रथियों से घिरा हुआ बाष्कल नामक दैत्य भी उस युद्धभूमि में लड़ने लगा।
परिवारित नामक राक्षस हाथी सवार और घुड़ सवारों के अनेक दलों तथा एक करोड़ रथियों की सेना लेकर युद्ध करने लगा।
युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः । अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः ॥४५॥ युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः। कोटिकोटिसहस्त्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा ॥४६॥ हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः। तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा ॥४७॥ युयुधुः संयुगे देव्या खड्गैः परशुपट्टिशैः। केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे ॥४८॥ देवी खड्गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः। सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका ॥४९॥ लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी। अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः ॥५०॥
किसीकिसी प्रति में इसके बाद कृतः कालो रथानां च रणे पञ्चाशताय संयुगे तत्र तावद्भिः परिवारितः॥ इतना पाठ अधिक है।
बिडाल नामक दैत्य पाँच अरब रथियों से घिर कर लोहा लेने लगा।
इनके अतिरिक्त और भी हजारों महादैत्य रथ हाथी और घोड़ों की सेना साथ लेकर वहाँ देवी के साथ युद्ध करने लगे।
स्वयं महिषासुर उस रणभूमि में कोटिकोटि सहस्त्र रथ हाथी और घोड़ों की सेना से घिरा हुआ खड़ा था।
वे दैत्य देवी के साथ तोमर भिन्दिपाल शक्ति मूसल खड्ग परशु और पट्टिश आदि अस्त्रशस्त्रों का प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे।
कुछ दैत्यों ने उन पर शक्ति का प्रहार किया कुछ लोगों ने पाश फेंके ॥४३४८॥
तथा कुछ दूसरे दैत्यों ने खङ्ग प्रहार करके देवी को मार डालने का उद्योग किया।
देवी ने भी क्रोध में भरकर खेलखेल में ही अपने अस्त्रशस्त्रों की वर्षा करके दैत्यों के वे समस्त अस्त्रशस्त्र काट डाले। उनके मुख पर परिश्रम या थकावट का रंचमात्र भी चिह्न नहीं था।
देवता और ऋषि उनकी स्तुति करते थे और वे भगवती परमेश्वरी दैत्यों के शरीरों पर अस्त्रशस्त्रों की वर्षा करती रहीं।
मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्वरी। सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेसरी ॥५१॥ चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः। निःश्वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका ॥५२॥ त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः। युयुधुस्ते परशुभिभिन्दिपालासिपट्टिशैः ॥५३॥ नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्त्युपबृंहिताः। अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्खांस्तथापरे ॥५४॥ मृदङ्गांश्च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे। ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः ॥५५॥ खड्गादिभिश्च शतशो निजघान महासुरान्। पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान् ॥५६॥
पा०शरवृष्टिभिः।
देवी का वाहन सिंह भी क्रोध में भरकर गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में इस प्रकार विचरने लगा मानो वनों में दावानल फैल रहा हो।
रणभूमि में दैत्यों के साथ युद्ध करती हुई अम्बिका देवी ने जितने निःश्वास छोडे वे सभी तत्काल सैकड़ोंहजारों गणों के रूप में प्रकट हो ।
भिन्दिपाल खड्ग तथा पट्टिश आदि अस्त्रों द्वारा असुरों का सामना करने लगे। ॥४९५३॥ देवी की शक्ति से बढ़े हुए वे गण असुरों का नाश करते हुए नगाड़ा और शंख आदि बाजे बजाने लगे ॥५४॥
उस संग्राम महोत्सव में कितने ही गण मृदंग बजा रहे थे। तदनन्तर देवी ने त्रिशूल से गदा से शक्ति की वर्षा से और खग आदि से सैकड़ों महादैत्यों का संहार कर डाला।
कितनों को घण्टे के भयंकर नाद से मूच्छित करके मार गिराया ।।५५५६॥
असुरान् भुवि पाशेन बद्ध्वा चान्यानकर्षयत्। केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खङ्गपातैस्तथापरे ॥५७॥ विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते। वेमुश्च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः ॥५८॥ केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि। निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे ॥५९॥ श्येनानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः। केषांचिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे ॥६०॥ शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः। विच्छिन्नजङ्घास्त्वपरे पेतुरुवा॒ महासुराः॥६१॥ एकबाह्नक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः। छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः ॥६२॥
पा०सेनानु० । शल्यानु० । शैलानु।
बहुत सारे दैत्यों को पाश से बाँधकर धरती पर घसीटा। कितने ही दैत्य उनकी तीखी तलवार की मार से दोदो टुकड़े हो गये ॥५७॥
कितने ही गदा की चोट से घायल हो धरती पर सो गये। कितने ही मूसल की मार से अत्यन्त आहत होकर रक्त वमन करने लगे। कुछ दैत्य शूल से छाती फट जाने के कारण पृथ्वी पर ढेर हो गये। उस रणांगण में बाण समूहों की वृष्टि से कितने ही असुरों की कमर टूट गयी ॥५८५९॥
बाज की तरह झपटने वाले देव पीडक दैत्यगण अपने प्राणों से हाथ धोने लगे। किन्हीं की बाँहें छिन्नभिन्न हो गयीं। कितनों की गर्द नें कट गयीं। कितने ही दैत्यों के मस्तक कटकटकर गिरने लगे।
कुछ लोगों के शरीर मध्यभाग में ही विदीर्ण हो गये। कितने ही महादैत्य जाँघे कट जाने से पृथ्वी पर गिर पड़े। कितनों को ही देवी ने एक बाँह एक पैर और एक नेत्रवाले करके दो टुकड़ों में चीर डाला।
कितने ही दैत्य मस्तक कट जाने पर भी गिरकर फिर उठ जाते और केवल धड़के ही रूप में अच्छेअच्छे हथियार हाथ में ले देवी के साथ युद्ध करने लगते थे।
कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः। ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः ॥६३॥ कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्गशक्त्यष्टिपाणयः। तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः ॥६४॥ पातितै रथनागाश्वैरसुरैश्च वसुन्धरा। अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः ॥६५॥ शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुत्रुवुः। मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम् ॥६६॥ क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका। निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम् ॥६७॥
किसीकिसी प्रति में इसके बाद रुधिरौघविलुप्ताङ्गाः संग्रामे लोमहर्षणे। इतना पाठ अधिक है।
दूसरे कबन्ध युद्ध के बाजों की लय पर नाचते थे। ॥६०६३॥ कितने ही बिना सिर के धड़ हाथों में खड्ग शक्ति और ऋष्टि लिये दौड़ते थे तथा दूसरेदूसरे महादैत्य ठहरो ठहरो यह कहते हुए देवी को युद्ध के लिये ललकारते थे।
जहाँ वह घोर संग्राम हुआ था वहाँ की धरती देवी के गिराये हुए रथ हाथी घोड़े और असुरों की लाशों से ऐसी पट गयी थी कि वहाँ चलनाफिरना असम्भव हो गया था। ॥६४६५॥
दैत्यों की सेना में हाथी घोड़े और असुरों के शरीरों से इतनी अधिक मात्रा में रक्तपात हुआ था कि थोड़ी ही देर में वहाँ खून की बड़ीबड़ी नदियाँ बहने लगीं ।।६६।।
जगदम्बा ने असुरों की विशाल सेना को क्षणभर में नष्ट कर दिया ठीक उसी तरह जैसे तृण और काठ के भारी ढेर को आग कुछ ही क्षणों में भस्म कर देती है ॥६७॥
स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः। शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति ॥६८॥ देव्या गणैश्च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः। यथैषां १ तुतुषुर्देवाः २ पुष्पवृष्टिमुचो दिवि॥ॐ ॥६९॥
१ पा०यथैनां । २ पा० तुष्टुवुर्देवाः।
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णि के मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
उवाच१ श्लोकाः ६८ एवम् ६९ एवमादितः ॥७३॥
और वह सिंह भी गर्दन के बालों को हिलाहिला कर जोरजोर से गर्जना करता हुआ दैत्यों के शरीरों से मानो उनके प्राण चुने लेता था। ॥६८॥
वहाँ देवी के गणों ने भी उन महादैत्यों के साथ ऐसा युद्ध किया जिससे आकाश में खड़े हुए देवतागण उनपर बहुत संतुष्ट हुए और फूल बरसाने लगे ॥६९॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में महिषासुरकी सेना का वध नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥२॥
जय श्री कृष्णा
श्रीदुर्गासप्तशती अध्याय ०३
सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
ध्यानम्
ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपवटी विद्यामभीतिं वरम्। हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्॥
ॐ ऋषिरुवाच॥ १॥
निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः। सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धमथाम्बिकाम्॥२॥ स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः।
जगदम्बा के श्री अंगों की कान्ति उदयकाल के सहस्रों सूर्यों के समान है। वे लाल रंग की रेशमी साड़ी पहने हुए हैं। उनके गले में मुण्डमाला शोभा पा रही है। दोनों स्तनों पर रक्त चन्दन का लेप लगा है। वे अपने कर कमलों में जपमालिका विद्या और अभय तथा वर नामक मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। तीन नेत्रों से सुशोभित मुखारविन्द की बड़ी शोभा हो रही है। उनके मस्तक पर चन्द्रमा के साथ ही रत्नमय मुकुट बँधा है तथा वे कमल के आसन पर विराजमान हैं। ऐसी देवी को मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ।
ऋषि कहते हैं ॥१॥ दैत्यों की सेना को इस प्रकार तहसनहस होते देख महादैत्य सेनापति चिक्षुर क्रोध में भरकर अम्बिका देवी से युद्ध करने के लिये आगे बढ़ा ॥२॥
वह असुर रणभूमि में देवी के ऊपर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगा जैसे बादल मेरुगिरि के शिखर पर पानी की धार बरसा रहा हो ॥३॥
यथा मेरुगिरेः शृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः ॥३॥ तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान्। जघान तुरगान् बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम् ॥४॥ चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम्। विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः॥५॥ सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः। अभ्यधावत तां देवी खड्गचर्मधरोऽसुरः ॥६॥ सिंहमाहत्य खड्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि। आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान् ॥७॥ तस्याः खड्गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन। ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः ॥८॥ चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः। जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात् ॥९॥
तब देवी ने अपने बाणों से उसके बाणसमूह को अनायास ही काटकर उसके घोड़ों और सारथि को भी मार डाला ॥४॥ साथ ही उसके धनुष तथा अत्यन्त ऊँची ध्वजा को भी तत्काल काट गिराया। धनुष कट जाने पर उसके अंगों को अपने बाणों से बींध डाला ॥५॥
धनुष रथ घोड़े और सारथि के नष्ट हो जाने पर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवी की ओर दौड़ा ॥६॥
उसने तीखी धारवाली तलवार से सिंह के मस्तक पर चोट करके देवी की भी बायीं भुजा में बड़े वेग से प्रहार किया। ॥७॥
राजन् देवी की बाँह पर पहुँचते ही वह तलवार टूट गयी फिर तो क्रोध से लाल आँखें करके उस राक्षसने शूल हाथ में लिया ।।८॥ और उसे उस महादैत्य ने भगवती भद्रकाली के ऊपर चलाया। वह शूल आकाश से गिरते हुए सूर्यमण्डल की भाँति अपने तेज से प्रज्वलित हो उठा ॥९॥
दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत। तच्छूलं शतधा तेन नीतं स च महासुरः ॥१०॥ हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ। आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः ॥११॥ सोऽपिशक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम्। हुंकाराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम् ॥१२॥ भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः। चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत् ॥१३॥ ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः। बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा ॥१४॥ युद्धयमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ। युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥१५॥
पा०तेन तच्छतधा नीतं ।
उस शूल को अपनी ओर आते देख देवी ने भी शूल का प्रहार किया। उस से राक्षस के शूल के सैकड़ों टुकड़े हो गये साथ ही महादैत्य चिक्षुर की भी धज्जियाँ उड़ गयीं। वह प्राणों से हाथ धो बैठा ॥१०॥
महिषासुर के सेनापति उस महापराक्रमी चिक्षुर के मारे जाने पर देवताओं को पीड़ा देनेवाला चामर हाथी पर चढ़कर आया।
उसने भी देवी के ऊपर शक्ति का प्रहार किया किंतु जगदम्बा ने उसे अपने हुंकार से ही आहत एवं निष्प्रभ करके तत्काल पृथ्वी पर गिरा दिया। ॥१११२॥
शक्ति टूटकर गिरी हुई देख चामर को बड़ा क्रोध हुआ। अब उसने शूल चलाया किंतु देवी ने उसे भी अपने बाणों द्वारा काट डाला ॥१३॥
इतने में ही देवी का सिंह उछलकर हाथी के मस्तक पर चढ़ बैठा और उस दैत्य के साथ खूब जोर लगाकर बाहुयुद्ध करने लगा ॥१४॥
वे दोनों लड़तेलड़ते हाथी से पृथ्वी पर आ गये और अत्यन्त क्रोध में भरकर एकदूसरे पर बड़े भयंकर प्रहार करते हुए लड़ने लगे ॥१५॥
ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा। करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक्कृतम् ॥१६॥ उदग्रश्च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः। दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः ॥१७॥ देवी क्रुद्धा गदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम्। वाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्तानं तथान्धकम् ॥१८॥ उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम्। त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी ॥१९॥ बिडालस्यासिना कायात्यातयामास वै शिरः। दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम् ॥२०॥
इसके बाद किसीकिसी प्रति में कालं च कालदण्डेन कालरात्रिरपातयत् । उग्रदर्शनमत्युग्रैः खड्गपातैरताडयत्॥
तदनन्तर सिंह बड़े वेग से आकाश की ओर उछला और उधर से गिरते समय उसने पंजों की मार से चामर का सिर धड़ से अलग कर दिया ॥१६॥
इसी प्रकार उदग्र भी शिला और वृक्ष आदि की मार खाकर रणभूमि में देवी के हाथ से मारा गया तथा कराल भी दाँतों मुक्कों और थप्पड़ों की चोट से धराशायी हो गया ।।१७॥
क्रोध में भरी हुई देवी ने गदा की चोट से उद्धत का कचूमर निकाल डाला। भिन्दिपाल से वाष्कल को तथा बाणों से ताम्र और अन्धक को मौत के घाट उतार दिया। ॥१८॥
तीन नेत्रोंवाली परमेश्वरी ने त्रिशल से उग्रास्य उग्रवीर्य तथा महाहनु नामक दैत्यों को मार डाला ॥१९॥
तलवार की चोट से विडाल के मस्तक को धड़ से काट गिराया। दुर्धर और दुर्मुख इन दोनों को भी अपने बाणों से यमलोक भेज दिया ।।२०॥
एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः। माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान् ॥२१॥ कांश्चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान्। लाङ्गेलताडितांश्चान्याञ्छृङ्गाभ्यां च विदारितान् ॥२२॥ वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च। निःश्वासपवनेनान्यान् पातयामास भूतले ॥२३॥ निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः। सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका ॥२४॥ सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः। श्रृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च ॥२५॥ वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत। लाङ्कलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः ॥२६॥
इस प्रकार अपनी सेना का संहार होता देख महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण करके देवी के गणों को त्रास देना आरम्भ किया। ॥२१॥
किन्हीं को थूथुन से मारकर किन्हीं के ऊपर खुरों का प्रहार करके किन्हींकिन्हीं को पूँछ से चोट पहुँचाकर कुछ को सींगों से विदीर्ण करके कुछ गणों को वेग से किन्हीं को सिंहनाद से कुछ को चक्कर देकर और कितनों को निःश्वासवायु के झोंके से धराशायी कर दिया ॥२२२३॥
इस प्रकार गणों की सेना को गिराकर वह असुर महादेवी के सिंह को मारने के लिये झपटा।
इससे जगदम्बा को बड़ा क्रोध हुआ ॥२४॥ उधर महापराक्रमी महिषासुर भी क्रोध में भरकर धरती को खुरों से खोदने लगा तथा अपने सींगों से ऊँचेऊँचे पर्वतों को उठाकर फेंकने और गर्जने लगा ।।२५।।
उसके वेग से चक्कर देने के कारण पृथ्वी क्षुब्ध होकर फटने लगी। उसकी पूँछ से टकराकर समुद्र सब ओर से धरती को डुबोने लगा ॥२६॥
असिनैवासिलोमानमच्छिदत्सा रणोत्सवे। गणैः सिंहेन देव्या च जयक्ष्वेडाकृतोत्सवैः॥ ये दो श्लोक अधिक हैं।
धुतशृङ्गविभिन्नाश्च खण्डं खण्डं ययुर्घनाः। श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः॥२७॥ इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम्। दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत् ॥२८॥ सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम्। तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे ॥२९॥ ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः। छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत ॥३०॥ तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः । तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः ॥३१॥
पा०खण्डखण्डं।
हिलते हुए सींगों के आघात से विदीर्ण होकर बादलों के टुकड़ेटुकड़े हो गये। उसके श्वास की प्रचण्ड वायु के वेग से उड़े हुए सैकड़ों पर्वत आकाश से गिरने लगे ।।२७॥
इस प्रकार क्रोध में भरे हुए उस महादैत्य को अपनी ओर आते देख चण्डिका ने उसका वध करने के लिये महान् क्रोध किया ॥२८॥
उन्होंने पाश फेंककर उस महान् असुर को बाँध लिया। उस महासंग्राम में बँध जाने पर उसने भैंसे का रूप त्याग दिया ॥२९॥
और तत्काल सिंह के रूप में वह प्रकट हो गया। उस अवस्था में जगदम्बा ज्यों ही उसका मस्तक काटने के लिये उद्यत हुईं त्यों ही वह खड्गधारी पुरुष के रूप में दिखायी देने लगा ।।३०॥
तब देवी ने तुरंत ही बाणों की वर्षा करके ढाल और तलवार के साथ उस पुरुष को भी बींध डाला। इतने में ही वह महान् गजराज के रूप में परिणत हो गया। ॥३१॥ तथा अपनी सँड़ से देवी के विशाल सिंह को खींचने और गर्जने लगा।
करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च। कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत ॥३२॥ ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः। तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥३३॥ ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम्। पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना ॥३४॥ ननद चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्धतः। विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान् ॥३५॥ सा च तान् प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः। उवाच तं मदोद्धृतमुखरागाकुलाक्षरम् ॥३६॥ देव्युवाच ॥ ३७॥ गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम्। मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ॥३८॥
खींचते समय देवी ने तलवार से उसकी सुड़ काट डाली ॥३२॥ तब उस महादैत्य ने पुनः भैंसे का शरीर धारण कर लिया और पहले की ही भाँति चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों को व्याकुल करने लगा ॥३३॥
तब क्रोध में भरी हुई जगन्माता चण्डिका बारंबार उत्तम मधु का पान करने और लाल आँखें करके हँसने लगीं ॥३४॥
उधर वह बल और पराक्रम के मद से उन्मत्त हुआ राक्षस गर्जने लगा और अपने सींगों से चण्डी के ऊपर पर्वतों को फेंकने लगा ॥३५॥
उस समय देवी अपने बाणों के समूहों से उसके फेंके हुए पर्वतों को चूर्ण करती हुई बोलीं। बोलते समय उनका मुख मधु के मद से लाल हो रहा था और वाणी लड़खड़ा रही थी ॥३६॥
देवी ने कहा ॥३७॥ ओ मूढ़ मैं जब तक मधु पीती हूँ तब तक तू क्षणभर के लिये खूब गर्ज ले।
मेरे हाथ से यहीं तेरी मृत्यु हो जाने पर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे। ॥३८॥
ऋषिरुवाच॥ ३९॥ एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम्। पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत् ॥४०॥ ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः। अर्धनिष्क्रान्त एवासीद् १ देव्या वीर्येण संवृतः ॥४१॥ अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः। तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः २ ॥४२॥ २ किसीकिसी प्रतिमें इसके बाद एवं स महिषो नाम ससैन्यः ससुहृद्गणः। त्रैलोक्यं मोहयित्वा तु तया देव्या विनाशितः॥ त्रैलोक्यस्थैस्तदा भूतैर्महिषे विनिपातिते। जयेत्युक्तं ततः सर्वैः सदेवासुरमानवैः॥ इतना अधिक पाठ है। ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत्। प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः ॥४३॥
१ पा०एवाति देव्या।
ऋषि कहते हैं ॥३९॥ यों कहकर देवी उछली और उस महादैत्य के ऊपर चढ़ गयीं। फिर अपने पैर से उसे दबाकर उन्होंने शूल से उसके कण्ठ में आघात किया ॥४०॥
उनके पैर से दबा होने पर भी महिषासुर अपने मुख से दूसरे रूप में बाहर होने लगा अभी आधे शरीर से ही वह बाहर निकलने पाया था कि देवी ने अपने प्रभाव से उसे रोक दिया। ॥४१।।
आधा निकला होने पर भी वह महादैत्य देवी से युद्ध करने लगा। तब देवी ने बहुत बड़ी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया ॥४२॥
फिर तो हाहाकार करती हुई दैत्यों की सारी सेना भाग गयी तथा सम्पूर्ण देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये। ॥४३।।
तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः। जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ॐ ॥४४॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः॥ ३॥ उवाच ३ श्लोकाः ४१ एवम् ४४ एवमादितः २१७॥
देवताओं ने दिव्य महर्षियों के साथ दुर्गा देवी का स्तवन किया। गन्धर्वराज गाने लगे तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ।।४४।।
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में महिषासुरवध नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥३॥
जय श्री कृष्णा
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