अश्वमेध यज्ञ के लिए अश्व की पूजा करके विधि पूर्वक भर्मण गमन के लिए छोड़ना, क्यों किया जाता है अश्वमेध यज्ञ?
आगे की कथा । ashwamegh yagya kya tha
इस प्रकार भगवान् श्रीराम ऋषयो के मुख से कुछ काल तक धर्म की व्याख्या सुनते रहे, इतने में वसन्त का समय उपस्थित हुआ जब कि महापुरुषों के यज्ञ आदि शुभ कार्य प्रारम्भ होता है, वह समय आया देख बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठ ने सम्पूर्ण जगत्के सम्राट श्रीरामचन्द्र जी से यथोचित वाणी मै कहा महाबाहु रघुनाथ जी अब आपके लिये वह समय आ गया है,
अश्वमेध यज्ञ के साधकों के लिए कठोर नियम विधान
जब कि यज्ञ के लिये निश्चित किये हुए अश्व की भली भॉति पूजा करके उसे पृथ्वी पर भ्रमण करने के लिये छोड़ा जाय, इसके लिये सामग्री एकत्रित हो अच्छे अच्छे ब्राह्मण बुलाये जायँ तथा स्वयं आप ही उन ब्राहाणों की यथोचित पूजा करें, दीनों अंधों और दुखियों का विधिवत् सत्कार करके उन्हें रहने को स्थान दें और उनके मन में जिस वस्तु के पाने की इच्छा हो वही उन्हें दान करें, आप सुवर्ण मयी सीता के साथ यश की दीक्षा लेकर उसके नियमों का पालन करें पृथ्वी पर सोवें ब्रह्मचारी रहे तथा धन सम्बन्धी भोगों का परित्याग करें, आपके कटिभाग मेखला सुशोभित हो आप हरिणका सींग मृगचर्म तथा दण्ड धारण करें तथा सब प्रकार के सामान और द्रव्य एकत्रित करके यज्ञ का आरम्भ करें, महर्षि वसिष्ठ के ये उत्तम और यथार्थ वचन सुनकर परम बुद्धिमान् श्री रामचन्द्र जी,
भगवान श्री राम ने दिए लक्ष्मण को आदेश यज्ञ की तैयारी, अश्व का चुनाव और चतुरङ्गिणी सेना को तैयारी देखो,
ने लक्ष्मण से अभिप्राययुक्त बात कही, श्रीराम बोले लक्ष्मण मेरी बात सुनो और सुनकर तुरंत उसका पालन करो, जाओ प्रयत्न करके अश्वमेध यज्ञ के लिये उपयोगी अश्व ले आओ, श्रीरामचन्द्र जी के वचन सुनकर शत्रु विजयी लक्ष्मण ने सेनापति से कहा, वीर मैं तुम्हें एक अत्यन्त प्रिय वचन सुना रहा हूँ सुनो श्री रघुनाथ जी की आज्ञा के अनुसार शीघ्र ही हाथी, घोड़ों, रथ तथा पैदल से युक्त चतुरङ्गिणी सेना तैयार करो जो काल की सेना का भी विनाश करने में समर्थ हो, महात्मा लक्ष्मण का यह कथन सुनकर कालजित् नाम वाले सेनापति ने सेना को सुसजित किया, उस समय लक्ष्मण के आदेशानुसार सजकर आये हुए अश्वमेध यश के अश्वकी बड़ी शोभा हुई,
सेना की तैयारी और अश्व की सुंदरता का वर्णन
एक श्रेष्ठ पुरुष ने उसकी बागडोर पकड़ रक्खी थी, दस ध्रुवक चिह्न विशेष उसकी शोभा बढ़ा रहे थे, अपने छोटे छोटे रोएं के कारण भी वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था, उस के गले में घुघुरू पहनाये गये थे जो एक दूसरे से मिले नहीं थे, विस्तृत कण्ठकोश में मणि सुशोभित थी, मुख की कान्ति भी बड़ी विशद थी और उसके दोनों कान छोटे छोटे तथा काले थे, घास के ग्रास से उसका मुँह बड़ा सुहावना जान पड़ता था और चमकीले रत्नों से उसको सजाया गया था, इस प्रकार सज धज कर मोतियों की मालाओं से सुशोभित हो वह अश्व बाहर निकला, उसके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था दोनों ओर से दो सफेद चवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे,
सेना को आदेश मिला अश्व को सुरक्षा प्रदान करते हुए प्रस्थान करो ashwamegh yagya kya tha
आशय यह कि उस अश्वका सारा शरीर ही नाना प्रकार के झोभा साधनों से सम्पन्न था, जिस प्रकार देवता लोग सेवा के योग्य श्री हरि की सब ओर से सेवा करते हैं, उसी प्रकार बहुत से सैनिक उस घोडे के आगे पीछे और बीच में रहकर उसकी रक्षा कर रहे थे, तदनन्तर सेनापति कालजित्ने अपनी विशाल सेना को कूच करने की आज्ञा दी आज्ञा पाकर जन समुदाय से भरी हुई वह विशाल वाहिनी छत्रों से सूर्य को ओट में करके अपनी छावनी से निकली, उस सेना के सभी श्रेष्ठ वीर श्री रघुनाथ जी के यज्ञ के लिये सुसजित हो गजते तथा युद्ध के लिये उत्साह प्रकट करते हुए बड़े हर्ष मै चले । सभी सैनिक हार्थो धनुप पाश और खड्ग धारण किये सैनिक शिक्षा के अनुसार स्फुट गति से चलते हुए बड़ी तेजी के साथ महाराज श्री राम के पास उपस्थित हुए,
भगवान श्री राम और स्वर्णमयी माता सीता ने किया वैदिक अनुष्ठान से पूजा पाठ
वह घोड़ा भी आकाश मैं उछलता तथा पृथ्वी को अपनी टाप से खोदता हुआ धीरे धीरे यश चिह्न से युक्त मण्डप के पास पहुँचा, घोड़े को आया देख श्री रामचन्द्र जी ने महर्षि वसिष्ठ को समयोचित कार्य कराने के लिये प्रेरित किया, महर्षि वसिष्ट ने श्री रामचन्द्र जी को स्वर्णमयी पत्नी के साथ बुलाकर अनुष्ठान आरम्भ कराया, उस यश वेद शास्त्रों का विवेचन करने वाले बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठ जो श्री रघुनाथजी के वंश के आदि गुरु थे आचार्य हुए, और महा तपोनिधि अगस्त्य जी ने ब्रह्मा का कृताकृतावेक्षण रूप कार्य सँभाला, वाल्मीकि मुनि अध्वर्यु बनाये गये और कण्व द्वारपाल,
यज्ञ मण्डप के आठ द्वार थे, प्रत्येक द्वार दो की संख्या मै वैदिक ब्राह्मण बैठाए गए थे,
उस यज्ञमण्डप के आठ द्वार थे जो तोरण आदि से सुसजित होने के कारण बहुत सुन्दर दिखायी देते थे, उनमें प्रत्येक द्वार पर दो दो मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण बिठाये गये थे, पूर्व द्वार पर मुनि श्रेष्ठ देवल और असित थे, दक्षिण द्वार पर तपस्या के भंडार महात्मा कश्यप और अत्रि विराजमान थे, पश्चिम द्वार पर श्रेष्ठ महर्षि जातकर्ण्य और जाजलि की उपस्थिति थी तथा उतर द्वार पर द्वित और एकत नामके दो तपस्वी मुनि विराज रहे थे, ब्रह्मन् इस प्रकार द्वार की विधि पूर्ण करके महर्षि वसिष्ठ ने उस यज्ञ सम्बन्धी श्रेष्ठ अश्व का विधिवत् पूजन आरम्भ किया,
यज्ञ के अश्व के गले पर स्वर्ण पत्र और सूर्यवंश की पताका फहरा कर कुच करनेे की अनुुुुमति देेेना
फिर सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सुशोभित सुवासिनी स्त्रियो ने वहाँ आकर हल्दी अक्षत और चन्दन आदि के द्वारा उस पूजित अश्वका पुनः पूजन किया तथा अगुरुका धूप देकर उसकी आरती उतारी, इस तरह पूजा करने के पश्चात् महर्षि वसिष्ठ ने अश्वके उज्ज्वल ललाट पर जो चन्दन से चर्चित कुङ्कुम आदि गन्धों से युक्त तथा सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन्न था एक चमचमाता हुआ पत्र बाँध दिया जो तपाये हुए सुवर्णका बना था, उस पत्र पर महर्षि ने दशरथनन्दन श्री रघुनाथ जी के बढ़े हुए बल और प्रताप का इस प्रकार उल्लेख किया,
पत्र पर सूर्यवंशी राजा राम का शौर्य और प्रताप लिखा गया।
सूर्यवंश की पताका फहराने वाले महाराज दशरथ बहुत बड़े धनुर्धर रहे हैं, वे धनुष की दीक्षा देने वाले गुरुओं के भी गुरु थे उन्हीं के पुत्र महाभाग श्री रामचन्द्र जी इस समय रघुवंश के स्वामी हैं, वे सब सूरमाओं के शिरोमणि तथा बड़े बड़े वीरों के बल सम्बन्धी अभिमान को चूर्ण करनेवाले हैं, महाराज श्री रामचन्द्र ब्राह्मणों की बतायी हुई विधि के अनुसार अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ कर रहे हैं, उन्होंने ही यह यज्ञ सम्बन्धी अश्व जो समस्त अश्वों में श्रेष्ठ तथा सभी वाहनों में प्रधान है पृथ्वी पर भ्रमण करने के लिये छोड़ा है,
अश्व का रक्षा भार शत्रुघ्न को सौंपा गया। ashwamegh yagya kya tha
श्री राम के ही भाई शत्रुघ्न जिन्होंने लवणा सुरका विनाश किया है इस अश्वके रक्षक हैं, उनके साथ हाथी घोड़े और पैदलों की विशाल सेना भी है, जिन राजाओं को अपने बल के घमंड में आकर ऐसा अभिमान होता हो कि हम लोग ही सबसे बढ़कर शूर धनुर्धर तथा प्रचण्ड बलवान् हैं वे ही रत्नकी मालाओं से विभूषित इस यज्ञ सम्बन्धी अश्व को पकड़ने का साहस करें, वीर शत्रुघ्न उनके हाथ से इस अश्व को हठात् छुड़ा लेंगे, इस प्रकार श्री रामचन्द्र जी की भुजाओं के पराक्रम से शोभा पाने वाले उनके प्रखर प्रताप का परिचय देते हुए महामुनि वसिष्ठ जी ने और भी अनेकों बातें लिखीं, इसके बाद अश्वको जो शोभा का भंडार तथा वायु के समान बल और वेग से युक्त था छोड़ दिया, उसकी भूलोक तथा पाताल में समान रूप से तीव्र गति थी,
अश्व के पीछे पीछे शत्रुध्न जी को युद्ध नीति राजनीति और सुरक्षा करने का आदेश दिया भगवान श्री राम जी ने।
ashwamegh yagya kya tha
तदनन्तर शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ श्री रामचन्द्र जी ने शत्रुध्न को आशा दी सुमित्रानन्दन यह अश्व अपनी इच्छा के अनुसार विचरने वाला है तुम इसकी रक्षा के लिये पीछे पीछे जाओ, जो योद्धा संग्राम में तुम्हारा सामना करने के लिये आवे उन्हीं को तुम अपने पराक्रम से रोकना, इस विशाल भूमण्डल में विचरते हुए अश्व को तुम अपने वीरोचित गुणों से रक्षा करना, जो सोये हों गिर गये हों जिनके वस्त्र खुल गये हों और जो अत्यन्त भयभीत होकर चरणों में पड़े हों उनको न मारनाा, साथ ही जो अपने पराक्रम की झूठी प्रशंसा नहीं करते उन पुण्यात्माओं पर भी हाथ न उठाना, शत्रुघ्न यदि तुम रथ पर रहो और तुम्हारे विपक्षी रथ हीन हो जायँ तो उन्हें न मारना, यदि पुण्य चाहो तो जो शरणा गत होकर कहें कि हम आपही के हैं उनका भी तुम्हें वध नहीं करना चाहिये, जो योद्धा उन्मत्त मत वाले सोये हुए भागे हुए भय से आतुर हुए तथा मैं आपका ही हूँ ऐसा कहने वाले मनुष्य को मारता है वह नीच गति को प्राप्त होता हैै, कभी पराये धन और परायी स्त्री की ओर चित्त न ले जानाा, नीचों का सङ्ग न करना सभी अच्छे गुणों को अपनाये रहना बड़े बूढों के ऊपर पहले प्रहार न करना पूजनीय पुरुषों की पूजा का उल्लङ्घन न हो इसके लिये सचेष्ट रहना तथा कभी दया भावका परित्याग न करना, गौ ब्राह्मण तथा धर्म परायण वैष्णव को नमस्कार करना, इन्हें मस्तक झुकाकर मनुष्य जहाँ कहीं जाता है वहीं उसे सफलता प्राप्त होती है,
वैष्णव धर्म परायण वाले साधक पवित्र होते है। वैष्णव धर्म क्या है
महाबाहो भगवान् श्री विष्णु सबके ईश्वर साक्षातया सर्वत्र व्यापक स्वरूप धारण करने वाले हैं, जो उनके भक्त हैं वे भी उन्हीं के रूप में सर्वत्र विचरते हैं, जो लोग सम्पूर्ण भूतों के हृदय में स्थित रहने वाले महाविष्णु का स्मरण करते हैं उन्हें साक्षात् महाविष्णु के समान ही समझना चाहिये, जिनके लिये कोई अपना या पराया नहीं है तथा जो अपने साथ शत्रुता रखने वाले को भी मित्र ही मानते हैं वे वैष्णव एक ही क्षण में पापी को पवित्र कर देते हैं, जिन्हें भागवत प्रिय है तथा जो ब्राह्मणों से प्रेम करते हैं वे वैकुण्ठलोक से इस संसार को पवित्र करने के लिये यहाँ आये हैं, जिनके मुख मे भगवान्का नाम हृदय में सनातन श्री विष्णु का ध्यान तथा उदर में उन्हीं का प्रसाद है वे यदि जाति के चाण्डाल हो तो भी वैष्णव ही हैं, जिन्हें वेद ही अत्यन्त प्रिय हैं संसार के सुख नहीं तथा जो निरन्तर अपने धर्म का पालन करते रहते हैं उनसे भेंट होने पर तुम उनके सामने मस्तक झुकाना,
वैष्णव धर्म, वैष्णव का अर्थ
जिनकी दृष्टि में शिव और विष्णु में तथा ब्रह्मा और शिव में भी कोई भेद नहीं है उनके चरणों की पवित्र धूलि मैं अपने शीश चढ़ाता हूँ वह समस्त पापों का विनाश करनेवाली है, गौरीगना तथा महालक्ष्मी इन तीनों में जो भेद नहीं समझते उन सभी मनुष्यों को स्वर्ग लोक से भूमिपर आये हुए देवता समझना चाहिये, जो अपनी शक्ति के अनुसार भगवान्की प्रसन्नता के लिये शरणागतों की रक्षा तथा बड़े बड़े दान किया करता है उसे वैष्णवों में सर्वश्रेष्ठ समझो, जिनका नाम महान् पापों की राशि को तत्काल भस्म कर देता है उन भगवान्के युगल चरणों में जिसकी भक्ति है वही वैष्णव है, जिनकी इन्द्रियाँ वश में हैं और मन भगवान् के चिन्तन में लगा रहता है उनको नमस्कार कर के मनुष्य अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक के सम्पूर्ण जीवन को पवित्र बना लेता है, परायी स्त्रियों को तलवार की धार समझ कर यदि तुम उनका परित्याग करोगे तो संसार में तुम्हें सुयश से सुशोभित ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी, इस प्रकार मेरे आदेश का पालन करते हुए तुम उत्तम योग के द्वारा प्राप्त होने वाले परम धाम को पा सकते हो जिसकी सभी महात्माओं ने प्रशंसा की है,
शेष कथा अगले पोस्ट मै जारी
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