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Ramayan Katha रामायण कथा कौन थे राजा सुमद? सोलह जनपदों के देशों मै अश्वमेघ यज्ञ भगवती कामाचा देवी मंदिर

आगे की कथा शत्रुध्न जी का राजा सुमद की अहिच्छत्रा नगरी मै प्रवेश, रामायण कथा कौन थे राजा सुमद? अहिच्छत्रा नगरी किसकी राजधानी थी


इस प्रकार से आगे आगे बढ़ते हुए शत्रुधन जी घोड़े के साथ अहिच्छत्रा नगरी के पास जा पहुँचे जो नाना प्रकार के मनुष्यो से भरी हुई थी, उसमें ब्राह्मणों तथा अन्यान्य द्विजों का निवास था, अनेकों प्रकार के रत्नों से वह पुरी सजायी गयी थी, सोने और स्फटिक मणि के बने हुए महल तथा गोपुर फाटक उस नगरी की शोभा बढ़ा रहे थे वहाँ के मनुष्य  सब प्रकार से भोग भोगने वाले तथा सदाचार से सुशोभित थे, वहाँ बाण सन्धान करने में चतुर वीर हाथों में धनुष लिये उस पुरी के श्रेष्ठ राजा सुमद को प्रसन्न किया करते थे, शत्रुघ्न ने दूर से ही उस नगरी को देखा, उसके पास ही एक उद्यान था जो उस नगर में सबसे श्रेष्ठ और शोभायमान दिखायी देता था, तमाल और ताल आदि के वृक्ष उसकी सुषमाको और भी बढ़ा रहे थे। यज्ञका घोड़ा उस उपवन के बीच में घुस गया तथा उसके पीछे पीछे वीर शत्रुघ्न भी जिनके चरणकमलों की सेवा में अनेकों धनुर्धर क्षत्रिय मौजूद थे।


भगवती कामाचा देवी मंदिर दर्शन किए शत्रुध्न जी ने


उसमें जा पहुँचे , वहाँ जाने पर उन्हें एक देव मन्दिर दिखायी दिया जिसकी रचना अद्भुत थी, वह कैलास शिखर के समान ऊँचा तथा शोभा से सम्पन्न था, देवताओं के लिये भी वह सेव्य जान पड़ता था, उस सुन्दर देवालय को देख कर श्री रघुनाथ जी के भाई शत्रुघ्न ने अपने सुमति नामक मन्त्री से जो अच्छे वक्ता थे पूछा, शत्रुघ्न बोले मन्त्रिवर बताओ यह क्या है किस देवता का मन्दिर है किस देवताका यहाँ पूजन होता है तथा वे देवता किस हेतु से यहाँ विराजमान हैं मन्त्री सब बातों के जानकार थे उन्होंने शत्रुध्न का प्रश्न सुन कर कहा वीरवर एकाग्रचित्त हो कर सुनो मैं सब बातों का यथावत् वर्णन करता हूँँ, इसे तुम कामाशा देवी का उत्तम स्थान समझो, यह जगत्को एकमात्र कल्याण प्रदान करने वाला है, पूर्व काल में अहिच्छत्रा नगरी के स्वामी राजा सुमद की प्रार्थना से भगवती कामाचा यहाँ विराजमान हुई जो भक्तों का दुःख दूर करती हुई उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करती हैं, वीर शिरोमणि शत्रुघ्न तुम इन्हें प्रणाम करो, मन्त्री के वचन सुनकर शत्रुओं को ताप देने वाले नरश्रेष्ठ शत्रुघ्न ने भगवती कामाक्षा को प्रणाम किया,


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कौन है राजा सूमद? किस तपस्या से प्रसन्न होकर देवी भगवती इस नगरी मै विराजमान है?


और उनके प्रकट होने के सम्बन्ध की सब बातें पूछी, मन्त्रिवर अहिच्छत्रा के स्वामी राजा सुमद कौन हैं? उन्होंने कौन सी तपस्या की है जिसके प्रभाव से ये सम्पूर्ण लोकों की जननी कामाक्षा देवी सन्तुष्ट होकर यहॉ विराज रही हैं,सुमति ने कहा, हेमकूट नाम से प्रसिद्ध एक पवित्र पर्वत है जो सम्पूर्ण देवताओं से सुशोभित रहा करता है, वहाँ ऋषि मुनियों से सेवित विमल नामका एक तीर्थ है, वहीं राजा सुमद ने तपस्या की थी, उनके राज्य की सीमा पर रहने वाले सम्पूर्ण सामन्त नरेशों ने जो वास्तव मे शत्रु थे एक साथ मिलकर उनके राज्य पर चढ़ाई की उस युद्ध में उनके पिता माता तथा प्रजावर्ग के लोग भी शत्रुओं के हाथ से मारे गये थे,


तीन वर्षतक एक पैरसे खड़ा हो राजा सुमद ने किया घोर तपस्या


तब सर्वथा असहाय होकर राजा सुमद तपस्या के लिये उपयोगी विमलतीर्थ में गये और वहाँ तीन वर्षतक एक पैर से खड़ा हो मन ही मन जगदम्बा का ध्यान करते रहे, उस समय उनकी आँखें नासिका के अग्रभाग पर जमी रहती थी इसके बाद तीन वर्ष तक उन्होंने सूखे पत्ते चबा कर अत्यन्त उग्र तपस्या की जित्त का अनुष्ठान दूसरे के लिये अत्यन्त कठिन था, तत्पश्चात् पुनः तीन वर्ष तक उन्होंने और भी कठोर नियम धारण किये जाड़े के दिनों में वे पानी में डूबे रहते गर्मी में पञ्चाग्नि का सेवन करते तथा वर्षा काल में बादलों की ओर मुँह किये मैदान में खड़े रहते थे, तदनन्तर पुनः तीन वर्ष तक वे धीर राजा अपने हृदयान्तर्वी प्राणवायु को रोक कर केवल भवानी के ध्यान में संलग्न रहे उस समय उन्हें जगदम्बा के सिवा दूसरा कुछ दिखलायी नहीं देता था, इस प्रकार जब बारहवाँ वर्ष व्यतीत हो गया तो उनकी भारी तपस्या देखकर इन्द्र ने मन ही मन उस पर विचार किया और भय के कारण वे उनसे डाह करने लगे,


राजा सुमद की तपस्या भंग करने हेतु देवराज इंद्र ने अप्सरा और कामदेव को भेजा


उन्होंने अप्सरा के साथ कामदेव को परिवार सहित बुला कर इस प्रकार आशा दी, सखे कामदेव तुम सबका मन मोहने वाले हो जाओ मेरा एक प्रिय कार्य करो जैसे भी हो सके राजा सुमद की तपस्या में विघ्न डालो, काम देव ने कहा देवराज मुझ सेवक के रहते हुए आप चिन्ता न कीजिये आर्य मैं अभी सुमद के पास जाता हूं, आप देवताओं की रक्षा कीजिये, ऐसा कह कर कामदेव अपने सखा वसन्त तथा अप्सराओं के समूह को साथ लेकर हेमकूट पर्वतपर गया, वसन्त ने जाते ही वहाँ के सारे वृक्षों को फल और फूलों से सुशोभित कर दिया, उनकी ढालियों पर कोयल कूकने तथा भ्रमर गुंजार करने लगे, दक्षिण दिशा को ओर से ठंडी ठंडी हवा चलने लगी, जिसमें कृतमाला नदी के तीर पर खिले हुए लवन कुसुमों की सुगन्ध आ रही थी, इस प्रकार जब समूचे वन में वसन्त की शोभा छा गयी तो अप्सराओं में श्रेष्ठ रम्भा अपनी सखियों से घिरकर सुमद के पास गयी, रम्भा का स्वर किन्नरों के समान मनोहर था, वह मृदङ्ग और पणव आदि नाना प्रकार के वाजे बजाने में भी निपुण थी,


कामदेव ने राजा सुमद को हर प्रकार से रिझाना चाहा परन्तु सफल ना हो सके


राजा के समीप पहुँच कर उसने गाना आरम्भ कर दिया, महाराज सुमद ने जब वह मधुर गान सुना वसन्त की मनोहारिणी छटा देखी तथा मन को लुभाने वाली कोयल की मीठी तान सुनी तो चारों ओर दृष्टि दौड़ायी फिर सारा रहस्य उनकी समझ में आ गया, राजा को ध्यान से जगा देख फूलों का धनुष धारण करने वाले कामदेव ने बड़ी फुर्ती दिखायी, उसने उन के पीछे की ओर खड़ा होकर तत्काल अपना धनुष चढ़ा लिया, इतने ही में एक अप्सरा अपने नेत्र पल्लवों को नचाती हुई राजा के दोनों चरण दबाने लगी, दूसरी सामने खड़ी होकर कटाक्ष पात करने लगी तथा तीसरी शरीर की चेष्टाएँ तरह तरह के हाव भाव प्रदर्शित करने लगी, इस प्रकार अप्सराओं से घिर कर जितेन्द्रियों के शिरोमणि बुद्धिमान् राजा सुमद यों चिन्ता करने लगे, ये सुन्दरी अप्सराएँ मेरी तपस्या मै विघ्न डालने के लिये यहाँ आयी हैं, इन्हें इन्द्र ने भेजा है, ये सबकी सब उनकी आशा के अनुसार ही कार्य करेंगी, इस प्रकार चिन्ता से आकुल हो कर धौर चित्त मेधावी तथा वीर राजा सुमद ने अपने हृदय में अच्छी तरह विचार किया, इसके बाद वे उन से बोले, देवियो आर लोग मेरे हृदय मन्दिर में विराजमान जगदम्बा की स्वरूप हैं, आपलोगों ने जिस स्वर्गीय सुख की चर्चा की है वह अत्यन्त तुच्छ और अनिश्चित है, मैं भक्ति भाव से जिनकी आराधना में लगा हूँ वे मेरी स्वामिनी जगदम्बा मुझे उत्तम वरदान देंगी,


राजा की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने दिया वरदान


जिनकी कृपा से सत्य लोक को पाकर ब्रह्माजी महान् बने हैं वे ही मुझे सब कुछ देंगी क्योंकि वे भक्तों का दुःख दूर करने वाली हैं, भगवती की कृपा के सामने नन्दनवन अथवा सुवर्णमण्डित मेरुगिरि क्या है और वह सुधा भी किस गिनती में है जो थोड़े से पुण्य के द्वारा प्रास होने वाली और दानवों को दुःख में डालने वाली है राजा का यह वचन सुन कर कामदेव ने उन पर अनेकों चाणों का प्रहार किया किन्तु वह उनकी कुछ भी हानि न कर सकाा, वे सुन्दरी अप्सराएँ अपने कुटिल कटाक्ष नूपुरों की झनकार आलिङ्गन तथा चित वन आदि के द्वारा उनके मन को मोह में न डाल सकीं, अन्त में निराश होकर जैसे आयी थीं वैसे ही लौट गयीं और इन्द्र से बोली राजा सुमद की बुद्धि स्थिर है उन पर हमारा जादू नहीं चल सकता, अपने प्रयत्न के व्यर्थ होने की बात सुनकर इन्द्र डर गये, इधर जगदम्बा ने महाराज सुमद को जितेन्द्रिय तथा अपने चरण कमलों के ध्यान में दृढ़ता पूर्वक स्थित देख उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया, उनकी कान्ति करोड़ों सूर्यो के समान थीी, वे अपनी चार भुजाओं में धनुष बाण अकुश और पाश धारण किये हुए थीं,


राजा ने किया देवी भगवती के दर्शन और भक्ति गुण गान किया

माता का दर्शन पाकर बुद्धिमान् राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई, उन्होंने बारम्बार मस्तक झुका कर भक्ति भावना से प्रकट हुई माता दुर्गा को प्रणाम किया, वे बारम्बार राजा के शरीर पर अपने कोमल हाथ फेरती हुई हस रही थीं, महामति राजा सुमद के शरीर में रोमाञ्च हो आया, उनके अन्तःकरण की वृत्ति भक्ति भाव से उत्कण्ठित हो गयी और वे गद्गद स्वर से माता की इस प्रकार स्तुति करने लगे, देवि आपकी जय हो, महा देवि भक्त जन सदा आप की ही सेवा करते हैं, ब्रह्मा और इन्द्र आदि समस्त देवता आप के युगलचरणों की आराधना में लगे रहते हैं आप पाप के स्पर्श से रहित हैं, आपही के प्रताप से अग्निदेव प्राणियों के भीतर और बाहर स्थित होकर सारे जगत्का कल्याण करते हैं, महा देवि देवता और असुर सभी आपके चरणों में नतमस्तक होते हैं, आप ही विद्या तथा आप ही भगवान् विष्णु की महामाया हैं, एकमात्र आप ही इस जगत्को पवित्र करनेवाली हैं, आप ही अपनी शक्ति से इस संसार की सृष्टि और पालन करती हैं, जगत्के जीवों को मोह में डालने वाली भी आप ही हैं सब देवता आप ही से सिद्धि पाकर सुखी होते हैं, माता आप दया की स्वामिनी सब की वन्दनीया तथा भक्तोंपर स्नेह रखने वाली हैं, मेरा पालन कीजिये, मैं आपके चरणकमलों का सेवक हूँ, मेरी रक्षा कीजिये,


देवी भगवती बोली पुत्र अब तुम जो मांगना चाहो मांग लो मुझ से 


सुमति ने कहाइस प्रकार की हुई स्तुति से सन्तुष्ट होकर जगन्माता कामाक्षा अपने भक्त सुमद से जिनका शरीर तपस्या के कारण दुर्बल हो रहा था बोलीं बेटा कोई उत्तम वर माँगो, माता का यह वचन सुनकर राजा सुमद को बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने अपना खोया हुआ अकण्टक राज्य जगन्माता भवानी के चरणों में अविचल भक्ति तथा अन्त में संसार सागर से पार उतारने वाली मुक्ति का वरदान माँगा, कामाक्षा ने कहासुमद तुम सर्वत्र अकण्टक राज्य प्राप्त करो और शत्रुओं के द्वारा तुम्हारी कभी पराजय न हो, जिस समय महायशस्वी श्री रघुनाथ जी रावण को मार कर सब सामग्रियों से सुशोभित अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान करेंगे उस समय शत्रुओं का दमन करने वाले उनके महावीर भ्राता शत्रुघ्न वीर आदि से घिरकर घोड़े की रक्षा करते हुए यहाँ आयेंगे, तुम उन्हें अपना राज्य समृद्धि और धन आदि सब कुछ सौंपकर उनके साथ पृथ्वीपर भ्रमण करोगे तथा अन्त में ब्रह्मा इन्द्र और शिव आदि से सेवित भगवान् श्री राम को प्रणाम करके ऐसी मुक्ति प्राप्त करोगे जो यम नियमों का साधन करने वाले योगियों के लिये भी दुर्लभ है, ऐसा कह कर देवता और असुरों से अभिवन्दित कामाक्षा देवी वहाँ से अन्तर्धान हो गयी तथा सुमद भी अपने शत्रुओं को मार कर अहिच्छत्रा नगरी के राजा हुए, वही ये इस नगरी के स्वामी राजा सुमद हैं, यद्यपि ये सब प्रकार से समर्थ तथा बल और वाहनों से सम्पन्न हैं तथापि तुम्हारे यज्ञ संबन्धी घोडे को नहीं पकड़ेंगे क्यों कि महामाया ने इस बात के लिये इनको भली भाँति शिक्षा दी है,


राजा सुमद जी को सूचना मिला आपके राज्य में एक घोड़ा आया है उस पर पत्र लिखा संदेश सुनाया गया


सुमति के मुख से राजा सुमद का यह वृत्तान्त सुन कर महान् यशस्वी बुद्धिमान् और बलवान् शत्रुघ्न जी बड़े प्रसन्न हुए तथा साधु साधु कहकर उन्होंने अपना हर्ष प्रकट किया, उधर अहिच्छत्रा के स्वामी अपने सेवक से घिर कर सुख पूर्वक राजसभा में विराजमान थे, वेदवेत्ता ब्राह्मण तथा धनधान्य से सम्पन्न वैश्य भी उनके पास बैठे, इससे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी, इसी समय किसी ने आकर राजा से कहा स्वामिन् न जाने किसका घोड़ा नगर के पास आया है जिसके ललाटमें पत्र बँधा हुआ है। यह सुनकर राजा ने तुरंत ही एक अच्छे सेवक को भेजा और कहाजाकर पता लगाओ किस राजा का घोड़ा मेरे नगर के निकट आया है, सेवक ने जाकर सब बात का पता लगाया और महान क्षत्रियों से सेवित राजा सुमद के पास आ आरम्भ से ही सारा वृत्तान्त कह सुनाया श्री राम जी का घोड़ा है,


राजा सुमद पहुंचे शत्रुध्न ही से मिलने


 यह सुनकर बुद्धिमान् राजा को चिरकाल की पुरानी बात का स्मरण हो आया और उन्होंने सब लोगों को आशा दीधन धान्य से सम्पन्न जो मेरे आत्मीय जन हैं वे सब लोग अपने अपने घरोंपर तोरण आदि माङ्गलिक वस्तुओं की रचना करें, इन सब बातों के लिये आशा देकर स्वयं राजा सुमद अपने पुत्रपौत्र और रानी आदि समस्त परिवार को साथ लेकर शत्रुघ्न के पास गये,  शत्रुघ्न ने पुष्कल आदि योद्धाओं तया मन्त्रियों के साथ देखा वीर राजा सुमद आ रहे हैं, राजा ने आकर बड़ी प्रसन्नता के साथ शत्रुघ्न को प्रणाम किया और कहा, प्रभो आज मैं धन्य और कृतार्थ हो गया, आपने दर्शन देकर मेरा बड़ा सत्कार किया, मैं चिरकाल से इस अश्व के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था, माता कामाचा देवी ने पूर्वकाल में जिस बाात के लिये मुझसे कहा था वह आज और इस समय पूरी हुई है, श्री राम के छोटे भाई महाराज शत्रुघ्न जी अब चलकर मेरी नगरी को देखिये यहाँ के मनुष्यों को कृतार्थ कीजिये तथा मेरे समस्त कुल को पवित्र कीजिए, ऐसा कह कर राजा ने चन्द्रमा के समान कान्ति वाले श्वेत गजराज पर शत्रुघ्न और महावीर पुष्कल को चढ़ाया तथा पीछे स्वयं भी सवार हुए, फिर महाराज सुमद की आज्ञा से भेरीऔर पणव आदि बाजे बजने लगे वीणा आदि की मधुर धनि होने लगी तथा इन समस्त वाद्यों की तुमुल ध्वनि चारों ओर व्याप्त हो गयी। 


सुमदके नगरी मै शत्रुध्न जी का स्वागत हुआ

धीरे धीरे नगर में आकर सब लोगों ने शत्रुघ्न जी का अभिनन्दन वीरों से सुशोभित हो अपने अश्व रत्न रत्नको लिये राज मन्दिर में उतरे, उस समय सारा राज भवन तोरण आदि से सजाया गया था तथा स्वयं राजा सुमद शत्रुघ्न जी को आगे कर के चल रहे थे, महल में पहुंचकर उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक अर्घ्य आदि के द्वारा शत्रुघ्न जी का पूजन किया और अपना सब कुछ भगवान् श्री राम की सेवा में अर्पण कर दिया,

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