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भारत में पर्दा घुघट प्रथा का इतिहास। महिलाओं द्वारा अनिवार्य रूप से सर को ढंककर रखना भारत की किसी भी क्षेत्रीय वस्त्र परंपरा का हिस्सा नहीं

भारत में पर्दा घुघट प्रथा का इतिहास। महिलाओं द्वारा अनिवार्य रूप से सर को ढंककर रखना या साड़ी का लंबा घूंघट निकालना ये भारत की किसी भी क्षेत्रीय वस्त्र परंपरा का हिस्सा नहीं रहा है। 

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भारत में स्त्रियों का व्यापक रूप से जो पहनावा रहा है वह साड़ी ही है। साड़ी में घूंघट वाली व्यवस्था भी सिर्फ उत्तर भारत में ही दिखती है क्योंकि यही हिस्सा लंबे समय तक इस्लाम के सर्वाधिक प्रभाव में रहा है। दक्षिण भारत, वर्तमान पूर्वी भारत में या फिर वनवासी क्षेत्रों में चलें जाएं तो आज भी उनके साड़ी पहनने के तरीके में घूंघट या पर्दा करने जैसा कोई तरीका नहीं है। 

हां, रेगिस्तानी क्षेत्र में चेहरे को ढंकने की कोई परिपाटी हो सकती है 


क्योंकि तेज गर्मी और रेतीली आंधियों के बीच रहनेवाले लोग कपड़े भी वैसे ही विकसित करेंगे जो उनके लिए अनुकूल हों। फिर चाहे वह भारत का राजस्थान हो, अरब के देश हों या फिर मिस्र या लीबिया जैसे देश। रेतीले क्षेत्र में निवास करनेवाले लोगों के पहनावे में आपको कुछ न कुछ समानता मिल ही जाएगी। इसका संबंध किसी मजहबी मान्यता से नहीं बल्कि वहां की स्थानीय जरूरतों से है। 

जैसे, कश्मीर में महिलाएं सिर को कपड़े से बांधती हैं। फिर वो हिन्दू हों या मुसलमान इससे फर्क नहीं पड़ता। ये उनका स्थानीय चलन है। और महिलाओं द्वारा सिर बांधने की ये परंपरा केवल कश्मीर में ही नहीं है। हिमाचल, उत्तराखंड, नेपाल के पहाड़ी इलाकों में भी काम काज के समय महिलाएं ठीक उसी तरह से सिर को बांधती हैं जैसे कश्मीर में बांधती हैं। एक छोटा सा कपड़ा होता है जिसे वो एक खास तरीके से सिर पर रखकर उसी से बांध भी लेती हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें किसी धार्मिक उपदेश की जरूरत नहीं होती। उनकी पर्यावरणीय परिस्थितयों में यह एक चलन चला होगा और वह उनकी परंपरा बन गया। 

वस्त्र और भोजन ये स्थानीय परिवेश तथा वातावरण के अनुसार ही विकसित होते हैं। 


अगर ऐसा न होता तो भारत में ही भोजन और वस्त्रों की इतनी प्रचंड विविधता विकसित न होती। हां, धार्मिक साधु संतों ने जरूर अपने लिए कुछ अलग वस्त्र तय कर रखे हैं लेकिन ये भी वातावरण के प्रभाव से मुक्त नहीं है। उनके वस्त्रों में सिर्फ एक बात का ध्यान रखा जाता है कि सिले हुए वस्त्र न हों, जिसका अब अधिकांश साधु संत ही पालन नहीं करते। 

इसलिए भोजन और वस्त्र इसे धर्म और मजहबी मान्यता से तय करने की बजाय अपनी जरूरत, सौंदर्यबोध तथा तत्कालीन वातावरण के हिसाब से ही तय करना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि भोजन और वस्त्र ये किसी भी व्यक्ति का अपना निजी मामला है, लेकिन तभी तक जब तक वह अपनी इच्छा से इसका चयन करता हो। जैसे ही वह किसी समूह या मजहबी मान्यता से इसे तय करना शुरु करता है, सामाजिक रूप से टकराव पैदा होने लगता है। 

दहेज, पर्दा प्रथा और बाल विवाह ये इस्लाम के कारण हिन्दुओं में फैले...जब यह बात कही जाती है तो बहुत सारे मुसलमान ही विरोध करने लगते हैं। कर्नाटक में मुस्लिम लड़कियों द्वारा जारी हिजाब आंदोलन उसी बात पर मोहर है कि पर्दा प्रथा, बाल विवाह और दहेज ये इस्लाम की अनिवार्य बुराइयां जो लंबे समय तक इस्लामिक शासन के कारण भारत के हिन्दुओं में भी फैल गयी।।

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