वैदिक शान्तिपाठ वेद का ज्ञान हिंदी में,Vedic shanti path ved ka gyaan hindi
वैदिक ऋषियों की प्रार्थना के शब्द चाहे जितने विस्तृत और रहस्यपूर्ण हों,उन शब्दों की सम्पूर्ण चेतना में शान्ति का ही नाद सुनाई देता है । वेद के मंत्रों का सर्वोच्च लक्ष्य ही है - सम्पूर्ण शान्ति की खोज । यहाँ जो शान्तिपाठ दिये जा रहे हैं, वे वैदिक समय में ही विश्वशान्ति की चिरन्तन अभीप्सा के पर्याय बन चुके थे।आज भी इनकी प्रासंगिकता स्वयं-प्रमाणित है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते शुक्ल यजुर्वेद की संहिता, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
पूर्ण है वह, पूर्ण है यह पूर्ण से अभिव्यक्त ही यह पूर्ण है । वेद ग्रंथ, वेद पुस्तक, पूर्ण लेकर पूर्ण का अवशिष्ट भी सम्पूर्ण है।
वेद नाम विचार वैदिक शान्तिपाठवेद का ज्ञान, वेद ग्रंथ Vedic shanti path
विचारणीय विषय यह है कि आपस्तम्ब आदि ऋषियोंके अनुयायी सायणाचार्य सदृश मनीषी मन्त्र और ब्राह्मण, दोनोंको ही चिरकालसे सिद्ध वेद मानना है किन्तु कुछ आधुनिक विद्वानोंका मत है कि पहले केवल ब्राह्मण ग्रन्थोंको ही वेद जाता था, बादमें मंत्रोंके लिए भी इस नाम का प्रचलन प्रारम्भ गया; क्योंकि य एवं वेद' सदृश वाक्य ब्राह्मणग्रन्थोंमें ही दिखायी देते हैं।
हमारा विचार उपर्युक्त दोनों मतोंके विपरीत है-पहले 'वेद' शब्द 'विद्या' का ही पर्याय था, किन्तु सभी विद्याओंके मन्त्रगत होनेके कारण मन्त्र काल में ही 'वेद' त्रिविध मंत्रोंका वाचक बन गया। ब्राह्मणकालमें, ब्राह्मणग्रन्थों में 'वेद' शब्दका व्यवहार केवल मन्त्रपरक ही हुआ है। सूत्रकालमें मन्त्र और ब्राह्मण दोनों ही विद्यानिधि होनेके कारण अत्यन्त आदरणीय थे, इसलिए इन दोनोंके लिए 'वेद' शब्दवा प्रयोग होने लगा।
इस प्रकारसे यहाँ तीन पक्ष हैं-
१. मंत्र और ब्राह्मण दोनों ही वेद हैं।
२. ब्राह्मणग्रन्थ ही प्रमुख रूपसे वेद हैं।
३. केवल मंत्र ही मुख्यरूपसे वेद हैं, क्योंकि उन्हींमें समग्र ज्ञानराशि निहित है।
यह पक्ष सर्वाधिक प्राचीन है ।
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इन तीनोंमें कौन-सा पक्ष सर्वाधिक उपयुक्त है ? इसका निर्णय तटस्थ बुद्धि से ही करना उचित है। कहा जाता है कि शुक्ल यजुर्वेदकी माध्यन्दिनी शाखामें पाया 'वेद' शब्द मंत्रपरक ही है--'वेदेन रूपे व्यपिबत सुतासुतौ प्रजापतिः । महीधर ने इसकी व्याख्या यों की है-प्रजापतिने अभिषुत सोम और टपकते हुए दुग्धको वेद (ज्ञान) अथवा त्रयीविद्याके द्वारा अलग-अलग कर पान किया। यहाँ वेद शब्दके दो अर्थ हैं---ज्ञान और नयीविद्या । हमारी दृष्टिमें दूसरा अर्थ ही अधिक उपयुक्त है, क्योंकि मूलपाठमें 'वेद' शब्द आधुदात्त है। उञ्छादिगण में पठित 'वेद' शब्द अन्तोदात्त है; यौगिक है। वृषादिगण में यही.
१. शु० यजु० सं० १७.७६ ।
२. पा० सू० ६.१.१६० ।
३. पा० सू० ६.१.१.२०३ ।
शब्द आधुदात्त तथा रूढ़ है, वहाँ यह 'त्रयी' के अर्थ में ही पाया है । ऋग्वेदके 'यः समिधा१ . मंत्रकी व्याख्या करते हुए सायणाचार्यने 'वेदेन' पदका अर्थ बताया है- 'वेदाध्ययनेन'--वेदाध्ययनके द्वारा । 'तैत्तिरीय संहिता में भी नयीपरक 'वेद' शब्द श्राद्युदात्त ही है। 'अथर्ववेद' में भी त्रयीपरक वेद शब्दका उल्लेख अनेक बार हुआ है। जैसे : 'यस्मिन् वेदा निहिता विश्वरूपास्तेनोदनेनातितरेणातिमृत्यम् यहाँ स्पष्ट ही 'वेदाः' का अर्थ ऋग्वेदादि है। इसी वेदके १९वें काण्डमें भी यह शब्द इसी अर्थमें तोन बार पाया है। ब्राह्मणोंमें भी सर्वत्र त्रयीपरक 'वेद' शब्दका उल्लेख हुआ है। ऋग्वेदके एक ब्राह्मण में--'त्रयो वेदा अजायन्त ऋग्वेद एवाग्नेरजायत यजुर्वेदो वायोः सामवेद आदित्यात् ही है। मंत्र-काल में 'वेद' शब्द मंत्रार्थक था, इसे यास्कने 'कर्मसम्पत्तिमन्त्रो वेदे कहकर और भी स्पष्ट कर दिया है। ये कर्म-सम्पत्ति मंत्र संहिताओंमें हैं या ब्राह्मणोंमें ?
संहिताओंमें । फिर यह सुव्यक्त तथ्य है कि यास्कको 'वेद' का संहितापरक अर्थ ही अभि- मत है। वास्तवमें ज्ञानार्थक अथवा लाभार्थक /विद् धातुसे ही 'वेद' शब्द निष्पन्न हुआ- इसका अर्थ है--विद्या। इस संसारमें विद्यायें अनन्त और सार्वकालिक हैं, इसीलिए आर्यजन वेदको भी नित्य और अनन्त मानते हैं । सभ्यताके उषःकालमें प्रादुर्भूत भारतीय ऋषि विभिन्न विद्याओंमें पारङ्गत थे। उन्होंने धर्म-तत्त्वको प्रत्यक्ष किया था, अतः उनके द्वारा साक्षात्कृत मन्त्र भी तभीसे वेद कहे जाते हैं। इस प्रकारसे, प्रमुख रूपसे 'वेद' शब्दका व्यवहार मंत्रोंके लिए ही होता है । ब्राह्मणोंमें यद्यपि ऋगादि लक्षणोंका अभाव है, तथापि ऋगादिका व्याख्यान करनेके कारण वे भी 'वेद' कह दिए जाते हैं। तात्पर्य यह कि
ब्राह्मणोंके प्रसंगमें 'वेद' नामकी संगति उपचार अर्थात् लक्षणासे ही बैठती है ।
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तैत्तिरीय ब्राह्मण' की यह कथा भी इसीका समर्थन करती है-
'भरद्वाजो ह विभिरायुभिर्ब्रह्मचर्यमुवास । तं ह जीणि स्थविरं शयानम् इन्द्र उप- व्रज्योवाच--'भरद्वाज ! यत्ते चतुर्थमायुर्दद्याम्, किमेनेन कुर्या इति । 'ब्रह्मचर्यमेवैनेन चरेयमिति होवाच । सं ह त्रीन् गिरिरूपानविज्ञातानिव दर्श-याञ्चकार; तेषां हैककस्मान्मुष्टिमाददे । स होवाच भरद्वाजेत्यामन्य । वेदा वा एते, अनन्ता वै वेदाः; एतद्वा एतस्त्रिभिरायुभिरन्ववोचथाः; अथ त इतरदनूक्तमेव । २
ऋषि भरद्वाजने जब अपनी तीन अवस्थायें ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर वेदाध्ययनमें ही अर्पित कर दी, तो उन जीर्ण, वयोवृद्ध और लेटे हुए मुनिके पास इन्द्रदेव स्वयं आये; उन्होंने उनसे पूछा-'भरद्वाज ! यदि मैं तुम्हें चतुर्थ श्रायु और दे दूं, तो उसका कैसा सदुपयोग करोगे ?' भरद्वाज बोला--'ब्रह्मचर्यपूर्वक वेदाध्ययनमें ही उसे भी लगा दूंगा।' तब देवराजने उन्हें अविज्ञात वेदके तीन बड़े-बड़े पहाड़ दिखाये। उनमें प्रत्येकसे एक-एक मुट्ठी अंश लेकर भरद्वाजको दिखाते हुए कहा-'भरद्वाज ! ये वेद हैं; वेद- राशि अनन्त है भरद्वाज ! तुमने तीन अवस्थाओं तक इन्हें पढ़ा, फिर भी यह अपठित. ही है।'
१. निरुक्त १.१.२॥
२. तै० ब्रा० ३.१०.११.३, ४।
'छान्दोग्य ब्राह्मण'' में 'विद्या' शब्दका प्रयोग वेदके अर्थमें हुआ है-'प्रजापति- लॊकानभ्यपतत् ...अग्नेर्ऋचो वायोर्यजूंषि सामान्यादित्यात्स एतां त्रयों विद्यामभ्यपतत् ।'
अन्य स्थलों पर भी ऐसे ही वाक्य प्राप्त होते हैं । इस प्रकारसे यह प्रमाणित हो गया कि हमारा पक्ष सही है । पहले 'वेद' शब्द 'विद्या' का ही दूसरा पर्याय था और मुख्यरूपसे इसका प्रयोग मंत्रोंके लिए होता रहा है । आपस्तम्ब प्रभृति ऋषियोंने जब अपने सूत्रोंकी रचना प्रारम्भ की, तब तक ब्राह्मण ग्रन्थ भी वेद माने जाने लगे थे । इसका प्रमाण है- 'मंत्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयं' वचन । इसी कारण 'मनुस्मृति'३ में आये 'वेद' शब्दसे मन्त्र और ब्राह्मण, दोनोंका ग्रहण किया जाता है। इसी स्मृतिमें, उदिते जुहोति' सदृश ‘ऐतरेय ब्राह्मण'-गत विधियोंको एक श्लोक में 'वैदिकी श्रुति' कहा गया है--और यह उचित भी है।
श्रुति' की सार्थकता-
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'श्रुति' शब्द वेद का ही नामान्तर है, जो सुने जानेके कारण पड़ा । 'श्रुयजीषिस्तुभ्यः करणे' सूत्रसे निष्पन्न 'श्रुति' शब्द श्रवणेन्द्रियपरक है। यद्यपि 'स्त्रियां क्तिन' से ही भाववाचक प्रयोग भी सिद्ध होता है किन्तु यहाँ कर्ममें ही 'क्तिन्' प्रत्यय लगा है। चिर- कालसे ही लोग इस वेदको गुरु-परम्परासे सुनते रहे हैं--अब तक कोई एक भी वैदिक मन्त्रका काल-निर्णय नहीं कर सका है, इसलिए वायु प्रादिके समान अनादि और अपौ- रुषेय रूपमें ही पूर्ववर्ती विद्वान् वेदकी स्तुति करते हैं। मंत्र-कालमें 'श्रुति' शब्द वेदार्थक नहीं था, क्योंकि मंत्र-संहिताओंमें कहीं भी वेदा- र्थक 'श्रुति' शब्द नहीं दिखाई देता। ऐतरेय ब्राह्मण आदि के प्रचारके पहले गाथा-कालमें इसका प्रयोग हुआ। पहले यह एक साधारण प्रवाद मात्र था। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में यही बात इस रूपमें कही गई है,
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