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आर्य समाजी आरोपों का खंडन Arya Samaj denies allegations

आर्य समाजी आरोपों का खंडन 
Arya Samaj aakspep khandan


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अनार्य समाज का प्रश्नन हे की कुर्मपुराण मे अध्याय 37 मे अश्विलता हे याहा पर ईश्वर का अपमान कीया हे तो आईयें देखते हे इन मूर्खो का प्रमाण कितना सहि हे ?


सुचित उपदेश: - दोस्तो आजकल कथा कथित अनार्य समाजी का शंडयंत्र चला आराह हे का 18 पुराण मे अश्विलता हे ओर मिलवाट हे , ओर यह लोग हमेशा से बीच के मुद्दे ही उठाते हे यह इनकी आर्यता के गुण हे , हमारे सनातन धर्म के बंघुओं उनहे समजने के प्रयास करते ही रेहते हे लेकिन उन लोगो मे ना तो धैर्य हे ना विवेक, सबसे बडी विडंबना तो यह की एसे लोगो के हाथ मे शास्र थमा देना बहोत बडा अपराध हे कयोकी जिनको शास्र का श भी ग्यान न हो उनको हम दे तो कया होगा उसपर सभी बुद्घजीव सोच सकते हे ।। वेसे भी सनातन धर्म का विधान हे की शास्र केवल गुरु के निकट होकर समजना चाहिये तो यह लोग आर्य समाज उनका भी अतिक्रमण करके बेठे हे तो सोच ही सकते हो की शंका ओर अंघविश्वास मे कोन पडा हे दोस्तो मेने यह जो भी प्रमाण दीये हे वह अर्थ अलग तरहा से दीये हे ताकी आपको पुरा वर्णन का पता चले लेकिन यह एसे नही सनजा जा सकता आपको उससे पेहसे इसके हींदी अनुवाद का अर्थ पढकर फिर तुलना इस प्रमाण के साथ जोडना होगा तभी महत्व पता चलेगा , आज इन अनार्य समाजी ने एक विषय पर आक्षेप किया हे एक शास्र को लेकर वह कूर्म पुराण को लेकर 37 अध्याय केहते हे की इसमे अश्विलता हे तो उनहे एक बात दीमग मे रखनी आवश्यक हे की जब हम चिकित्सा का ग्यान या शरीर के अंग को लेकेर ग्यान प्राप्त करते हे तो वह कया अश्विलता हे कया ओर कूर्म ग्रंथ को लेकर जो उपदेश हे वह वास्तव मे कुछ ओर हे आज हम जानेगे की इसमे वास्तविक कया संदेश हे ।। अनार्य समाजी का आक्षेप :- शौल्क नंबर 12-16 मे उनका केहना हे की यहा पर अश्विलता ओर भगवान का अपमान कीया गया हे ओर अप शब्द हे या गलत विचार हे आदि आदि नाटक ।।

(शलौक नंबर :- 12 )
एवं स भगवानीशो देवदारुवने हर:।
चचार हरिणा भिक्षां मायया मोहयन् जगत् ।।
मूल अर्थ के साथ :-मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम्‌।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्‌॥ (४:१०)माया को प्रकृति की शक्ति जानो तथा माया के अधीश्वर को 'महेश्वर' समझो; 'उसी' (महेश्वर) के अवयव रूप सम्भूतियों से यह समस्त जगत् व्याप्त है(sweteswar उपनिषद) मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।

संभवः सर्वभूतानां(गीता १४:०३)मूल प्रकृति तो उत्पत्ति-स्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भका स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है।


श:- 15-16-17-18
(15)ऋषीणां पुत्रका ये स्युयुवानो जितमानसा:।
अन्वगच्छन् हृषीकेशं सर्वो कामप्रपीडीता:।।

शलौक -21
दृष्टा नारीकुलं रुद्रं पुत्राणामपि केशवम् ।
मोहयन्तं मुनिश्रेष्ठ: कपों संदधिरे भृशम् ।।
मूल अर्थो मे प्रवेश :- 21 श्लोक -रेफेरेंस
तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापति स मिथुनमुत्पादयते। रायिं च प्रणं चेत्येतौ बहुधा प्रजा: करिष्यत इति प्रश्नोपनिषद १/४

तब पिपलादा ने उनसे कहा कि सृष्टि परब्रह्मा प्रजापति
भगवान ने वास्तव में जीवों की इच्छा करके अर्थात सृष्टि कि इच्छा करके
उन्होंने तप को उत्पन्न किया अर्थात् अपने अंदर की बल को उत्पन्न किया उन्होंने उस तप अर्थात बल से
एक जोड़ी में रायि (पदार्थ) और जीवन शक्ति प्राण का उत्पादन किया, यह सोचकर कि ये दोनों मेरे लिए एकिगत होकर जीव बनाएंगे इससे यही पता चलता हैं सभी जीव प्राण और रायि का संमिलन हैं।
👉 प्राण शक्ति गुरुत्वाकर्षण गति या बल का एकिकृत तत्त्व है जिसे वेदांत में पुरूष तत्त्व भी कहा जाता है

तप:शक्ति, महानता (ज्येष्ठता) तथा ब्रह्मविद्या इसी काल में सन्नहित है । काल ही सभी (स्थावर- जङ्गम विश्व ब्रह्माण्ड) का ईश्वर, समस्त प्रजा का पालक तथा सबका पिता है ॥(१९.५३.८)
पूर्णः कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तम् । स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥(१९.५३.०३

विश्व ब्रह्माण्डरूप भरा हुआ कुम्भ, काल के ऊपर स्थापित है। संत- ज्ञानीजन उस काल को (दिवस-रात्रि आदि) विभिन्न रूपों में देखते हैं। वह काल इन दृश्यमान प्राणियों के सामने प्रकट होकर उन्हें अपने में समाहित कर लेता है । मनीषीगण उस काल को विकारों से रहित आकाश के समान (निर्लेप) बताते हैं अथर्वा वेद।।
जय श्री राम जय श्री कृष्ण हर हर महादेव 

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