Vidur Niti in Hindi, महात्मा विदुर की नीति
श्लोक 1 :
निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानी न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्धान एतत् पण्डितलक्षणम्।।
श्लोक 2 :
न ह्रश्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।
गंगो ह्रद इवाक्षोभ्यो य: स पंडित उच्यते।।
अर्थ: जो अपना आदर-सम्मान होने पर ख़ुशी से फूल नहीं उठता, और अनादर होने पर क्रोधित नहीं होता तथा गंगाजी के कुण्ड के समान जिसका मन अशांत नहीं होता, वह ज्ञानी कहलाता है।।
श्लोक 3 :
अनाहूत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढ़चेता नराधम: ।।
अर्थ: मूढ़ मती वाला व्यक्ति बिना बुलाये ही अंदर चला आता है, बिना कुछ पूछे ही बोलने व कहने लगता है तथा जो विषय पर विश्वास नहीं करना चाहिए, उनपर भी विश्वाश कर लेता है।
श्लोक 4 :
अर्थम् महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा।
विचरत्यसमुन्नद्धो य: स पंडित उच्यते।।
अर्थ: जो अधिक धन संपदा, विद्या तथा ऐश्वर्य सुख आदि को पाकर भी घमंड नहीं करता, वहीं पंडित कहलाने योग्य है।
श्लोक 5 :
एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजन: ।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।।
अर्थ: जो मनुष्य पार कर्म निंदित कर्म करता है और बहुत से लोग उसका मजाक बनाते हैं। मजाक बनाने वाले तो फिर भी बच जाते हैं; परन्तु पापी दोष का भागी होता है।
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श्लोक 6 :
एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रम सराजकम्।।
अर्थ: धनुर्धर बाण संभव है किसी को मारे या न मारे। परन्तु राज्य शासक का एक गलत निर्णय प्रजा के साथ-साथ सम्पूर्ण राष्ट्र को खतरे में डाल सकते हैं।
श्लोक 7 :
एकमेवाद्वितीयम तद् यद् राजन्नावबुध्यसे।
सत्यम स्वर्गस्य सोपानम् पारवारस्य नैरिव।।
अर्थ: महत्मा विदुर जी धृतराष्ट्र को बताते हुए कहते हैं : हे राजन ! जैसे सागर के पार जाने के लिए नाव जहाज आदि ही एकमात्र साधन है, इसी प्रकार से स्वर्ग जाने के लिए सत्य ही एकमात्र साधन है, और कुछ साधन नहीं है, किन्तु आप इसे नहीं समझ रहे हैं।
श्लोक 8 :
एको धर्म: परम श्रेय: क्षमैका शान्तिरुक्तमा।
विद्वैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा।।
अर्थ: एकमात्र धर्म ही परम कल्याण कारक और सुख दायक है, क्षमा ही एकमात्र शांति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। विद्या ही एकमात्र परम संतोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है।
श्लोक 9 :
द्वाविमौ पुरुषौ राजन स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: ।
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान्।।
अर्थ: अब देव विदुर कहते हैं : की २ प्रकार के जीव स्वर्ग में उचित स्थान पाते हैं – शक्ति मान होने से भी क्षमा करने वाला हो और निर्धन होने पर भी दान करते रहने वाला हो ।
श्लोक 10 :
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम नाशनमात्मन: ।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
लोभ, क्रोध करना, अर्थ , काम मै पड़े रहना – ये सब आत्मा का नाश करने वाले है, नरक के ३ दरवाजे हैं, इन सब का त्याग देना कर चाहिए।
श्लोक 11 :
पन्चाग्न्यो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत: ।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ।।
अर्थ: आत्मा,पिता, माता, अग्नि और गुरु – इन ५ विभूतियों को सेवा अवश्य करनी चाहिए।
श्लोक 12 :
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
अर्थ: उन्नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, डर, क्रोध,आलस्य तथा जल्दबाजी में कार्य करना, इन ६ दुर्गुणों का त्याग कर देना चाहिए।
श्लोक 13,
षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः।।
अर्थ: गुणों में दोष दिखाने की प्रवृति, क्षमा, सत्य, दान, कर्मण्यता, और धैर्य – यह ६ गुणों का त्याग बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए।
श्लोक 14 :
षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योधिगच्छति।
न स पापैः कुतो नर्थैंर्युज्यते विजेतेँद्रियः।।
अर्थ: ६ शत्रु जीवात्मा के जो नित्य होते है, – काम वासना, क्रोधित, लोभ लालच, मोह माया, मद तथा मात्सर्य , इन सभी को जो वश में कर लेता है। वह मनुष्य कभी अनित्य या पाप कर्म नहीं करता है,
ved ke bare mein- sanatan dharm,
श्लोक 15 :
ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्याशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुः खिताः।।
अर्थ: असंतोषी, क्रोधी, और ईर्ष्या, घृणा करने वाले सदा स शंकित और दूसरों के कृपा पात्र बन कर भाग्य पर जीवन-निर्वाह न करने वाला – ये ६ सदैव दुखी रहते हैं।
श्लोक 16 :
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति
प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च।।
अर्थ: इन्द्रिय नीग्रह, शास्त्रज्ञान, बुद्धि, कुलीन पराक्रम, अल्प भासी आदि शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता – यह ८ गुण पुरुष की प्रसिद्धि बढ़ाते है।
श्लोक 17 :
प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि-
दुद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः।
दुःखं च काले सहते महात्मा
धुरन्धरस्तस्य जिताः सप्तनाः।।
अर्थ: जिस प्रकार से धीर पुरुष आने पर भी दुखी नहीं होता, और सावधानी पूर्वक समस्या का समाधान करता है, उसके शत्रु उसे पराजित नहीं कर सकेंगे,
श्लोक 18 :
यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं
न पौरुषेणापि विकत्थतेन्यान।
न मूर्छित: कटुकान्याह किञ्चित्
प्रियं सदा तं कुरुते जानो हि।।
अर्थ: कभी उद्यंडका- वेष नहीं बनना चाहिए, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की डींग नही हाकना चाहिए, क्रोध से व्याकुल होने पर भी अपशब्द नहीं बोलना चाहिए, एयेसे मनुष्य को लोग अधिक सम्मान करते है।
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श्लोक 19 :
अनुबंधानपक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु।
सम्प्रधार्य च कुर्वीत न वेगेन समाचरेत्।
अर्थ: कोई भी कार्य करने से पूर्व कार्य का उद्देश्य को अवश्य ही समझ लेना चाहिए। खूब विचार कर कार्य करना चाहिए, जल्दबाजी मै कोई कार्य नहीं करना चाहिए इस से नुकसान उठाना पड़ जाता है,
श्लोक 20 :
भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो वडिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रस्ते नानुबन्धमवेक्षते।।
अर्थ: मछली चारे से ढकी हुई लोहे की नुकीली कंटी को लोभ में पड़कर निगल जाती है, वे इस से होने वाले परिणाम पर विचार नहीं कर पाती है
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