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Valmiki Ramayana (Sanskrit) Hindi text, GitaPress Ramayana. Sundara Kanda (सुन्दरकाण्ड) Sarg 1 Pratham, Shlok 1-25, - श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्

  श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम् Valmiki Ramayana (Sanskrit) Hindi text, GitaPress Ramayana. Sundara Kanda (सुन्दरकाण्ड) Sarg 1 Pratham, Shlok 1-25, 


तदनन्तर शत्रुदमनकर्ता हनुमान जी, सीता जी का पता लगाने के लिये, आकाश के उस मार्ग से, जिस पर चारमा लोग चला करते हैं, जाने को तैयार हुए ॥ १॥ 


इस प्रकार के दुष्कर कर्म करने की इच्छा कर, सिर और बाल उठा कर, वृषभ की तरह, प्रतिद्वन्द्वीरहित अथवा विघ्न-बाधा रहित, हनुमान जी शोभायमान हुए ॥ २॥ 

Valmiki-Ramayana-(Sanskrit)-text


अथ वैडूर्यवर्षेषु शाहलेषु महाबलः । धीरः सलिलकल्पेषु विचचार यथासुखम् ॥३॥ 

धीर वीर हनुमान जी, समुद्र जलवत् अथवा पञ्चे की तरह हरी रंग की दूब के अपर, यथासुख विचरने लगे ॥ ३ ॥  

 द्विजान्वित्रासयन्धीमानुरसा पादपान्हरन् । मृगांश्च सुबहून्निनन्प्रवृद्ध इव केसरी ॥ ४ ॥

 उस समय बुद्धिमान् हनुमान जी, पतियों को त्रस्त करते, अपनी छातो की टक्कर से अनेक वृक्षों को उखाड़ते, और बहुत से मृगों को मारते हुप. ऐसे जान पड़ते थे, जैसे बड़ा भयङ्कर सिंह देख पड़ता हो ॥४॥ 

नीललोहितमाञ्जिष्ठपत्रवर्णैः सितासितैः । स्वभावविहितैश्चित्रैर्धातुभिः समलङ्कृतम् ॥ ५॥ कामरूपिभिराविष्टमभीक्ष्णं सपरिच्छदैः । यक्षकिन्नरगन्धर्वैर्देवकल्पैश्च पन्नगैः ॥६॥ स तस्य गिरिवर्यस्य तले नागवरायुते । तिष्ठन्कपिवरस्तत्र हृदे नाग इवाबभौ ॥ ७॥ 

नीली, लाल, मजीठी और कमल के रंग को तथा सफेद एवं काली रंग की रंग विरंगी स्वभावसिद्ध धातुओं से भूषित, विविध भौति के प्राभूषणों और वस्त्रों को पहिने हुए और अपने अपने परिवारों सहित देवताओं की तरह काम रूपी यक्ष, गन्धर्व, किन्नर 

और सर्पो से सेवित तथा उत्तम जाति के हाथियों से व्याप्त, उस महेन्द्र पर्वत की तलैटी में, वानरश्रेष्ठ हनुमान जी, सरोवरस्थित हाथी की तरह शोभायमान हुए ॥ ५॥६॥ ७॥ 

स सूर्याय महेन्द्राय पवनाय ?स्वयंभुवे । भूतेभ्यश्चाञ्जलिं कृत्वा चकार गमने मतिम् ॥ ८॥ १ स्वयंभुवे-चतुमुखाय । । गो० ) २ भूतेभ्यः-देवयोनिभ्यः । ( गो०) 


हनुमान जी ने लूर्य, इन्द्र, वायु, ब्रह्मा तथा अन्यान्य देवताओं को नमस्कार कर के वहाँ से प्रस्थान करना चाहा ॥ ८ ॥ 

अञ्जलि प्राङ्मुख : कुर्वन्पवनायात्मयोनये । ततोऽभिववृधे गन्तुं दक्षिणो दक्षिणां दिशम् ॥ ९॥ 

तदनन्तर वे पूर्व मुख हो, हाथ जोड़ अपने पिता पवनदेव को प्रणाम कर, दक्षिण दिशा की ओर जाने को अग्रसर हुए ॥६॥ 

वानरश्रेष्ठों ने देखा कि, श्रीरामचन्द्र जी के कार्य की सिद्धि के लिये, समुद्र नांघने का निश्चय किये हुए हनुमान जी का शरीर, ऐसे बढ़ने लगा जैसे पूर्णमासी के दिन समुद्र बढ़ता है ॥ १० ॥ 

रनिष्प्रमाणशरीरः सल्लिलकयिषुरर्णवम् । बाहुभ्यां पीडयामास चरणाभ्यां च पर्वतम् ॥ ११ ॥ 

हनुमान जी ने समुद्र फांदने के समय अपना शरीर निर्मर्याद बढ़ाया और अपनी दोनों भुजाओं और चरणों से पर्वत को ऐसा दवाया कि, ॥ ११ ॥ 

स चचालाचलश्चापि मुहूर्त कपिपीडितः। तरूणां पुष्पिताग्राणां सर्वं पुष्पमशातयत् ॥ १२ ॥ 

दवाने से एक मुहूर्त तक वह अव त पर्वत चलायमान हो गया और उसके ऊपर जो पुष्पित वृक्ष थे, उन वृक्षों के सब फूल झड़ कर गिर पडे ॥ १२ ॥ 

 सुंदर काण्ड हिंदी मै, सुंदर काण्ड चौपाई, sundra kanda,

तेन पादपमुक्तेन पुष्पौघेण सुगन्धिना । सर्वतः संवृतः शैलो बभौ पुष्पमयो यथा ॥ १३ ॥

 वृक्षों से झड़े हुए सुगन्धयुक्त फूलों के ढेरों से वह पर्वत ढक गया और ऐसा जान पड़ने लगा, मानों वह समस्त पहाड़ फूलों ही का है ॥ १३ ॥ 

सेन चोत्तमवीर्येण पीड्यमानः स पर्वतः। सलिलं सम्प्रसुस्राव मदं मत्त इव द्विपः ॥ १४ ॥ 

जब वीर्यवान् कपिप्रबर हनुमान जी ने उस पर्वत को बाया, तब उससे अनेक जल की धार निकल पड़ी। वे धारें ऐसी जान पड़नी थीं, मानों किसी मतवाले हाथी के शरीर से मद बहता हो ॥ १४॥ 

पीड्यमानस्तु बलिना महेन्द्रस्तेन पर्वतः ।। ।। १रीतीनिवर्तयामास काञ्चनाञ्जनराजतीः ॥ १५ ॥ 

बलवान हनुमान जी के खाने से उस महेन्द्राचल पर्वत के चारों ओर धातुओं के बह निकलने से ऐसा जान पड़ता था, मानों पिघलाए हुए सोने और चांदी की रेखाएँ खिंची हों। अथवा, पीली, काली और सफेद लकीरें खिंच रही हो ॥ १५ ॥   

बलवान हनुमान जी के खाने से उस महेन्द्राचल पर्वत के चारों ओर धातुओं के बह निकलने से ऐसा जान पड़ता था, मानों पिघलाए हुए सोने और चांदी की रेखाएँ खिंची हों। अथवा, पीली, काली और सफेद लकीरें खिंच रही हो ॥ १५ ॥ 

मुमोच च शिलाः शैलो विशालाः समनःशिलाः। मध्यमेनार्चिषा जुष्टो धूमराजीरिवानलः ॥ १६ ॥ 

वह पर्वत मनसिलयुक्त बड़ी बड़ी शिलाएं गिराने लगा। उस समय ऐश जान पड़ा, मानों बीच में तो आग जल रही हो और चारों ओर से धुआं निकल रहा हो ॥ १६ ॥ 

 र्गिरिणा पीड्यमानेन पीड्यमानानि सर्वतः । गुहाविष्टानि भूतानि बिनेदुर्विकृतैः स्वरैः ॥ १७॥ 

हनुमान जी के दबाने से उस पर्वत को गुफाओं में रहने वाले जीवजन्तु विकराल शब्द करने लगे ॥ १७ ॥ 

स महान्सत्त्वसन्नादः शैलपीडानिमित्तजः । पृथिवीं पूरयामास दिशश्चोपवनानि च ॥ १८ ॥ 

पर्वत के दबने के कारण उन जीव जन्तुओं का ऐसा घोर शब्द हुश्रा कि, उससे संपूर्ण पृथिवी, दिशा, और जंगल भर गये ॥ १८ ॥ 

शिरोभिः पृथुभिः सर्पा व्यक्तस्वस्तिकलक्षणैः। वमन्तः पावकं घोरं ददंशुर्दशनैः शिलाः ॥ १९ ॥ 

स्वस्तिक (शुभ ) चिन्हों से चिन्हित फनधारो बड़े बड़े सर्प, जो उस पर्वत में रहा करते थे, क्रुद्ध हुए और मुख से भयङ्कर भाग उगलते हुए, शिलाओं को अपने दांतों से काटने लगे ॥ १६ ॥ 

तास्तदा सविषेर्दष्टाः कुपितैस्तैर्महाशिलाः । जज्वलुः पावकोद्दीप्ता बिभिदुश्च सहस्रधा ॥ २० ॥ 

क्रुद्ध हो कर विषधरों द्वारा दांतों से काटी हुई वे बड़ी बड़ी शिलाएँ जलने लगीं और उनके हज़ारों टुकड़े हो गये ॥ २०॥ 

यानि चौषधजालानि तस्मिञ्जातानि पर्वते । विषनान्यपि नागानां न शेकुः शमितुं विषम् ॥ २१ ॥ 

यद्यपि उस पर्वत पर सर्पविषनाशक अनेक जड़ी बूटियां थीं, तथापि वे भी उस विष को शान्त न कर सकीं ॥ २१ ॥ 

भिद्यतेऽयं गिरितिरिति मत्वा तपस्विनः । जस्ताविद्याधरास्तस्मादुल्पेतुः स्त्रीगणैः सह ॥ २२॥ 

जब हनुमानजी ने पर्वत को दबाया, तब उस पर्वत पर वसने वाले तपस्वी और विद्याधर लोग घबड़ा कर अपनी अपनी स्त्रियों को साथ ले वहाँ से चल दिथे ॥ २२ ॥ 

पानभूमिगतं हित्वा हैममासवभाजनम् । पात्राणि च महार्हाणि करकांश्च हिरण्ययान् ॥ २३ ॥

 उस समय वे लोग ऐसे डरे कि, शराब पीने की जगह पर जो सोने की बैठकी और बड़े बड़े मूल्यवान सुवर्णपात्र, सुवर्ण के करवे थे उन्हें वे वहीं छोड़ कर, चल दिये ॥ २३ ॥ 

लेह्यानुच्चावचान्भक्ष्यान्मांसानि विविधानि च । आषभाणि च चर्माणि खड्गांश्च कनकत्सरून् ॥ २४॥ 

चटनी आदि विविध पदार्थ और खाने के योग्य तरह तरह के मांस, साँवर के चमड़े की बनी ढालें तथा सेाने को मंठ की तल वारें जहाँ की तहाँ छोड़, वे लोग जान लेकर, प्राकाशमार्ग से चल दिये ॥ २४ ॥ 

र कृतकण्ठगुणाः क्षीबा रक्तमाल्यानुलेपनाः । रक्ताक्षाः पुष्कराक्षाश्च गगनं प्रतिपेदिरे ॥ २५ ॥ 

गले में सुन्दर पुष्पहारों को पहिने हुए तथा शरीर में अच्छे अंगराग लगाये अरुण एवं कमल नेत्रों से युक्त विद्याधरों ने आकाश में जा कर दम ली ॥ २५॥ 

Avidhya Kya Hai? 

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