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भारतीय साहित्य में जल -.प्रकृति - पर्यावरण संरक्षण के लिए गहन चिंतन किया गया है! जल को बचाने के लिए आप क्या क्या प्रयास करेंगे

हिंदू धर्म के साहित्य में प्रकृति संरक्षण से संबंधित अनेकों विषयों पर गहन चिंतन किया गया आज पूरी दुनिया के देश प्रकृति संरक्षण करने की बात कहते हैं, भारतीय साहित्य में जल -.प्रकृति - पर्यावरण संरक्षण के लिए गहन चिंतन किया गया है! जल को बचाने के लिए आप क्या क्या प्रयास करेंगे,


महाभारत काल में भी कृषि के लिए वर्षा का जल अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता था।

हिंदू धर्म के साहित्य में प्रकृति संरक्षण से संबंधित अनेकों विषयों पर गहन चिंतन किया गया आज पूरी दुनिया के देश प्रकृति संरक्षण करने की बात कहते हैं और अपने देशों में इससे संबंधित कानून व्यवस्था बनाते रहते हैं वर्तमान समय में यदि प्रकृति और प्रकृति संसाधनों का संरक्षण न किया गया तो यह पृथ्वी मनुष्य का रहने योग्य नहीं रह जाएगी आज के समय में भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में पीने का पानी की विकट समस्या है भूमिगत जल स्तर बहुत नीचे जा रहा है नदियों का जल दूषित होने के कारण पीने योग्य नहीं है भारतीय साहित्य में जल संरक्षण के लिए गहन चिंतन किया गया है.

इस वर्णन के अनुसार किसान को उचित समय में (वर्षा को ध्यान में रखते हुए) कृषि करनी चाहिए। महाभारत के शान्ति पर्व में जाजलि तथा तुलाधार के मध्य वर्षा के महत्व तथा जल चक्र के विषय में संवाद मिलता है जिसमें तुलाधार का कथन है कि सूर्य से जल की वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न उपजता है और अन्न से सम्पूर्ण प्रजा जन्म और जीवन धारण करती है तथा यज्ञ भी अत्यन्त शुभदायी है।

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पद्य पुराण के सृष्टि खंड अध्याय 42 में और गरुड़ पुराण, ब्रह्म पुराण इसके अतिरिक्त महाभारत जल को बचाने के लिए आप क्या क्या प्रयास करेंगे
Jal Ka Jivan Mai Mahatva aur Jal Sanrakshan, जल की रूपरेखा


दूषित जल से स्नान करना कपड़े धोना बर्तन धोना आदि सब वर्जित है मित्रों यह धार्मिक आज्ञाऐ आज के समय में भी बहुत ही सार्थक है आज इन कथनो के अनुपालन करने में भारतीय सरकार द्वारा नदियों के जल दूषित व विषेला न हो, नदियों के जल में कचरा ना फेंका जाए वर्षा के जल को संरक्षित करके भूमिगत स्टोर किया जाए देशवासियों को पीने योग्य शुद्ध पेयजल मिले इत्यादि कई योजनाएं चलायी जाती जाती है 


वेद पुराण महाभारत आदि ग्रंथों में प्रकृति पर्यावरण जल वृक्ष वनस्पति आदि को संरक्षित करने की बात कही गई है आज कोई सौ 50 सालों से ही वैज्ञानिक इस विषय को सोच पाए हैं पद्य पुराण के सृष्टि खंड अध्याय 42 में और गरुड़ पुराण, ब्रह्म पुराण इसके अतिरिक्त महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 141 में महर्षि वेदव्यास द्वारा जल के महत्व के साथ-साथ जल के संरक्षण और जल संचय कर के रखने का उल्लेख किया गया जल ही जीवन का आधार है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि पोखर को गाया नाहर आदि खुदवा कर उसमें वर्षा का जल संग्रहित करें नदियों जलाशयों में कचरा न फेके और इन्हे दुषित व विषेला न करे.


जल ही जीवन है प्रस्तावना,

इसी प्रकार कृषि पराशर द्वारा भी कृषि के सन्दर्भ में वर्षा का ज्ञान होना आवश्यक बताया गया है। सूर्य की किरणें वर्षा का सृजन करने वाली है इस सन्दर्भ में मत्स्य पुराण में वर्णन मिलता है। इस समस्त विवरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में कृषि प्रक्रिया अत्यन्त विकसित थी। कृषि प्रक्रिया में उत्पन्न धान्य प्राणियों का आहार योग्य अन्न कहलाता है। मनुष्य अपने दैनिक आहार के लिये धान्य पर ही आश्रित है। कृषकों को धान्य की


यस्तु वर्षमविज्ञाय क्षेत्रं कर्षति कर्षकः । हीनः पुरूषकारेण सस्यं नैवाश्नुते ततः ।। महा. भा. शान्ति पर्व 139.79

यज्ञात् प्रजा प्रभवति नभसोऽम्भ इवामलम् अग्नौ प्रास्ताहुतिर्तद्भन्नादित्यमुपगच्छति।। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः | तस्मात् सुनिष्ठिताः पूर्वे सर्वान् कामांश्च लेभिरे।। अकृष्टपच्या पृथिवी आशीर्भिर्नीरूधोऽभवन । महा. भा. शान्ति पर्व 263.11-12

वृष्टिमूलाकृषिः सर्वा वृष्टिमूलं च जीवनम् । तस्मादादौ प्रत्यत्नेन वृष्टिज्ञानं समाचरेत् ।। कृषि. परा. 10

अमृता जीवना सर्वा रश्मयो वृष्टि सर्जनाः। मत्स्य. पु. 128.20


पूर्वावस्था, फसल के प्रकार भूमि के अनुसार और धान्य के गुण तथा भेदों का सम्यक ज्ञान होना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में महाभारत के अनुशासन पर्व में ब्रह्मदेव द्वारा वसिष्ठ के समक्ष बीज के विकास के क्रम काविस्तृत उल्लेख किया गया है।


महाभारतकार ने महाभारत में नाना प्रकार के धान्यों का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया है। इस सन्दर्भ में महर्षि व्यास द्वारा शुकदेव के प्रति वानप्रस्थ आश्रम की महिमा के वर्णन के प्रसङ्ग में धान, जौ, नीवार आदि अन्न का उल्लेख किया गया है। इस सन्दर्भ में अनुशासन पर्व में राजा कुशिक तथा उनकी पत्नी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा में नाना प्रकार के अन्नों, फलों आदि द्वारा निर्मित व्यंजन लाये जाने का उल्लेख मिलता है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में कृषि द्वारा नाना प्रकार के धान्य होते थे।



इसी सन्दर्भ में शान्ति पर्व में अहिंसा की प्रशंसा करते हुए नारद मुनि द्वारा सांवा चावल, सूर्यपर्णी (जङ्गली उड़द) तथा शाक (सुवर्जला) आदि का उल्लेख किया गया है। इस समस्त विवरण से ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत काल में कृषि प्रक्रिया अत्यन्त विकसित थी तथा इससे नाना प्रकार के धान्य प्राप्त किये जाते थे।


बीजतो ह्यङ्करोत्पत्तिरङ्गकुरात् पर्णसम्भवः । पर्णान्नालाः प्रसूयन्ते नालात् स्कन्धः प्रवर्तते।। क्षेत्रबीजसमायोगात् ततः सस्यं समृद्धयते।। महा. भा. अनु. पर्व. 6.4-8

अफालकृष्टं ब्रीहियवं नीवारं विघसानि च। हवीषिं सम्प्रयच्छेत मखेष्वत्रापि पञ्चसु ।। महा. भा. शान्ति पर्व 244.7

मांसप्रकारान् विविधा शाकानि विविधानि च। वेसवारविकारांश्च पानकानि लघूनि च।।

सर्वमाहारयामास राजा शापभयात् ततः । महा. भा. अनु. पर्व 53.17-20

श्यामाकमशनं तत्र सूर्यपर्णी सुवर्चला। तिक्तं च विरसं शाकं तपसा स्वादुतां ग्राम ।। महा. भा. शान्ति पर्व 272.4



भारतीय साहित्य में पर्यावरण चिंतन


बीज वपन कृषि विज्ञान का मेरूदण्ड कहलाता है। जिस प्रकार भारतीय संस्कृति में गर्भाधान संस्कार का विशेष महत्व है उसी प्रकार कृषि विज्ञान में बीज वपन का महत्व है। उत्तम कृषि का प्रथम संस्कार कर्षण तथा द्वितीय कर्म, वपन होता है। मनुस्मृति में कृषि करने वाले कृषक का प्रथम गुण 'बीजनामुप्तिविद' कहलाता है। ऋग्वेद में बीज की उत्पत्ति के लिये 'वपन' शब्द आया है। कृषि पराशर के अनुसार, भूमि में बीज वपन की दो विधियां हैं –

 (1.) वपन (2.) रोपण


संस्कृत वाङ्मय में अनेक ग्रन्थों में बीज के वपन के लिये निम्नलिखित बिन्दुओं का वर्णन मिलता है


वपन बीज संग्रह

बीजवपन काल

वपन विधि

अनुपयुक्त बीज


वपन बीज संग्रह - कृषि कर्म में बीज का संग्रह करना बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। कृषि विज्ञान के अनुसार वपन के लिये बीजों का संग्रह यथासमय कर लेना चाहिए। सामान्यतः फसल से प्राप्त अन्न को बाजार तथा घर में उपयोग हेतु निकालने के बाद थोड़ा अन्न के बीजों का संग्रह कर बचा लिया जाता है। यही बीज बोकर नयी फसल उत्पन्न होती है। अतः बीज संग्रह अत्यन्त अनिवार्य है। इस सन्दर्भ में बीज के संग्रह को महत्वपूर्ण बताते हुए ब्रह्मदेव द्वारा नारायण के प्रति कथन है कि आप ही जगत् के सभी बीजों के संग्रहकर्ता हैं। मनु. स्मृ. (मनवथमुक्तावली) 9.330 ऋ. वे. 10.64.13


धान्यबीजानां वपनं भवति काण्डबीजानां रोपणञ्च ।कृषि परा. 3.103  

देवानामपि देवस्त्वं सर्वविद्यापरायणः।। जगद्वीज समाहार जगतः परमो ह्यसि ।। महा. भा. अनु. पर्व. 13. पृ. 5488


महाभारत शान्ति पर्व भीष्म द्वारा कहा गया है कि आपत काल मै मनुष्य को भोजन के अन्न मै से बीज को संरक्षित कर लेना चाहिए, यह आपदा के समय से उबारता है।  महर्षि व्यास द्वारा भी कहा गया है कि बीज से बीज की उत्पत्ति होती है। कृषि पराशर में भी बीज संग्रह का उल्लेख मिलता है, यथा

माघे वा फाल्गुने मासि सर्वबीजानि संहरेत् । शोषयेदातपे सम्यक् नेवाधो विनिधापयेत्।।१७५।।


(Krishi-paraashara) कृषिपराशर


बीज वपन काल – कृषि विज्ञान के अनुसार वपन के लिये उपयुक्त काल वह है जिसमें उप्त बीज को वायु, जल, अग्नि द्वारा पोषण प्राप्त कर पृथ्वी गर्भ में धारण करती है। अतः सभी औषधियों का वपन काल और कृषिकाल ज्योतिष चक्र के अधीन होता है। कृषि वैज्ञानिक भी वपन काल के महत्व को स्वीकार करते हैं। इस


बीजं भक्तेन सम्पाद्यमिति धर्मविदोविदुः । अत्रैतच्छम्बरस्याहुमहामायस्य दर्शनम् ।। महा. भा. शान्ति पर्व 130.33

बीजाद् बीजं तथैव च ।। महा. भा. शान्ति पर्व 305.21



सन्दर्भ में महाभारत के शान्ति पर्व में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के समक्ष पृथ्वी के दस गुणों का उल्लेख किया गया है, जिसमें से पृथ्वी का एक गुण बीज को अङ्कुरित करने की शक्ति है। महाभारतकार ने महाभारत में अनेक स्थानों पर कथानक को स्पष्ट करने हेतु प्रकारान्तर से बीज वपन काल का उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में द्रोण पर्व के कर्ण द्वारा कृपाचार्य के प्रति कथन है कि "शूरवीर वर्षाकाल के मेघों की तरह सदा गरजते हैं और ठीक ऋतु में बोये हुए बीज के समान शीघ्र ही फल भी देते हैं। यहां महाभारतकार ने साङ्केतिक रूप में बीज वपन हेतु उचित काल का उल्लेख किया है। इसी प्रकार कर्ण पर्व में युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन के प्रति क्रोधपूर्ण वचन है कि जिस प्रकार बोया हुआ बीज समय पर मेघ द्वारा की हुई वर्षा की प्रतीक्षा में जीवित रहता है, उसी प्रकार हम सभी ने तेरह वर्षों तक सदा तुम पर ही आशा लगाकर जीवन धारण किया है।


इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि महाभारत काल में कृषि कर्म में बीज वपन काल को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता था। महाभारतकार ने कथानक के प्रवाह में अनायास ही कृषि सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख कर डाला है। इस सन्दर्भ में उद्योग पर्व में श्रीकृष्ण की यात्रा का उल्लेख वैशम्पायन द्वारा जनमेजय के प्रति किया गया है जिसमें अगहनी धान के मनोहर खेतों के लहलहाने का वर्णन मिलता है। जिससे यह प्रतीत होता है कि महाभारत काल में धान की फसल अगहन के मास में लगभग तैयार हो जाती थी।


भूमेः स्थैर्य गुरूत्वं च काठिन्यं प्रसवार्यता। गन्धो गुरूत्वं शक्तिश्च संघातः स्थापना धृतिः ।। महा. भा. शान्ति पर्व. 255.3 2

शूरा गर्जन्ति सततं प्रावृषीव बलाहकाः ।। फलं चाशु प्रयच्छन्ति बीजमुप्तमृताविव। महा. भा. द्रोण, पर्व. 158.25

ॐ त्रयोदेशेमा हि समाः सदा वयं त्वामन्वजीविष्म धनंजयाशया।

काले वर्ष देवमिवोप्तबीजं तन्नः सर्वान् नरके त्वं न्यमज्जः।। महा. भा. कर्ण पर्व. 68.9

स शालिभवनं रम्यं सर्वसस्यसमाचितम् ।

सुखं परमधर्मिष्ठमभ्यगाद् भरतर्षभ।।। महा. भा. उद्यो. पर्व. 84.15

दोस्तों प्राकृतिक संरक्षण से संबंधित गहन चिंतन आदि विषय दुनिया के किसी भी धार्मिक साहित्य में नहीं मिलता है ऐसा चिंतन और शोध सिर्फ भारतीय धार्मिक साहित्य में ही मिलता है इसलिए अपनी संस्कृति पर गर्व करें 



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