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साधनपाद-२, योग दर्शन सूत्र 1 से 5 तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, योग दर्शन का महत्व योग दर्शन क्या है yog darshan sadhanpaad sanskrit hindi anuwaad

साधनपाद-२, योग दर्शन सूत्र 1 से 5 तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, योग दर्शन का महत्व, योग दर्शन क्या हैyog darshan sadhanpaad sanskrit hindi anuwaad


सम्बन्ध- पहले पादमें योगका स्वरूप, उसके भेद और उसके फलका संक्षेपमें वर्णन किया गया। साथ ही उसके उपायभूत अभ्यास और वैराग्यका तथा ईश्वरप्रणिधान आदि दूसरे साधनोंका भी वर्णन किया गया, किंतु उसमें बतलायी हुई रीतिसे निर्बीज समाधि वही साधक प्राप्त कर सकता है, जिसका अन्तःकरण स्वभाव से ही शुद्ध है एवं जो योगसाधनामें तत्पर है। अतः अब साधारण साधकोंके लिये क्रमशः अन्तःकरणकी शुद्धिपूर्वक निर्बीज-समाधि प्राप्त करनेका उपाय बतलानेके लिये साधनपाद नामक दूसरे पादका आरम्भ किया जाता है


तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥१॥


तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि-तप-स्वाध्याय और. ईश्वर-शरणागति ये तीनों; क्रियायोगः क्रियायोग हैं।


व्याख्या- (१) तप- अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यताके अनुसार स्वधर्मका पालन करना और उसके पालनमें जो शारीरिक या मानसिक अधिक-से-अधिक कष्ट प्राप्त हो, उसे सहर्ष सहन करना-इसका नाम 'तप' है। व्रत, उपवास आदि भी इसीमें आ जाते हैं। निष्कामभावसे इस तपका पालन करनेसे मनुष्यका अन्तःकरण अनायास ही शुद्ध हो जाता है, यह गीतोक्त कर्मयोगका ही अङ्ग है।


(२) स्वाध्याय- जिनसे अपने कर्तव्य-अकर्तव्यका बोध हो सके, ऐसे वेद, शास्त्र, महापुरुषोंके लेख आदिका पठन-पाठन और भगवान्के ॐ कार आदि किसी नामका या गायत्रीका और किसी भी इष्टदेवताके मन्त्रका जप करना 'स्वाध्याय' है। इसके सिवा अपने जीवनके अध्ययनका नाम भी स्वाध्याय है। अतः साधकको प्राप्त विवेकके द्वारा अपने दोषोंको खोजकर निकालते रहना चाहिये।


(३) ईश्वर- प्रणिधान– ईश्वरके शरणापन्न हो जानेका नाम 'ईश्वर प्रणिधान' है। उसके नाम, रूप, लीला, धाम, गुण और प्रभाव आदिका श्रवण, कीर्तन और मनन करना, समस्त कर्मोको भगवान्के समर्पण कर देना, अपनेको भगवान्के हाथका यन्त्र बनाकर जिस प्रकार वह नचावे, वैसे ही नाचना, उसकी आज्ञाका पालन करना, उसीमें अनन्य प्रेम करना-ये सभी ईश्वर-प्रणिधानके अङ्ग हैं। यद्यपि तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान-ये तीनों ही यम, नियम आदि योगके अङ्गोंमें नियमोंके अन्तर्गत आ जाते हैं तथापि इन तीनों साधनोंका विशेष महत्त्व और इनकी सुगमता दिखलानेके लिये पहले क्रियायोगके नामसे इनका अलग वर्णन किया गया है ॥ १ ॥


सम्बन्ध-उपर्युक्त क्रियायोगका फल बतलाते हैं


समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥ २ ॥


व्याख्या-उपर्युक्त क्रियायोग अविद्यादि दोषोंको क्षीण करनेवाला और समाधिकी सिद्धि करनेवाला है अर्थात् इसके साधनसे साधकके अविद्यादि क्लेशोंका क्षय होकर उसको कैवल्य-अवस्थातक समाधिकी प्राप्ति हो सकती है ॥२॥


सम्बन्ध- दूसरे सूत्रमें क्रियायोगका फल समाधिसिद्धि और क्लेशोंका क्षय बतलाया गया, उनमें से समाधिके लक्षण और फलका वर्णन तो पहले पादमें हो चुका है, परंतु क्लेश कितने हैं, उनके नाम क्या हैं, वे किस-किस अवस्थामें रहते हैं, उनका क्षय कैसे होता है और उनका नाश क्यों करना चाहिये-इन सब बातोंका वर्णन नहीं हुआ। अतः प्रसङ्गानुसार इस प्रकरणका आरम्भ करते हैं


अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥३॥


व्याख्या- ये अविद्यादि पाँचों ही जीवमात्रको संसारचक्रमें घुमानेवाले महादुःखदायक हैं। इस कारण सूत्रकारने इनका नाम 'क्लेश' रखा है। कितने ही टीकाकारोंका तो कहना है कि ये पाँचों क्लेश ही पाँच प्रकारका विपर्ययज्ञान है। कुछ इनमेंसे केवल अविद्या और विपर्ययवृत्तिकी ही एकता करते हैं; किंतु ये दोनों ही बातें युक्तिसंगत नहीं मालूम होती; क्योंकि प्रमाणवृत्तिमें विपर्ययवृत्तिका अभाव है, पर अविद्यादि पाँचों क्लेश वहाँ भी विद्यमान रहते हैं । ऋतम्भरा प्रज्ञामें विपर्ययका लेश भी नहीं स्वीकार किया जा सकता, परंतु जिस अविद्यारूप क्लेशको द्रष्टा और दृश्यके संयोगका हेतु माना गया है, वह तो वहाँ भी रहता ही है, अन्यथा संयोगके अभावसे हेयका नाश होकर साधकको उसी क्षण कैवल्य-अवस्थाकी प्राप्ति हो जानी चाहिये थी। इसके सिवा एक बात और भी है। इस ग्रन्थमें कैवल्य-स्थितिको प्राप्त सिद्ध योगीके कर्म अशुक्ल और अकृष्ण अर्थात् पुण्य-पापके संस्कारोंसे रहित माने गये हैं (योग० ४ । ७), इससे यह सिद्ध होता है कि जीवन्मुक्त योगीद्वारा भी कर्म अवश्य किये जाते हैं। तब यह भी मानना पड़ेगा कि व्युत्थान-अवस्थामें जब वह कर्म करता है तो विपर्यय-वृत्तिका प्रादुर्भाव भी स्वाभाविक होता है; क्योंकि पाँचों ही वृत्तियाँ चित्तका धर्म हैं और व्युत्थान-अवस्थामें चित्त . विद्यमान रहता है, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। किंतु जीवन्मुक्त योगीमें अविद्या भी रहती है, यह नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि अविद्या वर्तमान है तो वह जीवन्मुक्त ही कैसा; इसी तरह और भी बहुत-से कारण हैं (देखिये योग० १।८ की टीका),जिनसे विपर्यय और अविद्याकी एकता माननेमें सिद्धान्तकी हानि होती है। अतः विद्वान् सज्जनोंको इसपर विचार करना चाहिये ॥३॥


सम्बन्ध- अब क्लेशोंकी अवस्थाके भेद बतलाते हुए यह बात कहते हैं कि इन सबका मूल कारण अविद्यारूप क्लेश है


अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥४॥


व्याख्या- (१) प्रसुप्त - चित्तमें विद्यमान रहते हुए भी जिस समय जो क्लेश अपना कार्य नहीं करता, उस समय उसे प्रसुप्त कहा जाता है। प्रलयकाल
और सुषुप्तिमें चारों ही क्लेशोंकी प्रसुप्त-अवस्था रहती है।


(२) तनु- क्लेशोंमें जो कार्य करनेकी शक्ति है, उसका जब योगके साधनोंद्वारा ह्रास कर दिया जाता है; तब वे हीन शक्तिवाले क्लेश 'तनु' कहलाते हैं। देखने में भी आता है कि ये राग-द्वेषादि क्लेश साधारण मनुष्योंकी भाँति साधकोंपर अपना आधिपत्य नहीं जमा सकते अर्थात् साधारण मनुष्योंकी अपेक्षा साधकोंपर उनका प्रभाव बहुत कम पड़ता है।


(३) विच्छिन्न- जब कोई क्लेश उदार होता है, उस समय दूसरा क्लेश दब जाता है, वह उसकी 'विच्छिन्नावस्था' है, जैसे रागकी उदार-अवस्थाके क्षणमें द्वेष दब जाता है और द्वेषकी उदार-अवस्थाके क्षणमें राग दबा रहता है।


(४) उदार- जिस समय जो क्लेश अपना कार्य पूर्णतया कर रहा हो उस समय वही 'उदार' कहलाता है। ... उपर्युक्त पाँच क्लेशोंमेंसे अस्मितादि चार क्लेशोंके ही प्रसुप्तादि चार अवस्थाभेद बतलाये गये हैं, अविद्याके नहीं; क्योंकि वह अन्य चारोंका कारण है, उसके नाशसे सबका सदाके लिये समूल नाश हो जाता है ॥४॥


योग-दर्शन-सूत्र-1-से-4-संस्कृत-हिन्दी-अनुवाद-सहित


काल क्या है?
महाभारत युग में काल गणना,
योग दर्शन सूत्र ०१ से ०८,

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