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Valmiki Ramayana sunderkand भगवान श्री राम लक्ष्मण सीता हनुमान आदि सहित विमान से अयोध्या नगरी वापस आना

भगवान श्री राम लक्ष्मण सीता हनुमान आदि सहित विमान से अयोध्या नगरी  वापस आना । हनुमान जी ने भरत जी को बतलाया को जा रहे जब भरत निवास स्थान नंदीग्राम के पास पहुंचे,

 Valmiki Ramayana sunderkand ram katha.

तब भगवान भाव विभोर हो गए और भाई भरत से मिलने हेतु बहुत व्याकुल हो उठे, नंदी ग्राम पर दृष्टि पड़ते ही श्री रघुनाथ जी का चित्त भरत को देखने की उत्कण्ठा से विहुल हो गया, 


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उन्हें धर्मात्माओं में अग्रगण्य भाई भरत की बार बार याद आने लगी । तब वे महाबली वायु नन्दन हनुमान जी से बोले हे वीर, तुम मेरे भरत भाई के पास जाओ। उनका शरीर मेरे वियोग से क्षीण होकर छड़ी के समान दुबला पतला हो गया है और वे उसे किसी प्रकार हठ पूर्वक धारण किये हुए हैं । जो वल्कल पहनते हैं, मस्तक पर जटा धारण करते हैं,


जिनकी दृष्टि में परायी स्त्री माता 

और सुवर्ण मिट्टी के ढेले के समान है, तथा जो प्रजा जनों को अपने पुत्रों की भॉति स्नेह दृष्ठी से देखते हैं, वे मेरे धर्मज्ञ भ्राता भरत दुखी हैं । उनका शरीर मेरे वियोग जनित दुःख रूप अग्नि की ज्वाला में दग्ध हो रहा है।अतः इस समय तुम तुरंत जाकर मेरे आगमनके संदेश रूपी जल की वर्षा से उन्हें शान्त करो। उन्हें यह समाचार सुनाओ कि सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव आदि कपीश्वरों तथा विभीषण सहित साथ ले तुम्हारे भाई श्रीराम पुष्पक विमानपर बैठकर सुख पूर्वक आ पहुंचे हैं। इससे मेरा आगमन जानकर मेरे छोटे भाई भरत शीघ्र ही प्रसन्न हो जायेंगे। परम बुद्धिमान् श्री रघुवीर के ये वचन सुनकर हनुमान जी उनकी आज्ञा का पालन करते हुए भरत जी के निवास स्थान नंदीग्राम गये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा भरत जी बूढ़े मन्त्रियों के साथ बैठे हैं और अपने पूज्य भ्राता के वियोग से अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। 


उस समय उनका मन

श्री रघुनाथ जी के चरणारविन्दों के मकरन्द में डूबा हुआ था और वे अपने वृद्ध मन्त्रियों से उन्हीं की कथा वार्ता कह रहे थे | वे ऐसे जान पड़ते थे मानो धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हो अथवा विधाता ने मानो सम्पूर्ण सत्त्व गुण को एकत्रित करके उसी के द्वारा उनका निर्माण किया हो । भरत जी को इस रूप में देख कर हनुमान जी ने उन्हें प्रणाम किया तथा भरत जी भी उन्हें देखते ही तुरंत हाथ जोड़ कर खड़े हो गये और बोले, आइये आपका स्वागत है। श्री रामचन्द्र जी की कुशल कहिये। वे इस प्रकार कह हो रहे थे कि इतने में उनकी दाहिनी बाँह फड़क उठी। हृदय से शोक निकल गया और उनके मुख पर आनंद आँसुओं की धारा बह चली, उनकी ऐसी अवस्था देख वानर राज हनुमान जी ने कहा लक्ष्मण सहित श्री रामचन्द्र जी इस ग्राम के निकट आ गये हैं। 


श्री रघुनाथ जी के आगमन 

के संदेश ने भरत के शरीर पर मानो अमृत छिड़क दिया, वे अत्यधिक हर्ष आनंदित में हो कर बोले श्री राम का संदेश लाने वाले हनुमान जी, मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे यह प्रिय समाचार सुनाने के बदले मे मैं आपको दे सकूँ इस उपकार के कारण मैं जीवन भर आपका दास बना रहूँगा। महर्षि वशिष्ठ तथा वृद्ध मन्त्री भी अत्यन्त हर्ष मै भर कर अर्घ्य हाथ में लिये हनुमान जी के दिखाये हुए मार्ग से श्री रामचन्द्र जी के पास चल दिये । भरत जी की दृष्टि दूर से आते हुए परम मनोरम भगवान् श्री राम पर पड़ी, वे पुष्पक विमान के मध्य भाग में सीता और लक्ष्मण के साथ बैठे थे। श्री राम चन्द्रजी ने भी जटा वल्कल और कौपीन धारण किये भरत को पैदल ही आते देखा। साथ ही उनकी दृष्टि उन मन्त्रियों पर भी पड़ी, जिन्होंने भाई के वेष के समान ही वेष धारण कर रखा था। उनके मस्तक पर भी जटा थी तथा वे भी निरन्तर तपस्या से क्लेश उठाने के कारण अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। राजा भरत को इस अवस्था में देखकर श्री रघुनाथ जी को बड़ी चिन्ता हुई, 


भगवान राम ने किया भाई भरत के मुनि स्वभाव का वर्णन, भगवान श्री राम का अयोध्या वापस आना । हनुमान जी ने भरत जी को बतलाया


वे कहने लगे, राजाओं के भी राजा महा बुद्धिमान् महाराज दशरथ का यह पुत्र आज जटा और वल्कल आदि तपस्वी का वेष धारण किये पैदल ही मेरे पास आ रहा है, मित्रो मैं वन में गया था किन्तु मुझे भी ऐसा दुःख नहीं उठाना पड़ा, जैसा कि मेरे वियोग के कारण इस भरत को भोगना पड़ रहा है। अहो, देखो तो सही, प्राणों से भी बढ़कर प्यारा और हितैषी मेरा भाई भरत मुझे निकट आया सुनकर हर्ष में भरे हुए वृद्ध मन्त्रियों तथा महर्षि वसिष्ठ जी को साथ लेकर मुझसे मिलनेके लिये आ रहा है । इस प्रकार भगवान श्रीराम आकाश में स्थित


से उपर्युक्त बातें कह रहे थे और विभीषण, हनुमान् तथा लक्ष्मण उनके प्रति आदर का भाव प्रकट कर रहे थे। भरत के निकट आ जाने पर भगवान राम का हृदय विरह से कातर हो उठा और वे बोले, भैया भरत तुम कहाँ हो

इस प्रकार कहते तथा बारं बार हे भाई भरत

की रट लगाते हुए तुरंत ही विमान से उतर पड़े। सहायकों सहित श्री रामचन्द्र जी को भूमि पर उतरे देख भरत जी हर्ष के कारण आशु बहाते हुए उनके सामने दण्ड की भॉति धरती पर पड गये । श्री रामचन्द्र जी ने भी उन्हें दण्ड की भाँति पृथ्वी पर पड़ा देख हर्ष पूर्ण दृष्टि से देखते हुए अपनी दोनों भुजाओं से उठा कर छाती से लगा लिया । आरम्भ में श्री रामचन्द्र जी के वारंवार उठाने पर भी भरत जी उठे नहीं, अपितु अपने दोनों हाथोंसे भगवान्के चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोते रहे।

भरत जी ने कहा महाबाहु 

भगवान् श्रीराम मैं दुष्ट, दुराचारी, और पापी हूँ मुझपर कृपा कीजिये आप दया के सागर हैं, अपनी दया से ही मुझे अनुगृहीत कीजिये, भगवन् जिन्हें सीता जी के कोमल हार्थो का स्पर्श भी कठोर जान पड़ता था, आपके उन्हीं चरणों को मेरे कारण वन में भटकना पड़ा यो कह कर भरत जी ने दीन भाव से आँसू बहाते हुए बारंबार श्री रघुनाथ जी के चरणों का आलिङ्गन किया और हर्ष से विह्वल होकर उनके सामने हाथ जोड़े खड़े हो गये, करुणा सागर श्री रघुनाथ जी  ने अपने छोटे भाई को गले लगा कर प्रधान मन्त्रियों को भी प्रणाम किया तथा सबसे आदर पूर्वक कुशल समाचार पूछा

भाई भरत और सभी मित्र सहयोगी को साथ लिए विमान से आयोधया के लिए प्रस्थान किए।

इसके बाद भाई भरत 

के साथ वे पुष्पक विमान पर जा बैठे । वहाँ भरत जी ने अपनी भ्रातृ पत्नी पतिव्रता सीता जी को देखा, जो अत्रि की भार्या अनसूया तथा अगस्त्य की पत्नी लोपा मुद्रा की भाँति जान पड़ती थीं। पतिव्रता जनक किशोरी का दर्शन करके भरत जी ने उन्हें सम्मान पूर्वक प्रणाम किया और कहा, माँ मैं महा मूर्ख हूँ। मेरे द्वारा जो अपराध हो गया है, उसे क्षमा करना क्योंकि आप जैसी पतिव्रताएँ सबका भला करने वाली ही होती हैं । परम सौभाग्यवती जनक किशोरी ने भी अपने देवर भरत की ओर आदर पूर्ण दृष्टि डाल कर उन्हें आशीर्वाद दिया तथा उनका कुशल मंगल पूछा । उस श्रेष्ठ विमान पर आरूढ़ होकर सब के सब आकाश में आ गये, फिर एक ही क्षण में श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि पिता की राजधानी अयोध्या अब बिल्कुल अपने निकट है।

शेष कथा अगले पोस्ट मै।


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