साधनापाद योग दर्शन सूत्र ०५ से १३ तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित, सम्बन्धः-अब अविद्याका स्वरूप बतलाते है, योग दर्शन क्या है,
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥५॥
व्याख्या- इस लोक और परलोकके समस्त भोग और भोगोंका आयतन यह मनुष्य शरीर भी अनित्य है, इस बातको प्रत्यक्षादि प्रमाणोंद्वारा समझकर भी जिसके प्रभावसे मनुष्य उनमें नित्यत्वबुद्धि करके राग-द्वेषादि कर लेता है, यह अनित्यमें नित्यकी अनुभूतिरूप अविद्या है। शिश। का इसी प्रकार हाड़, मांस, मज्जा आदि अपवित्र धातुओंके समुदायरूप अपने और स्त्री आदिके शरीरोंको प्रत्यक्षादि प्रमाणोंद्वारा अपवित्र समझते हुए भी जिसके कारण मनुष्य अपने शरीरमें पवित्रताका अभिमान करता है और स्त्री-पुत्र आदिके शरीरोंसे प्यार करता है,
यह अपवित्रमें पवित्रकी अनुभूतिरूप अविद्या है। वैसे ही प्रत्यक्षादि प्रमाणोंद्वारा विचार करनेपर सभी भोग दुःखरूप हैं यह बात विचारशील साधककी समझमें आ जाती है (योग० २ । १५) । इसपर भी मनुष्य उन भोगोंको सुखदायक समझकर उनके भोगनेमें प्रवृत्त हुआ रहता है, यही दुःखमें सुखकी अनुभूतिरूप अविद्या है।यद्यपि यह बात थोड़ा-सा विचार करते ही समझमें आ जाती है कि जड शरीर आत्मा नहीं है तथापि मनुष्य इसीको अपना स्वरूप माने रहता है,आत्मा इससे सर्वथा असङ्ग और चेतन है इस बातका अनुभव नहीं कर सकता, इसका नाम अनात्मामें आत्मभावका अनुभूतिरूप अविद्या है।प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-प्रमाणसे वस्तुस्थितिका सामान्य ज्ञान हो जानेपर विपर्ययवृत्ति नहीं रहती, तो भी अविद्याका नाश नहीं होता; इससे यह सिद्ध होता है कि चित्तकी विपर्ययवृत्तिका नाम अविद्या नहीं है ॥५॥
सम्बन्ध-अब अस्मिताका स्वरूप बतलाते हैं
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ॥६॥
व्याख्या- दृक्-शक्ति अर्थात् द्रष्टा-पुरुष और दर्शन-शक्ति अर्थात् बुद्धि-ये दोनों सर्वथा भिन्न और विलक्षण हैं। द्रष्टा चेतन है और बुद्धि जड है। इनकी एकता हो ही नहीं सकती। तथापि अविद्याके कारण दोनोंकी एकता-सी हो रही हैं (योग० २ । २४) । इसीको द्रष्टा और दृश्यका संयोग कहते हैं। यही प्रकृति और पुरुषके स्वरूपकी उपलब्धिका हेतु माना गया है (योग० २ । २३) । इस संयोगके रहते हुए भी पुरुष और बुद्धिका भिन्न-भिन्न स्वरूप विचारके द्वारा और सम्प्रज्ञात-समाधिके द्वारा समझमें तो आता है; परंतु जबतक निर्बीज-समाधिद्वारा अविद्याका सर्वथा नाश नहीं कर दिया जाता, तबतक संयोगका अभाव नहीं होता है। इस कारण इनके शुद्ध स्वरूपका अनुभव नहीं होता (योग० ३ । ३५) । अतः साधकको चाहिये कि तत्परतासे उत्साहपूर्वक योगसाधनमें लगकर शीघ्र ही अविद्याके नाशद्वारा संयोगरूप अस्मिता नामक क्लेशका नाश कर दे और कैवल्य-स्थितिको प्राप्त कर ले॥६॥
सम्बन्ध-अब राग नामक क्लेशका स्वरूप बतलाते हैं
सुखानुशयी रागः ॥७॥
सुखानुशयी-सुखकी. प्रतीतिके पीछे रहनेवाला क्लेश; रागः='राग' है।
व्याख्या-प्रकृतिस्थ जीवको जब कभी जिस किसी अनुकूल पदार्थमें सुखकी प्रतीति हुई है या होती है, उसमें और उसके निमित्तोंमें उसकी आसक्ति (प्रीति) हो जाती है, उसीको 'राग' कहते हैं। अतः इस राग नामक क्लेशको सुखकी प्रतीतिके साथ-साथ रहनेवाला कहा गया है ॥७॥
सम्बन्ध-अब द्वेष नामक क्लेशका स्वरूप बतलाते हैं
दुःखानुशयी द्वेषः ॥८॥
दुःखानुशयी-दुःखकी प्रतीतिके पीछे रहनेवाला क्लेश; द्वेषः='द्वेष' है।
व्याख्या-मनुष्यको जब कभी जिस किसी प्रतिकूल पदार्थमें दुःखकी प्रतीति हुई है या होती है, उसमें और उसके निमित्तोंमें उसका द्वेष हो जाता है; अतः यह द्वेषरूप क्लेश दुःखकी प्रतीतिके पीछे यानी साथ-साथ रहनेवाला है॥८॥
सम्बन्ध- अब अभिनिवेश नामक क्लेशका स्वरूप बतलाते हैं
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ॥९॥
व्याख्या- यह मरणभयरूप क्लेश सभी प्राणियोंमें अनादि कालसे . स्वाभाविक है; अतः कोई भी जीव यह नहीं चाहता कि मैं न रहूँ, सभी अपनी । विद्यमानता चाहते हैं। एक छोटे-से-छोटा कीट भी मरणसे डरकर अपनी रक्षाका उपाय करता है। (इससे पूर्वजन्मकी सिद्धि होती है, क्योंकि यदि मरण-दुःख पहले अनुभव किया हुआ नहीं होता तो उसका भय कैसे होता?) यह मरणभय जीवोंके अन्तःकरणमें इतना गहरा बैठा हुआ है कि मूर्खके जैसा ही विवेकशीलपर भी इसका प्रभाव पड़ता है, इसीलिये इसका नाम 'अभिनिवेश' अर्थात् 'अत्यन्त गहराई में प्रविष्ट' रखा गया है॥९॥ . .
सम्बन्ध- इन पाँच प्रकारके क्लेशोंको तनु अर्थात् सूक्ष्म बना देनेका उपाय 'क्रियायोग' पहले बतला चुके । 'क्रियायोग के द्वारा सूक्ष्म किये हुए क्लेशोंका नाश किस उपायसे करना चाहिये, यह बात अगले सूत्र में बतलाते हैं।
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥१०॥
व्याख्या- क्रियायोग या ध्यानयोगद्वारा सूक्ष्म किये हुए क्लेशोंका नाश
निर्बीज समाधिके द्वारा चित्तको उसके कारणमें विलीन करके करना चाहिये; क्योंकि क्रियायोग या ध्यानद्वारा क्षीण कर दिये जानेपर भी जो लेशमात्र क्लेश शेष रह जाते हैं, उनका नाश द्रष्टा और दृश्यके संयोगका अभाव होनेपर ही होता है, उसके पहले क्लेशोंका सर्वथा नाश नहीं होता, यह भाव है ॥ १० ॥ .
सम्बन्ध-अब क्लेशोंको क्षीण करनेका क्रियायोगसे अतिरिक्त दूसरा साधन . . बतलाते हैं
ध्यानहेयास्तवृत्तयः ॥ ११॥
व्याख्या- उन क्लेशोंकी जो स्थूल वृत्तियाँ हैं, उनका यदि पूर्वोक्त क्रियायोगके द्वारा नाश करके उन क्लेशोंको सूक्ष्म नहीं बना दिया गया हो तो पहले ध्यानके द्वारा उनकी स्थूल वृत्तियोंका नाश करके उनको सूक्ष्म बना लेना चाहिये, तभी निर्बीज-समाधिकी सिद्धि सुगमतासे हो सकेगी। उसके बाद निर्बीज-समाधिसे क्लेशोंका सर्वथा अभाव अपने-आप हो जायगा ॥११॥
सम्बन्ध-उपर्युक्त क्लेश किस प्रकार जीवके महान् दुःखोंके कारण हैं; इस बातको । स्पष्ट करनेके लिये अलग प्रकरण आरम्भ किया जाता है
क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ १२॥
व्याख्या- कर्लोक संस्कारोंकी जड़ उपर्युक्त पाँचों क्लेश ही हैं। अविद्यादि क्लेशोंके न रहनेपर किये हुए कर्मोंसे कर्माशय नहीं बनता, बल्कि वैसे राग-द्वेषरहित निष्काम कर्म तो पूर्वसंचित कर्माशयका भी नाश करनेवाले होते हैं (गीता ४ । २३) । यही क्लेशमूलक कर्माशय जिस प्रकार इस जन्ममें दुःख देता है, उस प्रकार भविष्यमें होनेवाले जन्मोंमें भी दुःखदायक है। अतः साधकको इसकी जड़ काट डालनी चाहिये अर्थात् पूर्वोक्त क्लेशोंका सर्वथा नाश कर देना चाहिये ॥ १२॥
सम्बन्ध-उस कर्माशयका फल कबतक मिलता रहता है और वह क्या है, इसको स्पष्ट करते हैं
सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः॥१३॥
व्याख्या- जबतक क्लेशरूप जड़ विद्यमान रहती है, तबतक इस कर्मोके संस्कार-समुदायरूप कर्माशयका विपाक यानी परिणाम-बार-बार अच्छी बुरी योनियोंमें जन्म होना, वहाँपर निश्चित आयुतक जीते रहकर फिर मरण-दुःखको भोगना और जीवनावस्थामें जो विवेकदृष्टि से सभी दुःखरूप हैं, ऐसे भोगोंका सम्बन्ध होना-ऐसे तीन प्रकारका होता रहता है ॥ १३ ॥
खण्डः मंत्र २५ से ४८
काल क्या है?
महाभारत युग में काल गणना,
योग दर्शन सूत्र ०१ से ०८,
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