kaisi thi aayodhya nagri राजा दशरथ का परिचय अश्वमेध यज्ञ और भगवान श्री राम सहित चारो भाईयो का जन्म।
कोशल नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद है जो सरयू नदी के तट पर बसा हुआ है। उसी जनपद में अयोध्या नाम की नगरी है। उस पुरी को स्वयं महाराज मनु ने बनवाया और बसाया था। मनु से लेकर अब तक वह पुरी उसी वंश के नरेशों के अधिकार में रही। राजा दशरथ ने अयोध्यापुरी को पहले की अपेक्षा विशेष रूप से बसाया था। उसी अयोध्यापुरी में रहकर राजा दशरथ प्रजावर्ग का पालन करते थे। वे दूरदर्शी और महान् तेजस्वी थे।
Raja Dashratha ki nagri Aayodhya ka Bhavyta ka varnan.
अयोध्या पुरी में निवास करने वाले सभी मनुष्य प्रसन्न धर्मात्मा बहुश्रुत निर्लोभ सत्यवादी तथा अपने अपने धन से संतुष्ट रहने वाले थे। सभी के पास उत्कृष्ट वस्तुएं उपलब्ध थीं तथा गाय बैल घोड़े धन धान्य की प्रचुरता थी। हर प्रकार से सुरक्षा थी। दो योजन भूमि तो ऐसी थी जहाँ पहुँच कर युद्ध करना किसी के लिए भी असम्भव था। इसलिए वह पुरी अयोध्याइस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हुई। महाराज दशरथ के आठ अमात्य थे जो तत्त्व को जानने वाले और बाहरी चेष्टा देखकर ही मन के भाव को समझ लेने वाले थे। उनके नाम थेधृष्टि जयन्त विजय सुराष्ट्र राष्ट्रवर्धन अकोप धर्मपाल और सुमन्त्र। वसिष्ठ और वामदेव राजा के पुरोहित थे। इनके अतिरिक्त सुयज्ञ जाबालि काश्यप गौतम मार्कण्डेय और कात्यायन महाराज के मंत्री थे। अपने गुणों के कारण वे सभी मंत्री राजा के अनुग्रहपात्र थे तथा उनका दोनों पुरोहितों की भाँति ही गुरुतुल्य समादरणीय स्थान था। विदेशों में भी सब लोग उन्हें जानते थे। ऐसे गुणवान् मन्त्रियों के साथ रहकर निष्पाप राजा दशरथ उस भूमण्डल का शासन करते थे। राजा दशरथ पुत्र के लिए सदा चिन्तित रहते थे। उनके वंश को चलाने वाला कोई पुत्र नहीं था। उन्होंने अपने प्रधान अमात्य सुमंत्र को भेजकर कुलपुरोहित वसिष्ठ तथा मुनियों एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणों का आवाहन किया और उन से सहमति लेकर अवश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान का निश्चय किया। महाराज दशरथ ने भूमण्डल में भ्रमण के लिए यज्ञसम्बन्धी अश्व घोड़ा छोड़ा यज्ञसामग्री का संग्रह किया तथा सरयू के उत्तरतट पर यज्ञभूमि का निर्माण कराया। अश्वमेध यज्ञ के संकल्प को सुनकर सुमन्त्र ने राजा दशरथ से एकान्त में कहा महाराज एक पुराना इतिहास सुनिये। मैंने पुराण में भी इसका वर्णन सुना है।
Mnatri sumant ne Putra prapti yagya ka itihas sunaya.
पूर्वकाल में भगवान् सनत्कुमार ने ऋषियों को एक कथा सुनायी थी। यह आपकी पुत्रप्राप्ति से सम्बन्ध रखने वाली है। भगवान् सनत्कुमार ने कहामुनिवरो काश्यप ऋषि का विभाण्डक नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र है। उसका भी एक पुत्र होगा जिसकी प्रसिद्धि ऋष्यशृंग नाम से होगी। वे सदा वन में रहेंगे तथा पिता के अतिरिक्त दूसरे किसी को नहीं जानेंगे। उसी समय अंगदेश में रोमपाद नामक एक बड़े प्रतापी राजा होंगे। उनके द्वारा धर्म का उल्लंघन हो जाने के कारण उस देश में घोर अनावृष्टि हो जायेगी। इससे राजा रोमपाद को बहुत दुःख होगा। वे ज्ञान में बढ़ेचढ़े ब्राह्मणों को बुलाकर कहेंगेविप्रवरो आप लोग वेदशास्त्र के अनुसार कर्म करने वाले हैं। अतः कृपा करके मुझे ऐसा कोई विधान बताइये जिससे मेरे पाप का प्रायश्चित हो जाय। राजा के ऐसा कहने पर सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें सलाह देंगेराजन् विभाण्डक के पुत्र ऋष्यशृंग वेदों के पारगामी विद्वान् हैं आप सभी उपायों से उन्हें यहाँ ले आइये तथा वैदिक विधि के अनुसार उनके साथ अपनी कन्या शान्ता का विवाह कर दीजिये। महर्षि विभाण्डक से डर कर मंत्री और पुरोहित ऋष्यशृंग को बुलाने का साहस नहीं करेंगे। फिर वेश्याओं की सहायता से ऋष्यशृंग को अपने यहाँ बुलायेंगे। उनके आते ही इन्द्रदेव राज्य में वर्षा करेंगे। फिर राजा उन्हें अपनी पुत्री शान्ता समर्पित कर देंगे। वे ऋष्यशृंग ही आपके लिए पुत्रों को सुलभ कराने वाले यज्ञकर्म का सम्पादन करें। यह सुनकर राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुमन्त्र से कहामुनिकुमार ऋष्यशृंग को जिस प्रकार और जिस उपाय से बुलाया गया वह स्पष्ट रूप से बताओ। यह सुनकर सुमन्त्र ने बताया राजा रोमपाद के पुरोहितों ने कहा कि हम मनुष्यों के चित्त को मथ डालने वाले विषयों का प्रलोभन देकर उन्हें अपने नगर में ले आयेंगे। यदि सुन्दर आभूषणों से विभूषित मनोहर रूप वाली गणिकाएं वेश्याएं वहाँ जायें तो वे लुभाकर उन्हें इस नगर में ले आयेंगी। राजा का आदेश सुनकर नगर की मुख्यमुख्य वेश्याएं उस वन में गयीं तथा उन्हें आकर्षित करके अंगदेश ले गयीं। उनके अंगदेश में आते ही इन्द्र ने सहसा पानी बरसाना आरम्भ कर दिया। वर्षा से ही राजा को तपस्वी ब्राह्मणकुमार के आगमन का अनुमान हो गया तथा उन्होंने ऋष्यशृंग मुनि की अगवानी की तथा अन्तःपुर में लाकर अपनी कन्या शान्ता का उनके साथ विवाह कर दिया।
Bhagwan ram sahit lakshaman , bharat shatrudhan charo rajkumar ka janam.
सुमन्त्र ने फिर कहा महाराज आप स्वयं ही अंगदेश में जाकर मुनिकुमार ऋष्यशृंग को सत्कारपूर्वक यहाँ ले आइये। सुमन्त्र के वचन सुनकर राजा दशरथ को बड़ा हर्ष हुआ तथा उन्होंने अंगदेश के लिए प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अंगराज से कहा कि तुम्हारी पुत्री शान्ता अपने पति के साथ मेरे नगर में पदार्पण करे। राजा की आज्ञा पाकर ऋषिपुत्र ने चलने की स्वीकृति दे दी तथा राजा दशरथ के साथ अयोध्यापुरी आये। दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ और श्री रामादि चार पुत्रों का जन्म। एक वर्ष पूरा होने पर जब यज्ञ का अश्व लौट आया तो मुनि ने शास्त्रविधि के अनुसार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान सम्पन्न किया। उसके बाद मुनि ने पुत्रेष्टि नामक यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में अपना भाग लेने के लिए सभी देवता तथा विष्णु व ब्रह्मा भी उपस्थित थे। उसी यज्ञ में देवताओं ने भगवान् विष्णु की स्तुति प्रार्थना की और फिर रावण के पराक्रम व अत्याचार का वर्णन किया। विष्णु भगवान् ने रावणवध का निश्चय करके मनुष्यरूप में जन्म लेने का संकल्प किया तथा राजा दशरथ को ही पिता बनाने की इच्छा की। उनके अन्तर्धान होने के बाद यज्ञ में अग्निकुण्ड से एक विशालकाय पुरुष खीर लिये हुए प्रकट हुआ जिसने राजा दशरथ से कहा कि तुम देवताओं की आराधना करते हो इसलिए देवताओं की बनायी यह खीर प्राप्त करो जो संतान की प्राप्ति कराने वाली है।
Raja Dashratha ki patniyo ne devtawo ke dvra diye hue kheer khaye.
राजा दशरथ ने उस खीर का आधा भाग रानी कौसल्या को दिया तथा शेष आधे का आधा भाग रानी सुमित्रा को दिया तथा दूसरे आधे का आधा भाग रानी कैकेयी को दिया और अवशिष्ट बचे हुए आधे भाग को पुनः रानी सुमित्रा को दे दिया। रानियों ने उस यज्ञ की उत्तम खीर को ग्रहण करके गर्भ धारण किया। जब भगवान् विष्णु राजा दशरथ के पुत्रभाव को प्राप्त हो गये तो भगवान् ब्रह्मा ने समस्त देवगणों से कहा कि तुम लोग उनके सहायक रूप से ऐसे पुत्रों की सृष्टि करो जो बलवान् नीतिज्ञ बुद्धिमान् तथा सब प्रकार की अस्त्रविद्या के गुणों से सम्पन्न हों। देवों ने उनकी आज्ञा स्वीकार करके वानर रूप में अनेकानेक पुत्र उत्पन्न किये। चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौसल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त श्री राम को जन्म दिया। तदनन्तर कैकेयी से भरत का जन्म हुआ। उसके बाद सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न दो पुत्रों को जन्म दिया। बाल्यकाल से ही लक्ष्मण श्री राम के प्रति अत्यन्त अनुराग रखते थे तथा लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न भरत को अधिक प्रिय मानते थे।
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