Mahabharat granth ke anusaar प्रशांत महासागर के एक और चीन का विशाल प्राचीन देश है और दूसरी ओर अमेरिका का महाद्वीप जो आधुनिक संस्कृति का द्योतक है।
इन दोनों के बीच इसकी गोद में हजारों छोटे बड़े द्वीप हैं। इन सब में तरह तरह की संस्कृतियों के नमूने देखने में आते हैं। परंतु इधर जो खोज हुई है उस से पता लगता है कि इनमें सबसे प्रधान हिंदू संस्कृति थी जिसका प्रभाव उन देशों के इतिहास तथा जीवन पर पूरी तरह पड़ा है एल। यहाँ कई हिंदूराज्यों का उत्थान और पतन हुआ जिनका सरण दिलाने के लिये आज भी जहाँ तहाँ कितने ही चिह्न मिलते हैं। प्रायः लोगों की धारणा है कि बौद्ध मत के प्रचार तथा विस्तार के साथ भारत से बाहर के देशों में हिंदू संस्कृति का सूत्रपात हुआ। परंतु इन देशों की संस्कृति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह मत भ्रान्त है। बौद्धों के भाव से बहुत पहले यहाँ विशुद्ध हिंदू अर्थात् वैदिक संस्कृति के चिह्न पाये जाते हैं। जैसे जैसे इतिहास के इस पृष्ठपर खोज का प्रकाश पड़ता जा रहा है वैसे ही हमारी आँखोंबीके सामने बृहत्तर अर्थात् विशाल भारत का चित्र स्पष्ट होता जाता है। इन देशों में वैदिक संस्कृति के जो चिह्न प्राप्त हुए हैं संक्षेप में हम यहाँ क्रम से उन्हीं को दिखलाने का प्रयत्न करेंगे।
Mahabharat महाभारत के अनुसार चीन मैं हिंदू धर्म और वैदिक संस्कृति के चिह्न होने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
अपने यहाँ के इतिहास पुराणों में चीन की चर्चा अति प्राचीन काल से मिलती है। वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड में सुग्रीव ने जब वानरों को विभिन्न देशों में सीताजी को खोजने का आदेश दिया तब उन्होंने उसमें चीन का भी नाम लिया है।
भन्विप्य दरदाश्चैव हिमवन्तं तथैव च ॥
महाभारत में भी कई स्थानों पर चीन तथा चीनियों का उल्लेख मिलता है।
Vishnu Puran विष्णु पुराण में भी चीन के बारे मैं कहा गया है की।
प्रियङ्गवो घदाराश्च कोरदूपाः सचीनकाः। १।६।२१
मनुने यवन शक किरात चीनी आदिकों को आचार भ्रष्ट क्षत्रिय बतलाया है।
वृपलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥
पौण्डूकाश्चौण्डूद्रविदाः काम्बोजा यवनाः शकाः।
पारदाः पह्नवाचीनाः किराता दरदाः खशाः ॥
कौटिल्यने भी अपने अर्थशास्त्र में चीन के रेशम का उल्लेख किया है
तया कौशेयं चीनपट्टाश्च चीनभूमिजा व्याख्याताः ।
Mahabharat महाभारत के अनुसार चीन मैं हिंदू धर्म और वैदिक संस्कृति होने के प्रमाण। महाभारत श्लोक में चीन का वर्णन
ईसा के ५०० वर्ष पूर्व यहाँ ताओ मत का बहुत प्रचार हुआ जिसके प्रवर्तक लओत्से माने जाते हैं। ताओर शब्द निर्विकार निरुपाधिक परमतत्त्वका द्योतक है। यह परम्परागत शिक्षा अद्वैत वेदान्त से बहुत मिलती है। इसका मार्ग निवृत्ति या वैराग्य है। ताओ के मूलग्रन्थ योकिङ्ग की रचना इंसा से ३४६८ वर्ष पूर्व मानी जाती है। इसमें सृष्टि के उत्पादन के लिये दो तत्त्व बतलाये गये हैंयाङ्गलिङ्ग और यीन योनि जिनसे अभिप्राय पुरुप और प्रकृति से है। इसमें चार युगों की भी चर्चा आयी है। इसके समकालीन ही कनफ्यूशस कोङ्गत्से या कुङ्ग मुनि का सम्प्रदाय है जिसमें प्रवृत्ति मार्गपर जोर दिया गया है और पितरों का पूजन तथा उनमें श्रद्धा मुख्य उपासना बतलायी गयी है। इस सम्प्रदाय के उपदेशों पर वैदिक सनातन धर्म का प्रभाव प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। मानव समाज के कल्याण साधन के लिये भगवान् मनु के सारगर्मित उपदेशों पर ही इनकी शिक्षा अवलम्बित है। व्यवहार के लिये इसमें मुख्य सिद्धान्त यह बतलाया गया है कि किसी के साथ ऐसा बर्ताव न करो जो तुम अपने लिये नहीं चाहते। यह तो
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।
का अनुवादमात्र है। हिंदू स्त्री की तरह प्राचीन शैली के अनुसार चीनी स्त्री का भी यही कर्तव्य है कि वह वाल्यकाल में माता पिता विवाह हो जाने पर पति और विधवा होने पर अपने पुत्रों के अधीन रहे। मनु ने भी यही बतलाया है।
पुत्राश्च स्थविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥
दि वर्थ आफ चाइना चीन का जन्म नामक अपनी पुस्तक में डा० क्रील लिखते हैं कि प्राचीन चीनियों के रीति रिवाज और उपासनाओं में वैदिक प्रतीकों और यज्ञों की झलक दिखलायी पड़ती है । सरदारों के लिये चीन में भण्डारिन शब्द का प्रयोग होता है जो मंत्रिन् शब्द का विकृत रूप जान पड़ता है । बौद्ध मत का प्रवेश तो वहाँ ईसा से दो सौ वर्ष पहले हुआ जैसा कि अब प्रायः सभी विद्वान् मानने लगे हैं। इस तरह चीन में प्राचीन वैदिक संस्कृति का ही पता लगता है।
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