Manusmriti Mai dharm aur Dand vidhan. मनुस्मृति हिन्दुओं का सबसे बड़ा मनुस्मृति दंड विधान के साथ साथ धर्म (कर्म) शास्त्र है। सुबह उठने के कर्म से लेकर रात्रि सोने तक जो करणीय कर्म है उन सभी का वर्णन स्मृति ग्रंथो मैं किया गया है। स्मृतियों में हिन्दुओं के सम्पूर्ण कर्मों का विधान है । विना स्मृतियों के हिन्दू अपना धर्म कर्म नहीं समझ सकते।
Manusmriti स्मृतियां ही कानून का ग्रंथ।
हिन्दुओं के राजत्वकाल में राजा लोग स्मृतियों के अनुसार राजप्रबन्ध तथा अभियोगों का विचार करते थे, स्मृतियां ही कानून की पुस्तकें थीं वर्ण तथा आश्रम के लोग स्मृतियों के बतलाये हुए मार्गपर चलते थे तथा स्मृतियों के अनुसार प्रायश्चित्त करते थे। जैसे महाभारत और पुराणों के सुन्ने सुनाने की चाल है वैसे स्मृतियों की भी होनी चाहिये क्याकि ऐसा न होने से सर्वसाधारण लोग अपने धर्मको न जान सकेंगे।
Yajnavalkya smriti adhyaya 3.
याज्ञवल्क्यस्मृति- अध्याय 3 के 334 श्लोक में लिखा है कि जो विद्वान् इस स्मृति को प्रतिपर्व में द्विजों को सुनावेगा वह अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त करेगा। अत्रिस्मृति-श्लोक 6 में है कि पापी और धर्मदूषक मनुष्य भी इस उत्तम धर्मशास्त्र को सुनकर सब पापों से मुक्त हो जावेगा। याज्ञवल्क्यस्मृति- अध्याय 1 के 4-5 श्लोक में है कि,
Smriti Granth कितने है इनके नाम इस प्रकार से है।
मनु, अत्रि, विष्णु, हारीत, याज्ञवल्क्य उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शातातप और वसिष्ठः ये २० महर्षि धर्मशास्त्र वनाने वाले हैं।
अर्थात् मनुस्मृति आदि 20 धर्मशास्त्र हे । इनमसे कई ऋपियाक नामसे एक एक या दो दो और धर्मशास्त्र है; जिनमें में किसी के नाम के आदिम लघुशव्द, किसीके नामकं आदिम बृहतशब्द और किसीके नामके आदि-म वृद्ध शब्द लगा हुआ है और 20 स्मृतियोंक अतिरिक्त बोधायन, नारद, गोभिल, देवल आदि और भी बहुत से धर्मशास्त्र है; इनमें पूर्वोक्त 20 धर्मशास्त्र प्रधान हैं, जिनमें मनुस्मृति और याज्ञ- वल्क्यस्मृति विशप मान्य तथा प्रतिष्ठित है; इनकं अनन्तर लघु, बृहत् और वृद्ध शब्दसे युक्त स्मृतियां तथा 20 स्मृतियों से बाहर की वोधायन आदि स्मृतियां, माननीय है ।
Shruti aur Smriti.
ब्राह्मण सब वर्णीम प्रधान है, इसलिय स्मृतियों में बहुत से धर्म कर्म ब्राह्मणापर कह गये हैं, किन्तु वास्तव मै उनमसे बहुत धर्म कर्म केवल ब्राह्मणांके लिये, वहुत द्विजातियों के लिये, बहुतसे चारों वर्गों के लिये और बहुत धर्म कर्म मनुष्यमात्र के लिय जानना चाहिये । ऋषियों के मतभेद से किमी किसी विषयमं स्मृतियांका परस्पर विरोध देख पडता है; वे दोनों की मत माननीय हैं; किन्तु स्मृतियों में किसी किसी स्थानपर पीछेकं लिखे हुए तथा अशुद्ध श्लोक हैं। मनु आदि स्मृतियोंमें मांसभक्षण, मदिरापान और परस्त्रीसंभोगके वहुत दोष दिखाये गये हैं, और इनके लिये बडे बडे प्रायश्चित्त लिखे हुए हैं; किन्तु मनुस्मृति-अध्याय 5 के 56 श्लोक में जिससे पाहले बहुत से श्लोका मांस भक्षण दोप दिखाया गया है. लिखा है कि मांसभक्षण, मदिरापान और मैथुन करने में दोप नहीं है; क्योंकि इनमें जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है, किन्तु इनसे निवृत्ति होने से महाफल मिलता है। ऐसे ही पीछे के जोडे हुए और और भी अनेक श्लोक है और एक ही लतिकी कई एक पुस्तकाको मिलाने पर अनेक श्लोक के एक या अनेक शब्द भिन्न भिन्न प्रकार के मिलते हैं, जिनसे अर्थ बदल जाते हैं । जहां एक पाप के छोटे वडे कई कार के प्रायश्चित्त लिखे हुए हैं, वहां अनजान में पाप करने वाले अज्ञानी पापी अथवा वालक वृद्ध के लिये छोटा प्रायश्चित्त और जानकर पाप करने वाले ज्ञानी मनुष्य या सयाने के लिये बडा प्राय-श्चित्त समझना चाहिये ।
Smriti Grantho mai वेद और धर्म की शिक्षा।
वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् । आचम्भिव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥ ६ ।।
यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः । स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ॥ ७ ॥ सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा । श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै ॥ ८॥
सम्पूर्ण वेद, वेदजाननेवाले ऋषियोंकी स्मृतियां और उनका शील अथात् राग द्वेषका परित्याग सज्जनोंका आचार और आत्मसन्तुष्टि, ये सब धर्मके मूल हैं ॥ ६ ॥
भगवान् मनुने जिसका जो कुछ धर्म
कहा है वह सब वेदमें लिखाहै, क्योंकि मनुजी सम्पूर्ण ज्ञानको जाननेवाले हैं ॥७॥
विद्वान्मनुष्यों को उचित है कि वेद के अर्थ जानने के उपयोगी शास्त्रों को ज्ञान नेत्र से देखकर वेद की आज्ञानुसार अपने धर्म में स्थित हैं॥ ८॥
श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः । इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ॥ ९ ॥
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । ते सर्वार्थष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥१०॥
योऽवमन्येत ते मूले हेतुशालाश्रयाद्विजः । स साधुभिर्वहिष्कार्यों नास्तिको वेदनिन्दकः॥ ११ ॥
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥ १२ ॥
अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते । धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ॥ १३ ॥
श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ ॥ उभावपि हि तौ धौं सम्यगुक्तौ मनीषिभिः ॥ १४ ॥
उदितेऽवदिते चैव समयाध्युषिते तथा । सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः ॥ १५ ॥
श्रुति और स्मृति में कहे हुए धमकी करने से मनुष्य इस लोक में कीर्ति पाता है और परलोक में स्वर्ग आदे उत्तम सुख प्राप्त करता है ॥ ९ ॥ वेद को श्रुति और धर्मशास्त्र को स्मृति कहते हैं, ये दोनों सब प्रयो-जनों में अतयं हैं अर्थात् इनमें किसी प्रकार का तर्क नहीं करना चाहिये, क्योंकि सम्पूर्ण धर्म इन्हीं से प्रकाशित हुआ है ॥ १० ॥ जो द्विज कुतर्क से धर्ममूल श्रुति और स्मृतिका अपमान करता है वह वेदनिन्दक नास्तिक मजनों के समाज से बाहर कर देने योग्य है ॥ ११ ॥ वेद, धर्मशास्त्र, सज्जनों का आचार और आत्मसन्तुष्टि, ये चार साक्षात् धर्म के लक्षण कहेगये हैं ॥ १२ ॥ अर्थकामना से रहित मनुष्यों में ही धर्मज्ञान होताहै, धर्म को जानने की इच्छा वाले मनुष्यों के लिये वेद ही श्रेष्ठ प्रमाण है ॥ १३ ॥ जहां वेदों में परस्पर विरुद्ध दो प्रकार के धर्म हैं वहां ऋषियों ने दोनों को करने को कहा है, क्योंकि पहिले के पण्डितों ने भी दोनों का वर्णन किया है ॥ १४॥ जैसे वेदकी श्रुति है कि सूर्य के उदयकाल में, सूर्य के अस्त होते समय में और सूर्य तथा नक्षत्र सहित कालमें होम करे समयमें परस्पर विरोध होनेपर भी अधिकारि भेद से पूर्वोक्त
सब समय में ही होम करना योग्य है॥ १५ ॥
देशे काल उपायेन द्रव्यं श्रद्धासमन्वितम् । पात्रे प्रदीयते यत्तत्सकलं धर्मलक्षणम् ॥ ६ ॥
इज्याचारदमाहिंसा दानं स्वाध्यायकर्म च । अयन्तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् ॥ ८ ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । दानं दया दमः शान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥१२२ ॥
जो द्रव्य पवित्र देश और पुण्य समय में शास्त्रोक्त विधि से सत्पात्र को श्रद्धापूर्वक दियाजाताहै, वह और इसी प्रकार के यज्ञादिक कर्म धर्म के लक्षण हैं ॥ ६ ॥ यज्ञ, आचार, इन्द्रियोंका दमन, अहिंसा, दान
और वेदाध्ययन, इन सबसे बड़ा धर्म योगद्वारा आत्माका दर्शन करना है ॥ ८ ॥ हिंसा नहीं करना, सत्य वोलना, चोरी नहीं करना, पवित्र रहना, इन्द्रियोंको वशमें रखना, दान देना, सबपर दया करना, मनका
संयम रखना और क्षमा करना, ये ब्राह्मणसे चाण्डालतक सब मनुष्योंके धर्म साधन हैं ॥
Vyash smriti Adhyaha 4, श्लोक व्यासस्मृति-४ अध्याय ।
अशाश्वतानि गात्राणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥ १९ ॥
प्राणनाशस्तु कर्तव्यो यः कृतार्थो न सो मृतः। अकृतार्थस्तु यो मृत्यु प्राप्तः खरसमो हि सः॥२५॥
शरीर और धन आदि विभव सदा नहीं रहता है और मृत्यु नित्य समीप में रहती है, इसलिये धर्म का संग्रह करना उचित है ॥१९॥
एक दिन अवश्य मरना होगा; परन्तु कृतार्थ (धर्मिष्ठ ) मनुष्य मरता नहीं अर्थात् उसका नाम जीता रहता है; जो अकृतार्थ (अधर्मी ) मनुष्य मरता है वह गधे के समान है ॥ २५ ॥
Vashisth smriti Adhyaya 1 श्लोक वसिष्ठस्मृति-१ अध्याय ।
ज्ञात्वा चानुतिष्ठन्धार्मिकः प्रशस्यतमो भवति लोके प्रेत्य च स्वर्ग लोकं समश्नुते ॥ २॥
श्रुतिस्मृतिविहितो धर्मः ॥ ३ ॥
तदलाभे शिष्टाचारः प्रमाणम् ॥ ४ ॥
जो मनुष्य जानकर धर्मका सेवन करता है वह इस लोकमें धर्मात्मा कहाता है और प्रशंसा के योग्य होता है और मरने पर स्वर्ग का सुख भोग करता है ॥ २ ॥ वेद और धर्मशास्त्र में विधान किये हुए कर्म धर्म कहलाते हैं ॥ ३ ॥ जिसका प्रमाण वेद तथा धर्मशास्त्रमें नहीं है उसके लिये शिष्ट लोगोंका आचार ही प्रमाण है ॥४॥
manusmriti
Vyash smriti
Yajnavalkya smriti
मनुस्मृति
मनुस्मृति श्लोक
मनुस्मृति में क्या लिखा है?
मनुस्मृति में शूद्रों के बारे में क्या लिखा है?
मनुस्मृति के रचयिता कौन थे?
मनु कौन सी जाति का है?
मनुस्मृति जातिवाद
मनुस्मृति अध्याय 7
मनुस्मृति के विवादित श्लोक
मनुस्मृति श्लोक अर्थ सहित
असली मनुस्मृति
मनुस्मृति, अध्याय 10
मनुस्मृति अध्याय 3
मनुस्मृति में विवाह
मनुस्मृति अध्याय 1
मनुस्मृति श्लोक अर्थ सहित
मनुस्मृति अध्याय 8
मनुस्मृति में कितने अध्याय हैं
मनुस्मृति अध्याय 11
मनुस्मृति, अध्याय 10
मनुस्मृति अध्याय 5 श्लोक 30
मनुस्मृति अध्याय 3
धार्मिक ग्रंथ
श्रुति और स्मृति
सभी स्मृति ग्रंथ
याज्ञवल्क्य के गुरु
याज्ञवल्क्य की कहानी
याज्ञवल्क्य स्मृति के लेखक
याज्ञवल्क्य की पत्नियां
याज्ञवल्क्य मराठी
याज्ञवल्क्य नाम का अर्थ
व्यवहाराध्याय
याज्ञवल्क्य का जीवन परिचय
0 Comments