shrimad bhagwat puran hindi katha श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कन्धके चतुर्विंश अध्याय श्लोक 1-15 में परमात्मा श्री कृष्ण उद्धवजी को सांख्य शास्त्र के ज्ञान का उपदेश करतें है |
युगों से पूर्व प्रलयकाल में आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेक निपुण होते हैं-इन सभी अवस्थाओं में यह सम्पूर्ण दृश्य और दृष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेदभाव से रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल-अद्वितीय सत्य है; मन और वाणी की उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीव के रूप में-दृश्य और दृष्टा के रूप में-दो भागों में विभक्त-सा हो गया। उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं। उद्धव जी! मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण प्रकट हुए। उनसे क्रिया-शक्ति प्रधान सूत्र और ज्ञानशक्ति प्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्तत्त्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ।
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यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है। वह तीन प्रकार का है-सात्त्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है; इसलिये वह जड़-चेतन-उभयात्मक है। तामस अहंकार से पंचतन्मात्राएँ और उनसे पाँच भूतों की उत्पत्ति हुई तथा राजस अहंकार से इन्द्रियाँ और सात्त्विक अहंकार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता ग्यारह देवता[1] प्रकट हुए। ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होंने यह ब्रह्माण्डरूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड जल में स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूप से इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभि से विश्वकमल की उत्पत्ति हुई। उसी पर ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ। विश्वसमष्टि के अन्तःकरण ब्रह्मा ने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुण के द्वारा भूः, भुवः, स्वः अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग- इन तीन लोकों की और इनके लोकपालों की रचना की। देवताओं के निवास के लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादि के लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदि के लिये भूर्लोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकों से ऊपर महर्लोक, तपोलोक आदि सिद्धों के निवास स्थान हुए। सृष्टिकार्य में समर्थ ब्रह्मा जी ने असुर और नागों के लिये पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकों में त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं। योग, तपस्या और संन्यास के द्वरा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोग से मेरा परमधाम मिलता है। यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारों से युक्त है। मैं ही कालरूप से कर्मों के अनुसार उनके फल का विधान करता हूँ। इस गुणप्रवाह में पड़कर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है-कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यवश उच्च गति प्राप्त हो जाती है।
shrimad bhagwat puran hindi katha कृष्ण और उद्धवजी संवाद सांख्य शास्त्र पर चर्चा
जगत् में छोटे-बड़े, मोटे-पतले-जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही सिद्ध होते हैं। जिसके आदि और अन्त में जो है, वही बीच में भी है और वही सत्य है। विकार तो केवल व्यवहार के लिये की हुई कल्पनामात्र है। जैसे कंगन-कुण्डल आदि सोने के विकार और घड़े-सकोरे आदि मिट्टी के विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बाद में भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे। अतः बीच में भी वे सोना या मिट्टी ही हैं। पूर्ववर्ती कारण (महत्तत्त्व आदि) भी जिस परम कारण को उपादान बनाकर अपर (अहंकार आदि) कार्य-वर्ग की सृष्टि करते हैं, वही उनकी अपेक्षा भी परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्य के आदि और अन्त में विद्यमान रहता है, वही सत्य है। इस प्रपंच का उपादान-कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करने वाला काल है। व्यवहार-काल की यह त्रिविधता वस्तुतः ब्रह्म-स्वरूप है और मैं वही शुद्ध ब्रह्म हूँ। जब तक परमात्मा की ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है, जब तक उनकी पालन-प्रवृत्ति बनी रहती है, तब तक जीवों के कर्मभोग के लिये कारण-कार्यरूप से अथवा पिता-पुत्रादि के रूप से यह सृष्टि चक्र निरन्तर चलता रहता है। यह विराट् ही विविध लोकों की सृष्टि, स्थिति और संहार की लीलाभूमि है। जब मैं कालरूप से इसमें व्याप्त होता हूँ, प्रलय का संकल्प करता हूँ, तब यह भुवनों के साथ विनाशरूप विभाग योग्य हो जाता है। उसके लीन होने की प्रक्रिया यह है कि प्राणियों के शरीर अन्न में, अन्न बीज में, बीज भूमि में और भूमि गन्ध-तन्मात्रा में लीन हो जाती है। गन्ध जल में, जल अपने गुण रस में, रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है। रूप वायु में, वायु स्पर्श में, स्पर्श आकाश में तथा आकाश शब्दतन्मात्रा में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओं में और अन्ततः राजस अहंकार में समा जाती हैं। हे सौम्य! राजस अहंकार अपने नियन्ता सात्त्विक अहंकाररूप मन में, शब्दतन्मात्रा पंचभूतों के कारण तामस अहंकारों में और सारे जगत् को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहंकार महत्तत्त्व में लीन हो जाता है। ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति प्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणों में लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृति में और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी काल में लीन हो जाती है। काल मायामय जीव में और जीव मुझ अजन्मा आत्मा में लीन हो जाता है। आत्मा किसी में लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है। वह जगत् की सृष्टि और लय का अधिष्ठान एवं अवधि है। उद्धव जी! जो इस प्रकार विवेकदृष्टि से देखता है, उसके चित्त में यह प्रपंच का भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाये तो वह अधिक काल तक हृदय में ठहर कैसे सकता है? क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अन्धकार ठहर सकता है। उद्धव जी! मैं कार्य और कारण दोनों का ही साक्षी हूँ। मैंने तुम्हें सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टि तक की सांख्यविधि बतला दी। इससे सन्देह की गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।
जय श्री कृष्ण शरणं मम्
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