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garud puran अध्याय 1 गरुड़ पुराण के अनुसार स्वर्ग और नरक तथा कौन से पाप की कौन सी सजा मिलती है?

garud puran अध्याय 1 गरुड़ पुराण के अनुसार स्वर्ग और नरक तथा कौन से पाप की कौन सी सजा मिलती है?, भयंकर यमदूत यममार्ग की यातना गरुडपुराण सारोद्धार।



सुकृतं दुष्कृतं वाऽपि भुक्त्वा पूर्वं यथार्जितम् । कर्मयोगात् तदा तस्य कश्चिद्व्याधिः प्रजायते॥१९॥ 
आधिव्याधिसमायुक्तं जीविताशासमुत्सुकम् । कालो बलीयानहिवदज्ञातः प्रतिपद्यते॥२०॥ 
तत्राप्यजातनिर्वेदो म्रियमाणः स्वयम्भृतैः। जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे॥२१॥ आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल इवाहरन्आमयाव्यप्रदीप्ताग्निरल्पाहारोऽल्पचेष्टितः॥२२॥ 
वायुनोत्क्रमतोत्तारः कफसंरुद्धनाडिकः। कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते॥२३॥ 

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यथोपार्जित पुण्य और पापके फलोंको पूर्वमें भोगकर कर्मके सम्बन्धसे उसे कोई शारीरिक रोग हो जाता है॥१९॥ आधि (मानसिक रोग) और व्याधि (शारीरिक रोग)-से युक्त तथा जीवनधारण करनेकी आशासे उत्कण्ठित उस व्यक्तिकी जानकारीके बिना ही सर्पकी भाँति बलवान् काल उसके समीप आ पहुँचता है॥२०॥ 

उस मृत्युकी सम्प्राप्तिकी स्थितिमें भी उसे वैराग्य नहीं होता। उसने जिनका भरण-पोषण किया था, उन्हींके द्वारा उसका भरण-पोषण होता है, वृद्धावस्थाके कारण विकृतरूपवाला और मरणाभिमुख वह व्यक्ति घर में अवमानना पूर्वक दी हुई वस्तुको कुत्ते की भाँति खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है। वह रोगी हो जाता है, उसे मन्दाग्नि हो जाती है और उसका आहार तथा उसकी सभी चेष्टाएँ कम हो जाती हैं ॥ २१-२२॥ 

प्राणवायुके बाहर निकलते समय आँखें उलट जाती हैं, नाडियाँ कफसे रुक जाती हैं, उसे खाँसी और श्वास लेनेमें प्रयत्न करना पड़ता है तथा कण्ठसे घुर्-घुर्-से शब्द निकलने लगते हैं ॥ २३॥ 


Garuda Puran के अनुसार यमदूत प्राण व आत्मा को कैसे ले जाते है।


शयानः परिशोचद्भिः परिवीतः स्वबन्धुभिः। वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशंगतः॥२४॥ एवं कुटुम्बभरणे व्यापृतात्माऽजितेन्द्रियः। म्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयास्तधीः॥२५॥ 
तस्मिन्नन्तक्षणे तार्क्ष्य दैवी दृष्टिः प्रजायते । एकीभूतं जगत्सर्वं न किंचिद्वक्तुमीहते॥२६॥ विकलेन्द्रियसंघाते चैतन्ये जडतां गते । प्रचलन्ति ततः प्राणा याम्यैर्निकटवर्तिभिः॥२७।। स्वस्थानाच्चलिते श्वासे कल्पाख्यो ह्यातुरक्षणः। शतवृश्चिकदंष्ट्रस्य या पीडा साऽनुभूयते॥२८॥ फेनमुगिरते सोऽथ मुखं लालाकुलं भवेत् । अधोद्वारेण गच्छन्ति पापिनां प्राणवायवः॥२९॥ 

चिन्तामग्न स्वजनोंसे घिरा हुआ तथा सोया हुआ वह (व्यक्ति) कालपाशके वशीभूत होनेके कारण बुलानेपर भी नहीं बोलता॥ २४॥ इस प्रकार कुटुम्बके भरण-पोषणमें ही निरन्तर लगा रहनेवाला, अजितेन्द्रिय व्यक्ति (अन्तमें) रोते-बिलखते बन्धु-बान्धवोंके बीच उत्कट वेदनासे संज्ञाशून्य होकर मर जाता है ॥ २५ ॥ हे गरुड! उस अन्तिम क्षणमें प्राणीको व्यापक (दिव्य) दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे वह लोक-परलोकको एकत्र देखने लगता है। अतः चकित होकर वह कुछ भी कहना नहीं चाहता ॥ २६॥ यमदूतोंके समीप आनेपर सभी इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं, चेतना जडीभूत हो जाती है और प्राण चलायमान हो जाते हैं ॥ २७॥ आतुरकालमें प्राणवायुके अपने स्थानसे चल देनेपर एक क्षण भी एक कल्पके समान प्रतीत होता है और सौ बिच्छुओंके डंक मारनेसे जैसी पीडा होती है, वैसी पीडाका उस समय (उसे) अनुभव होने लगता है ॥ २८॥ वह मरणासन्न व्यक्ति फेन उगलने लगता है और उसका मुख लारसे भर जाता है। पापीजनोंके प्राणवायु अधोद्वार (गुदामार्ग)-से निकलते हैं ॥२९॥


यमदूतौ तदा प्राप्तौ भीमौ सरभसेक्षणौ। पाशदण्डधरौ नग्नौ दन्तैः कटकटायितौ॥३०॥ 
ऊर्ध्वकेशौ काककृष्णौ वक्रतुण्डौ नखायुधौ। स दृष्ट्वा त्रस्तहृदयः सकृन्मूत्रं विमुञ्चति ॥३१॥ 
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो हाहा कुर्वन् कलेवरात् । तदैव गृह्यते दूतैर्याम्यैः पश्यन् स्वकं गृहम्॥३२॥ यातनादेहमावृत्य पाशैर्बद्ध्वा गले बलात् । नयतो दीर्घमध्वानं दण्ड्यं राजभटा यथा॥३३॥तस्यैवं नीयमानस्य दूताः संतर्जयन्ति च । प्रवदन्ति भयं तीव्र नरकाणां पुनः पुनः॥३४॥ 

उस समय दोनों हाथोंमें पाश और दण्ड धारण किये, नग्न, दाँतोंको कटकटाते हुए क्रोधपूर्ण नेत्रवाले यमके दो भयंकर दूत समीपमें आते हैं ॥३०॥ उनके केश ऊपरकी ओर उठे होते हैं, वे कौएके समान काले होते हैं और टेढे मुखवाले होते हैं तथा उनके नख आयुधकी भाँति होते हैं। उन्हें देखकर भयभीत हृदयवाला वह मरणासन्न प्राणी मल मूत्रका विसर्जन करने लगता है ॥ ३१ ॥ अपने पांचभौतिक शरीरसे हाय-हाय करते हुए निकलता हुआ तथा यमदूतोंके द्वारा पकड़ा हुआ वह अंगुष्ठमात्र प्रमाणका पुरुष अपने घरको देखता हुआ यमदूतोंके द्वारा यातनादेहसे ढक करके गले में बलपूर्वक पाशोंसे बाँधकर सुदूर यममार्गपर यातनाके लिये उसी प्रकार ले जाया जाता है, जिस प्रकार राजपुरुष दण्डनीय अपराधीको ले जाते हैं ॥ ३२-३३॥ इस प्रकार ले जाये जाते हुए उस जीवको यमके दूत तर्जना करके डराते हैं और नरकोंके तीव्र भयका पुनः-पुनः वर्णन करते हैं सुनाते हैं- ॥३४॥


Garud Puran के अनुसार सभी प्रकार के नरको का वर्णन।


शीघ्रं प्रचल दुष्टात्मन् यास्यसि त्वं यमालयम्। कुम्भीपाकादिनरकांस्त्वां नयावोऽद्य मा चिरम्॥ ३५॥ 


यमदूत कहते हैं, रे दुष्ट! शीघ्र चल, तुम यमलोक जाओगे। आज तुम्हें हम सब कुम्भीपाक आदि नरकोंमें शीघ्र ही ले जायेंगे॥ ३५॥ 



एवं वाचस्तदा शृण्वन् बन्धूनां रुदितं तथा । उच्चैाहेति विलपस्ताड्यते यमकिङ्करैः॥३६॥ तयोर्निर्भिन्नहृदयस्तर्जनैर्जातवेपथुः । पथि श्वभिर्भक्ष्यमाण आर्तोऽधं स्वमनुस्मरन्॥३७।। क्षुत्तृट्परीतोऽर्कदवानलानिलैः संतप्यमानः पथि तप्तबालुके। कृच्छ्रेण पृष्ठे कशया च ताडितश्चलत्यशक्तोऽपि निराश्रमोदके॥३८॥ तत्र तत्र पतञ्छ्रान्तो मूछितः पुनरुत्थितः। यथा पापीयसा नीतस्तमसा यमसादनम्॥३९॥ 


इस प्रकार यमदूतोंकी वाणी तथा बन्धु-बान्धवोंका रुदन सुनता हुआ वह जीव जोरसे हाहाकार करके विलाप करता है और यमदूतोंके द्वारा प्रताड़ित किया जाता है॥३६॥ यमदूतोंकी तर्जनाओंसे उसका हृदय विदीर्ण हो जाता है, वह काँपने लगता है, रास्तेमें उसे कुत्ते काटते हैं और अपने पापोंका स्मरण करता हुआ वह पीड़ित जीव (यममार्गमें) चलता है॥३७॥ भूख और प्याससे पीड़ित होकर सूर्य, दावाग्नि एवं वायु (-के झोंकों)-से संतप्त होते हुए और यमदूतोंके द्वारा पीठपर कोड़ेसे पीटे जाते हुए उस जीवको तपी हुई बालुकासे पूर्ण तथा विश्रामरहित और जलरहित मार्गपर असमर्थ होते हुए भी बड़ी कठिनाईसे चलना पड़ता है॥३८॥ थककर जगह-जगह गिरता और मूछित होता हुआ वह पुनः उठकर पापीजनोंकी भाँति अन्धकारपूर्ण यमलोकमें ले जाया जाता है ॥ ३९ ॥ 


गरुड पुराण के अनुसार मृत्यु के बाद का सफ़र कैसा होता है।


त्रिभिर्मुहूर्तंभ्यां वा नीयते तत्र मानवः। प्रदर्शयन्ति दूतास्ता घोरा नरकयातनाः॥४०॥ 
मुहूर्तमात्रात् त्वरितं यमं वीक्ष्य भयं पुमान् । यमाज्ञया समं दूतैः पुनरायाति खेचरः॥४१॥ आगम्य वासनाबद्धो देहमिच्छन् यमानुगैः। धृतः पाशेन रुदति क्षुत्तृड्भ्यां परिपीडितः॥४२॥ 


दो अथवा तीन मुहूर्तमें वह मनुष्य वहाँ पहुँचाया जाता है और यमदूत उसे घोर नरक यातनाओंको दिखाते हैं ॥ ४०॥ मुहूर्तमात्रमें यमको और नारकीय यातनाओंके भयको देखकर वह व्यक्ति यमकी आज्ञासे आकाशमार्गसे यमदूतोंके साथ पुनः इस लोक (मनुष्यलोक)-में चला आता है॥४१॥ मनुष्यलोकमें आकर अनादि वासनासे बद्ध वह जीव देहमें प्रविष्ट होनेकी इच्छा रखता है, किंतु यमदूतोंद्वारा पकड़कर पाशमें बाँध दिये जानेसे भूख और प्याससे अत्यन्त पीड़ित होकर रोता है॥४२॥ 



भुङ्क्ते पिण्डं सुतैर्दत्तं दानं चातुरकालिकम् । तथापि नास्तिकस्तार्क्ष्य तृप्तिं याति न पातकी॥४३॥ पापिनां नोपतिष्ठन्ति दानं श्राद्धं जलाञ्जलिः । अतः क्षुद्व्याकुला यान्ति पिण्डदानभुजोऽपिते॥४४॥ 
भवन्ति प्रेतरूपास्ते पिण्डदानविवर्जिताः। आकल्पं निर्जनारण्ये भ्रमन्ति बहुदुःखिताः॥४५॥ 


हे तार्क्ष्य! वह पातकी प्राणी पुत्रोंसे दिये हुए पिण्ड तथा आतुरकालमें दिये हुए दानको प्राप्त करता है तो भी उस नास्तिकको तृप्ति नहीं होती॥४३॥ पुत्रादिके द्वारा पापियोंके उद्देश्यसे किये गये श्राद्ध, दान तथा जलांजलि उनके पास ठहरती नहीं। अतः पिण्डदानका भोग करनेपर भी वे क्षुधासे व्याकुल होकर (यममार्गमें) जाते हैं ॥४४॥ जिनका पिण्डदान नहीं होता, वे प्रेतरूपमें होकर कल्पपर्यन्त निर्जन वनमें बहुत दुःखी होकर भ्रमण करते रहते हैं ॥ ४५ ॥ 



नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अभुक्त्वा यातनां जन्तुर्मानुष्यं लभते न हि॥४६॥ 
अतो दद्यात् सुतः पिण्डान् दिनेषु दशसु द्विज । प्रत्यहं ते विभाज्यन्ते चतुर्भागैः खगोत्तम॥४७॥ 
भागद्वयं तु देहस्य पुष्टिदं भूतपञ्चके । तृतीयं यमदूतानां चतुर्थं सोपजीवति॥४८॥ 
अहोरात्रैश्च नवभिः प्रेतः पिण्डमवाप्नुयात् । जन्तुनिष्यन्नदेहश्च दशमे बलमाप्नुयात्॥४९॥ 
दग्धे देहे पुनर्देहः पिण्डैरुत्पद्यते खग । हस्तामात्रः पुमान् येन पथि भुंक्ते शुभाशुभम्॥५०॥ 


सैकड़ों करोड़ कल्प बीत जानेपर भी बिना भोग किये कर्मफलका नाश नहीं होता और जबतक वह पापी जीव यातनाओंका भोग नहीं कर लेता, तबतक उसे मनुष्य-शरीर भी प्राप्त नहीं होता॥४६॥ हे पक्षी! इसलिये पुत्रको चाहिये कि वह दस दिनोंतक प्रतिदिन पिण्डदान करे। हे पक्षिश्रेष्ठ! वे पिण्ड प्रतिदिन चार भागोंमें विभक्त होते हैं। उनमें दो भाग तो प्रेतके देहके पंचभूतोंकी पुष्टिके लिये होते हैं, तीसरा भाग यमदूतोंको प्राप्त होता है और चौथे भागसे उस जीवको आहार प्राप्त होता है॥ ४७-४८॥ नौ रात-दिनोंमें पिण्डको प्राप्त करके प्रेतका शरीर बन जाता है और दसवें दिन उसमें बलकी प्राप्ति होती है॥४९॥ हे खग! मृत व्यक्तिके देहके जल जानेपर पिण्डके द्वारा पुनः एक हाथ लम्बा शरीर प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह प्राणी (यमलोकके) रास्तेमें शुभ और अशुभ कर्मोंके फलको भोगता है॥५०॥ 


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