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Satyanarayan vrat katha भविष्य पुराण मैं वर्णित श्री सत्यनारायण भगवान की सम्पूर्ण पौराणिक कथा पूजन विधि और व्रत करने के फल विधान

Satyanarayan vrat katha भविष्य पुराण मैं वर्णित श्री सत्यनारायण भगवान की सम्पूर्ण पौराणिक कथा, सत्यनारायण भगवान की असली कथा क्या है? भगवान विष्णु ने ब्रह्मऋषि नारद को सत्य सनातन अविनाशी श्री सत्य नारायण व्रत कथा, पूजन विधि और व्रत करने के फल विधान सुनाए, यह सनातन कथा भविष्य पुराण मै वर्णित है,


व्यास जी बोले, एक बार शौनक आदि ऋषिगण ने नैमिषारण्य में एकत्र होकर नम्रता पूर्वक पुराण वेत्ता सूत जी से पूछा, भगवन्लोक के कल्याणार्थ चारों युगों में पूजनीय सेवा करने योग्य और अभीष्ट फल प्रदान करने वाला कौन है जिससे मनुष्यों की शुभ कामनाएँ अनायास सफल हो सकें, ब्रह्मण और मनुष्यो के कीर्तिप्रद उस सत्य उपाय को बतलाने की कृपा कीजिये, 

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सूत जी बोले, मैं उन सत्यनारायण देव की सदैव आराधना करता हूँ जिसका नूतन कमल के समान नेत्र स्वयं लक्ष्मी की क्रीड़ा का पात्र चार भुजाएँ सुवर्ण के समान सौन्दर्य पूर्ण शरीर जगत् की रक्षा का मुख्य हेतु और शत्रुओं के लिए विनाश सूचक धूम्रकेतु रूप है, लक्ष्मण समेत भी रामचन्द्र की मैं वन्दना करता हूँ जो कारुणिक सीता सहित मात्विक जानकी के मुखकमल के लोभी भ्रमर पुलस्त्य वंश रावणादि के संहारक वंदनीय चरण कमल देवथेष्ट भक्तों पर अनुग्रह करने वाले एवं शत्रुघ्न हनुमान और भरत मे सुमवित तथा रघुकुल में उत्पन्न हैं, उस राजा का श्रेष्ठ चरित सुनो जो कलिमल नाशक कामनाओं की सिद्धि करने वाला श्रेष्ठ देवों के मुख का प्रकाशक ब्राह्मण द्वारा प्रकाशित देवों एवं विद्वानों का विलास साधुओं द्वारा विशेष महत्त्व प्राप्त एवं इतिहास रूप है, एक बार नारद योगी ने दूसरो पर कृपा करने की इच्छा मे सभी लोकों में विचरते हुए इस मनुष्यलोक में आगमन किया, यहाँ सभी जन वर्ग को देखकर जो अनके भाँति के दुःखों से दुःखी मानसिक शारीरिक रोगों से ग्रस्त दरिद्रता से पीड़ित और अपने कर्मों से परिपक्व हो रहे थे किस उपायं द्वारा इनके दुःख नष्ट होगे इसका अपने मन में विचार करते हुए वे उस समय विष्णु के लोक चले गये, वहाँ नारायण देव को देखकर जो शुक्लवर्ण चार भुजाएँ क्रमशः शंख चक्र गदा पद्म उनमें धारण किये वनमाला से सुशोभित प्रसन्नमुख शांत एवं सनकादि साधुओं से स्तुत हो रहे थे ऐसे उन देवाधिदेव की स्तुति करना प्रारम्भ किया,



Satyanarayan vrat katha सत्य नारायण व्रत कथा पहला अध्याय, ब्रह्मऋषि नारद द्वारा भगवान श्री विष्णु की स्तुति,

नारद बोले, वाणी एवं मन से अगोचर रूप वाले उस अनंत शक्ति वाले देव को नमस्कार है जो आदि मध्य एवं अन्तहीन निर्गुण तथा महात्मा है और सभी के आदि काल में रहने वाला लोक का उपकारक एवं अजेय परिमाण वाला है उस तपोनिधि को बारबार नमस्कार है, ब्रह्मऋषि नारद के आग्रह पर भगवान विष्णु ने सत्य सनातन अविनाशी व्रत की व्याख्या की

सूत जी बोले, इस प्रकार की स्तुति सुनकर विष्णु ने नारद से कहा, महाभाग आपका आगमन कैसे हुआ और आप क्या चाहते है सभी बातें बताइये, मैं उन्हें उनकी प्राप्ति के कारण समेत तुम्हें बताऊँगा, इसे सुनकर नारद ने विष्णु जी से उन समस्त कारणों को बताया, नारद की बातें सुनकर उन्होंने साधु साधु कहकर उनका अधिक सम्मान प्रकट किया और कहा, नारद मैं एक सनातन अविनाशी व्रत की व्याख्या तुम्हें बताऊँगा जो सत्य त्रेतायुग तथा द्वापर में अनेक रूपधारी विष्णु और कलियुग में प्रत्यक्ष फलप्रदायक वही व्यापक सत्यनारायण रूप हैं, धर्म के चार चरण बताये गये हैं किन्तु उसका मुख्य साधन सत्य है क्योकिं सत्य के द्वारा लोक का धारण होता है और उसी सत्य में ब्रह्म प्रतिष्ठित है अतः उस सत्य नारायण का व्रत अत्यन्त श्रेष्ठ है, 



Satyanarayan vrat katha नारद जी भगवान विष्णु से बोले प्रभु आप सत्य नारायण पूजा उसका फल एवं विधान बताने की कृपा कीजिये.


भगवान् की ऐसी बातें सुनकर नारद पुनः बोले, देव कृपानिधे सत्यनारायण देव की पूजा करने में उसका फल एवं विधान बताने की कृपा कीजिये, श्री भगवान् बोले, नारायण की पूजा करने से जितने फल की प्राप्ति होती है उसका वर्णन करने में चार मुख वाले ब्रह्मा भी असमर्थ हैं, इसलिए मैं तुम्हारे सम्मुख संक्षेप में उसका वर्णन कर रहा हूँ सुनो उसे सुसम्पन्न करने से निर्धन धनवान् अपुत्री पुत्रवान् अपहरण किये गये राज्य का लाभ अंधे को सुन्दर नेत्र बँधे हुए को बंधन मोक्ष भय भीत निर्भय की प्राप्ति करता है तथा मन में उत्पन्न सभी कामनाओं की सफलता प्राप्त होती है, ब्राह्मण इस जन्म में भक्ति समेत सविधान उसे सुसम्पन्न करने से उसको मनोरथ की पूर्ति शीघ्र होती है इसमें विचार करने की आवश्यकता नहीं 



Satyanarayan vrat katha संकल्प कैसे करे,

प्रातः काल दातून समेत स्नान करने के उपरांत संध्यादि कर्म से पवित्र होकर तुलसी की मंजरी हाथ में लेकर सत्यस्थित भगवान् का ध्यान करना चाहिए, मैं उस नारायण देव को आराधना कर रहा हूँ जो सघन बादलों की भाँति स्वच्छ चार भुजाएँ अत्यन्त उत्तम पीताम्बर प्रसन्न मुख नवीन कमल की भांति नेत्र एवं सनक आदि मुनियों से सुसेवित हैं, देव मैं तुम्हारा व्रतानुष्ठान कर रहा हूँ संध्या के समय में तुम्हारी पूजा करके कथा श्रवण करूँगा और पश्चात् अन्त में आप के प्रसाद का सेवन करूँगा, इस प्रकार मानसिक संकल्प करके सायंकाल में उनकी विधिवत् पूजा करनी चाहिए,



Satyanarayan vrat katha पूजन विधि और छह अध्याय वाली सत्य प्रधान पवित्र कथा श्रवण करना चाहिए.

पाँच कलशों को सुसज्जित करके कदली केले के तोरण समेत आत्म सूक्त द्वारा सुवर्ण युक्त शालिग्राम की अर्चना करते हुए पंचामृत से स्नान करा कर चन्दन चर्चित कर देना चाहिए, और भगवान् सत्यदेव का ध्यान करता हुआ मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ और चारों पदार्थ के दाता को बार बार नमस्कार है एक सौ आठ १०८ बार इसका जप कर के इसके दशांश से हवन तर्पण और मार्जन सुसम्पन्न करते हुए भगवान् की इस छह अध्याय वाली सत्य प्रधान पवित्र कथा का श्रवण करना चाहिए, 



Satyanarayan vrat katha प्रसाद वितरण विधि.

उपरांत उनके प्रसाद को विभक्त करके श्रोताओं आदि को देना चाहिए पहला भाग आचार्य को दूसरे अपने बन्धु वर्ग को तीसरा श्रोताओं को और चौथा भाग अपने लिए रखकर ब्राह्मणों को सप्रेम भोजन से सन्तुष्ट करके स्वयं भी मौन होकर भोजन करे,



Satyanarayan vrat katha भगवान विष्णु नारद जी से बोले,

देवर्षि इस विधान द्वारा यदि श्रद्धा भक्ति समेत सत्य नारायण की पूजा सुसम्पन्न हो तो व्रत करने वाले उस मनुष्य की सभी कामनाएँ इसी जन्म में सफल हो जाती हैं, इस जन्म में किये हुए कर्मों के फल दूसरे जन्म में और दूसरे जन्म में किये गये कर्मों के फल मनुष्यों को सदैव भोगने पड़ते हैं, किन्तु सत्य नारायण का व्रत इसी जन्म में सभी कामनाएँ सफल करता है, अतः मैं आज ही इसकी प्रतिष्ठा संसार के मध्यभाग में करने जा रहा हूँ इतना कह कर विष्णु देव अन्तर्हित हो गये और नारद ने स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया, पश्चात् सत्य नारायण देव का काशीपुरी में आगमन हुआ,  श्री भविष्यमहापुराण के प्रतिसर्ग पर्व में श्रीसत्यनारायणव्रतमाहात्म्य वर्णन नामक चौबीसवाँ पहले अध्याय की कथा यही समाप्त होती है, 






Satyanarayan vrat katha सत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक व्रत कथा दूसरा अध्याय सम्पूर्ण पाठ. सत्य नारायण व्रत माहात्म्य रहस्य का सम्पूर्ण वर्णन,


नमः सत्यनारायणायास्य कर्त्रे नमः शुद्धसत्वाय विश्वस्य भवं ॥ करालाय कालाय विश्वस्य हरॆ नमस्ते जगन्मङ्गलायात्ममूर्ते॥ धन्योऽस्म्यद्य कृती धन्यो भवोऽद्य सफलो मम । नाङ्मनोगोचरो यस्त्वं मम प्रत्यक्षमागतः ॥



सूत जी बोले,


मैं विष्णु भगवान् और ब्राह्मण के संवाद विषयक इतिहास की चर्चा कर रहा हूँ जिसमें भगवान् ने ब्राह्मण द्वारा अपने स्वयं को कृपया प्रकट किया है, ख्याति प्राप्त काशीपुरी में शतानन्द नामक एक भिक्षुक ब्राह्मण रहता था जो दीन हीन गृहस्थ पुत्र कलत्र समेत विष्णु के व्रत का पारायण करने वाला था, एक बार भिक्षा के लिए जाते हुए मार्ग में विनय विनम्र एवं अति शांत उस ब्राह्मण के सम्मुख लक्ष्मी पति भगवान् दिखायी पड़े, वृद्ध ब्राह्मण का वेष धारण कर भगवान् ने उस ब्राह्मण से पूँछा, द्विज श्रेष्ठ आप अपनी जीविका के लिए कहाँ जा रहे हैं,

शतानन्द ब्रह्मण ने कहा,

सौम्य मेरी भिक्षा वृत्ति है इसलिए अपने परिवार के पोषणार्थ मैं धनवानों के यहाँ भिक्षा की याचना करने जा रहा हूँ, 

नारायण बोले,

ब्राह्मण निर्धन होने के नाते आप बहुत दिनों से भिक्षा की याचना ही सदैव करते आये हैं अतः इस कलियुग में इससे मुक्त होने के लिए मैं निश्चित उपाय बता रहा हूँ, विप्र मेरे उपदेश से आप सत्य नारायण देव की आराधना कीजिये, भगवान् का चरण दरिद्र एवं शोक का नाशक तथा संतापहारी है अतः उनकी सेवार्थ उस मोक्षप्रद एवं कमलनेत्र वाले की शरण में अवश्य प्राप्त होना चाहिए, इस प्रकार करुणा सागर भगवान् विष्णु के कहने पर वह 

ब्राह्मण बार बार आग्रह कर कहने लगा कि 

सत्य नारायण कौन है, 

वृद्ध बाह्मण बोले, जो सत्य नारायण अनेक रूप वाले सत्यप्रतिज्ञ सभी में व्यापक तथा त्रिगुण रहित हैं वे इस समय ब्राह्मण वेष धारण कर तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हैं, भगवान् का चरण दुःख सागर में डूबने वाले प्राणियों के लिए नौका रूप है इसलिए बुद्धिमान् पुरुष हो उनकी शरण में प्राप्त होते हैं न कि अन्य विषयाभिलाषी, विप्र संसार के कल्याणार्थ पूजन सामग्री एकत्र करके उसी द्वारा उनकी अर्चना एवं ध्यान करते हुए उसे विख्यात करो, इस प्रकार कहने वाले उन पुरुषोत्तम को ब्राह्मण ने इस भाँति देखा जिसको नवीन मेघ की भांति श्यामल वर्ण चारो बाहुओं में क्रमशः गदा आदि से भूषित पीताम्बर ओढ़े नवीन कमल के समान नेत्र मन्द मुसुकान वन माला पहने भ्रमरों द्वारा चरण कमल चुम्बित हो रहा है, उन्हें देखकर हर्षा तिरेक से गद्गद् होकर प्रेमपूर्ण नेत्रों वाला वह ब्राह्मण अपनी गद्गद्वाणी द्वारा स्तुति करता हुआ पृथिवी में गिरकर दण्डवत् करने लगा, मैं उस जगन्नाथ को प्रणाम करता हूँ जो जगत् के कारण अनाथ के नाथ कल्याणप्रद शरण दायक अघहीन पवित्र अव्यक्त को व्यक्त करने वाले एवं तीनों तापों के शमन करने वाले हैं, सत्य नारायण को नमस्कार है इसके कर्ता को नमस्कार है जो शुद्ध सत्त्व विश्व का पालन पोषण करने वाला कराल काल की मूर्ति धारण कर संसार का अपहरण करने वाला एवं जगत् की मांगलिक मूर्ति है, आप वाणी एवं मन से अगोचर अप्रत्यक्ष होते हुए भी मुझे दर्शन दिया अतः आज मैं धन्य हूँ कृतकार्य हो गया हूँ और मेरा जन्म सार्थक हो गया, आज मैं अपन भाग्य का क्या वर्णन करूँ क्योंकि मैं नहीं जानता कि किस वाणी का यह फल मुझे आज प्राप्त हुआ कि मेरे ऐसे मंदभागी एवं अकर्मण्य की भी देह सफल हो गई, लोकनाथ रमापते किस विधान द्वारा आपका पूजन किया जायगा विभो उसे बताने की कृपा करें,

विश्व मोहन भगवान् विष्णु ने मन्द मुसुकान करते हुए उससे कहा,

विप्रेन्द्र मेरी पूजा में अधिक धन की आवश्यकता नहीं पड़ती है, अनायास जो कुछ प्राप्त हो जाये उस धन से तथा श्रद्धालु होकर मेरी पूजा करो और उसके द्वारा ग्राहग्रस्तगज एवं अजामिल की भाँति संकट मुक्त हो जाओ, विप्रेन्द्र मैं उस विधान को बता रहा हूँ सुनो जिसमें पूजा सामग्री एकत्रकर जिस विधान द्वारा पूजा सुसम्पन्न की जाती सेर के हिसाब से आधा या चौथाई भाग के गेहूँ का चूर्ण आटा में उतना ही दूध घी एवं शक्कर आदि मिलाकर वह प्रिय प्रसाद भगवान् को समर्पित करना चाहिए, गौ का दूध दही घी गंगा जल और शहद युक्त इस पंचामृत द्वारा उस शालग्राम मूर्ति का स्नान कराकर गंध पुष्प नैवेद्य धूप दीप एवं ताम्बूलादि से वेद मंत्रों के उच्चारण समेत उनकी अर्चना करके मिठाई तथा भक्ष्य भोज्य में ऋतु कालीन फलों एवं पुष्पों को समर्पित कर अपने बन्धुवर्ग एवं ब्राह्मणों समेत श्रद्धा सम्पन्न होकर मेरी उस कथा का श्रवण करना चाहिए,जिसमें राजा भिल्ल लकड़ी का विक्रेता और उस वैश्य का इतिहास वर्णित है, कथा की समाप्ति में भक्ति पूर्वक उन्हें प्रणाम कर प्रसाद का विभाग करना चाहिए, प्राप्त प्रसाद का सम्मान करते हुए बिना विचार किये ही उसका भक्षण कर लेना चाहिए, द्रव्यादि प्रदान द्वारा मैं उतना प्रसन्न नहीं होता हूँ जितना कि केवल भक्ति द्वारा विप्रेन्द्र जो मनुष्य इस विधान द्वारा मेरी पूजा करते हैं वे पुत्र पौत्र तथा धनों से सम्पन्न होकर उत्तम भोगों का उपभोग करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं पश्चात् प्राण परित्याग करने पर मेरे साथ रहकर आनन्दानुभव भी करते हैं जिस प्रकार की कामनाएँ होती जाती हैं व्रत करने वाले उस मनुष्य की वे सभी कामनाएँ उत्पन्न क्रमानुसार सफल होती रहती हैं,

इतना कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्हित हो गये.

और उस ब्राहाण को भी महान् सुख की प्राप्ति हुई, पश्चात् प्रणाम करके उस कौतुक में विभोर होता हुआ वह ब्राह्मण मन इच्छित दिशा की ओर चल दिया, आज भिक्षा में जो कुछ प्राप्त होगा उससे मैं नारायण की पूजा करूँगा, अपने मन में ऐसा निश्चय करके वह भिक्षुक ब्राह्मण नगर की ओर प्रस्थित हुआ, बिना याचना किये ही उसे अत्यन्त धन की प्राप्ति हुई यह देख कर वह कौतुक मग्न होकर अपने घर चला आया और अपनी पत्नी से समस्त वृतान्त कह सुनाया, वह ब्राह्मणी उसे सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने पति की आज्ञा से उस द्रव्य के भार को ग्रहण कर अपने बांधव मित्र तथा पड़ोसी आदि को आज मैं सत्य नारायण देव की पूजा करूँगी यह कहकर बुलवाया, उपरांत सभी के साथ भगवान् की पूजा सुसम्पन्न किया, उस भक्ति से भगवान् सत्य नारायण स्वयं प्रसन्न होकर कथा के अंत में उसकी कामनाओं की सफलता प्रदान करने के लिए वहाँ प्रादुर्भूत हुए, भगवान् भक्त वत्सल के कहने पर उस 

ब्राह्मण ने कहा, 

भगवन् पहले आप लोक पर लोक के सुखों को प्रदान करने वाली अपनी उस परा भक्ति को प्रदान कीजिये और उसे प्राप्त करने वाला व्रत पश्चात् रथ हाथी सुवर्ण खचित सुन्दर महल धन अनेक दास दासी गौ पृथिवी दूध देने वाली भैंस और अपनी सेवा प्रदान कीजिये, भगवान् नारायण उसे स्वीकार कर अन्तर्हित हो गये तथा ब्राह्मण कृतकृत्य हो गया, इसे देखकर सभी लोगों को महान् आश्चर्य हुआ, सभी लोगों ने दण्डवत् करके प्रसाद ग्रहण किया और ब्राह्मण के लिए धन्यधन्य कहते हुए अपने अपने घर को प्रस्थान किया, उसी समय से भगवान् सत्य नारायण देव की अर्चना प्रचलित हुई जो कामनाओं की सफलता भुक्ति मुक्ति की प्रदायक और पाप का नाश करने वाली है, इस प्रकार से सत्य नारायण व्रत कथा माहात्म्य रहस्य का दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ.







Satyanarayan vrat kathaसत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक व्रत कथा तीसरा अध्याय का सम्पूर्ण पाठ.


चन्द्रचूड नामक राजा की कथा इतिहास

वेद व्यास शिष्य सुत जी बोले

केदारमणि नगर में चन्द्रचूड नामक राजा रहता था जो परम धार्मिक प्रजा पालन में सदैव कटिबद्ध शांत मधुर भाषी धीर और नारायण का उपासक था,विंध्याचल निवासी म्लेच्छ गण उसके शत्रु थे जिन लोगों के साथ उस राजा का अत्यन्त भीषण युद्ध आरम्भ हुआ था, उस युद्ध में भुशुण्डी एवं परिघ आदि अस्त्रों के निपुण योद्धाओं द्वारा चन्द्रचूड की वह विशाल सेना नष्ट कर दी गई, उसमें सौ रथ उतने हाथी सहस्र घोड़े और पाँच सहन की पैदल सेना थी और पाँच सहस्र दस्युगण भी मृतक हुए जो कूटनीति से युद्ध कर रहे थे, ये सभी प्राणपरित्याग कर स्वर्ग पहुँच गये, पश्चात् उन म्लेच्छ योद्धाओं द्वारा वह पुण्यात्मा राजा घिर गया किसी भाँति वहाँ से निकल कर अकेले जंगल में पहुँचा तीर्थयात्रा के उद्देश्य से वह घूमता हुआ काशी नगर में पहुँचा, वहाँ प्रत्येक घरों में वन्दनीय नारायण देव को प्रतिष्ठित देखा पश्चात् द्वारावती की भाँति धन धान्य युक्त उस नगरी को भी देख, उसे देखकर राजा चन्द्रचूड अवाक् रह गये अनन्तर सत्य द्वारा धर्मशील समेत लक्ष्मी का अवरुद्ध होना देखकर उन्हें और भी महान् आश्चर्य हुआ, तदुपरान्त सत्य देव के अनन्य भक्त श्री सदानन्द जी को देख सुन कर उनके चरण पर गिर कर पुलकित शरीर से उन्हें प्रणाम करने लगा, द्विजराज महामते सदानन्द तुम्हें नमस्कार है मेरे राज्य का अपहरण हो गया, है अतएव मेरा उद्धार कीजिये, भगवान् लक्ष्मीकान्त जो जनार्दन कहे जाते हैं को प्रसन्न करने के लिए किसी पाप नाशक व्रत को बताइये, सदानन्द ने कहा एक सत्यनारायण देव का व्रत जो दुःख शोक आदि का नाशक धन धान्य का वर्द्धक सौभाग्य और संतान प्रदायक एवं सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है, 

सदानन्द बोले, 

सत्यनारायण देव की सेवा करने पर किस वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है अर्थात् सभी की प्राप्ति होती है उनकी अनुकम्पा से विहीन होने पर सुख का लेश मात्र भी नहीं प्राप्त होता है, दिन संध्या के समय में उनकी पूजा करनी चाहिए, केले के खम्भे लगाकर उसे तोरण द्वारा सुसज्जित करते हुए उस व्रती को चाहिए कि पाँच पताकाओं समेत पाँच कलशों की प्रतिष्ठा के अनन्तर उसके मध्य भाग में ब्राह्मणों द्वारा रमणीक वेदी का निर्माण कराये, उस पर सुवर्ण समेत शिलारूप की कृष्ण शालिग्राम को स्थापित कर प्रेम भक्ति पूर्वक गंधादि द्वारा उनकी पूजा करनी चाहिए, पश्चात् भूमिशायी होकर भगवान् का ध्यान करते हुए, उस राजा ने वहाँ काशीपुरी में देव की पूजा की उससे प्रसन्न होकर भगवान् ने राजा को एक उत्तम खड्ग प्रदान किया, उस शत्रु दलों के विनाशक खड्ग को ग्रहण कर सदानन्द को प्रणाम पूर्वक वह राजा केदारमणि नगर चला गया, वहाँ के छह सहस्र शत्रुओं के संहार द्वारा राजा उनसे अत्यन्त धन की प्राप्ति कर नर्मदा के शुभ तट पर भगवान् की व्रत पूजा सुसम्पन्न किया, अनन्तर वह श्रेष्ठ राजा प्रत्येक मास की पूर्णिमा के दिन प्रेम भक्ति में निमग्न होकर सत्य नारायण देव की पूजा करने लगा, उस व्रत के प्रभाव से वह एक लक्ष गाँवों का अधिपति हो गया, उसमें साठ वर्ष तक सुखोपभोग करके अन्त में विष्णु की पुरी में चला गया, इति इस प्रकार से सत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक व्रत कथा तीसरा अध्याय का सम्पूर्ण पाठ समाप्त हुआ। 


बोलो सत्य नारायण भगवान की जय




Satyanarayan vrat katha सत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक व्रत कथा चौथा अध्याय का सम्पूर्ण पाठ,


वेद व्यास शिष्य सूत जी बोले, 

इसके अनन्तर उस इतिहास को सुनो जिसमें भिन्न जातियों के निषाद गणों का जो काष्ठ वाहन लकड़ी ढोने का कार्य करते हुए उन जंगलों में नित्य घूमा करते थे कृतार्थ होना बताया गया है, एकबार जंगल से लकड़ी लेकर वे उसके विक्रयार्थ काशीपुरी में पहुँचे, उनमें से एक पिपासा से आकुल होकर किसी भगवद्भक्त के आश्रम में गया, वहाँ अत्यन्त ऐश्यर्व सम्पन्न ब्राह्मणों को देखा जो भगवान् की व्रत आराधना में लगे हुए थे, उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ जल पीकर वह सोचने लगा कि इन भिक्षुकों को धन की प्राप्ति कहाँ से हो गई, जो ब्राह्मण अत्यन्त अकिंचन दिखाई देता था वही आज महा धनवान् दिखाई दे रहा है क्या कारण है इस प्रकार अपने मन में विचार करके उसने उस ब्राह्मण श्रेष्ठ से पूँछा, ब्रह्मन् आप की दुर्गति का नाश एवं इस ऐश्वर्य की प्राप्ति कहाँ से हुई है, महाभाग इसे आप बताने की कृपा करें, मुझे सुनने की इच्छा हो रही है,  

निषाद ने कहा,

अहो उनका इतना महत्त्व है तो मुझे भी उन सत्य नारायण देव की अर्चना का विधान उपचार समेत बताने की कृपा कीजिये, क्योंकि उन साधुओं के लिए कष्ट नाशक कोई वस्तु गोप्य नहीं होती है, जो समचित्त उपकारो एवं सज्जन होते हैं, उन्हें विधान बताने के व्याज से उसे एक इतिहास बताया, केदारमणिपुर में चन्द्रचूड नामक राजा रहता है, वह मेरे आश्रम में आकर सत्यनारायण की अर्चना का विधान जानने के लिए मुझसे सादर अनुनय विनय करने लगा, निषाद पुत्र मैंने उससे जो कुछ कहा उसे बता रहा हूँ सुनो मनुष्यों को चाहिए कि अपनी कामनाओं का मानसिक सङ्कल्प करके या यूँ ही गेहूँ के पाव आध सेर आटे का शहद गंध घी एवं नैवेद्य द्वारा उत्तम प्रसाद पंजीरी बनाकर भगवान् को समर्पित करें, और पंचामृत से स्नान एवं चन्दनादि से पूजा सुसम्पन्न करके उन्हें खीर माल पूआ लपसी दही और दूध अर्पित करे, इस प्रकार अपने धनानुसार विस्तृत या लघु उनकी पूजा छोटे बड़े फलों पुष्पों तथा उत्तम धूपदीपों द्वारा भक्ति विभोर हुए सुसम्पन्न करनी चाहिए, क्योंकि केवल भक्ति द्वारा जितना वे प्रसन्न होते हैं उतना द्रव्यों के संभार द्वारा कभी नहीं, भगवान् सभी प्रकार से परिपूर्ण हैं अतः उनके विषय में कभी मान न करना चाहिए, इसीलिए विभु जनार्दन भगवान् ने दुर्योधन द्वारा की गई सेवा अस्वीकार करके विदुर के आश्रम में शाक का आतिथ्य सप्रेम स्वीकार किया, तथा सुदामा के उन चावल के कणों किन कियों का सप्रेम भक्षण करके भगवान् ने उन्हें मनुष्य दुर्लभ ऐश्वर्य प्रदान किया, अतः भगवान् केवल भक्ति मात्र की चाह करते हैं, गोप गण गीध जटायु वैश्य व्याघ हनुमान विभीषण और इस प्रकार अन्य पापात्मा वृत्रादि दैत्यगण आज भी भगवान् के समीप रहकर आनन्द का अनुभव कर रहे हैं, इसे सुन कर राजाने सादर सामग्री एकत्र करके उनकी पूजा की जिससे उन्हें धन की प्राप्ति हुई और आज भी नर्मदा के तट पर सुखानुभव कर रहे हैं, इसलिए निषाद तुभ भी प्रेम पूर्वक सत्य नारायण देव की आराधना करो जिससे इस लोक में सुखानुभव करने के उपरांत अंत समय में उनके समीप निवास करो, पश्चात् कृतकृत्य होकर वह निषाद उस द्विज श्रेष्ठ को प्रणाम करके वहाँ जाकर अपने साथियों से भगवान् का माहात्म्य कहने लगा, उसे सुनकर उन लोगों ने हर्ष विभोर होते हुए सादर प्रतिज्ञा की कि इन लकड़ियों के विक्रय करने पर जितने द्रव्य की प्राप्ति होगी उसके द्वारा हम लोग सपरिवार सविधान सत्यनारायण देव की पूजा करेंगे, ऐसा पन से निश्चय करके वे लोग लकड़ियों के विक्रय करके चौगुने धन की प्राप्ति पूर्वक प्रसन्न होते हुए अपने अपने घर चले गये। घर में पहुँच कर सभी आमूल वृत्तान्त स्त्रियों से कह सुनाया इसे सुनकर उन लोगों ने हर्षित होकर सादर उस पूजन को सम्पन्न किया, कथा श्रवण के उपरांत भक्ति पूर्वक प्रणाम करके प्रसाद ग्रहण किया अपनी जाति तथा इतर जाति के लोगों में उसका वितरण किया, द्विजोत्तम उस पूजा के प्रभाव से पुत्रस्त्री समेत वे भिल्लगण इस भूतल में द्रव्य एवं उत्तम ज्ञानचक्षु की प्राप्ति करके यथेच्छ भोगों को प्राप्त करने के उपरांत वे दरिद्रान्ध योगी दुर्लभ उस वैष्णवधाम को चले गये ।

Satyanarayan vrat katha सत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक व्रत कथा चौथा अध्याय सम्पूर्ण पाठ समाप्त हुआ। 

बोलो सत्य नारायण भगवान की जय.






Satyanarayan vrat katha सत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक व्रत कथा पांचवे अध्याय सम्पूर्ण पाठ कथा का वर्णन.


सूत जी बोले,

मैं अब तुम्हें उस साधु वैश्य का चरित सुनाऊँगा जो राजा के उपदेश देने पर कृतार्थ गया हो गया था, मणि नगर का महा यशस्वी राजा चन्द्रचूड अपनी प्रजाओं समेत सत्यनारायण प्रभु की अर्चना कर रहा था, उसी बीच रत्नपुर का लक्षपति एवं वैश्य जाति का साधु उस नाव पर बैठकर जिसमें अत्यन्त धन भरा हुआ था, जाते हुए अनेक ग्रामों एवं उसके निवासियों को देखते हुए एवं सुन्दर स्थाद को देखा जो मणि मोतियों द्वारा खचित वितानों से अलंकृत था, वहाँ वेद पाठ के श्रवण समेल गायन वाद्य भी सुना, उस रमणीक स्थान को देख कर उसने अपने सेवकों से कहा जो नाव चला रहे थे, नाव को यहाँ रोक दो क्योंकि मैं इस कौतुक को देखना चाहता हूँ, उन्होंने स्वामी की आज्ञा प्रदान करने पर अपने सहायकों समेत वैसा ही किया, उस नदी के तट पर उतर कर मल्ल युद्ध निपुण वे नाद चलाने वाले वहाँ के मल्लाहों के साथ अपने दाव पेच द्वारा युद्ध करते हुए मनोरञ्जन दिखाने लगे, उस साधु ने अपने मंत्री को साथ लेकर नाव से उतर कर सादर लोगों से पूछा, पश्चात् उस प्रशस्त यज्ञ स्थान को देखकर हर्षित होते हुए वहाँ भी गया, सज्जन वृन्दों आप महानुभाव यहाँ क्या कर रहे हैं इस प्रकार पूंछने पर उन सज्जनों ने कहा, लोगों पर अनुग्रह रखने वाले यहाँ के राजा अपने बन्धुदर्गों के साथ में सत्य नारायण देव की पूजा कर रहे हैं, इसी के प्रभाव से उन्हें निष्कण्टक राज्य की प्राप्ति हुई है, इसके श्रवण करने पर धनार्थी द्रव्य पुत्रेच्छुक उत्तम पुत्र ज्ञानार्थी ज्ञान नेत्र एवं भय भीत निर्वाण की प्राप्ति करते हैं, अर्थात् सत्यदेव की पूजा करने से मनुष्य की सभी कामनाएँ सफल होती हैं, उसके उपरांत पूजन के विधान को सुनकर गले में एक वस्त्र बाँध कर बार बार दण्डवत् प्रणाम करके उन सभ्य सज्जनों को प्रसन्न किया और कहा भी कि भगवन् मैं सन्तान हीन हूँ इसलिए मेरा ऐश्वर्य एवं उसके उपार्जन का उद्यम करना व्यर्थ है, किन्तु अपनी प्रसन्नता वश यदि मुझे इस अवस्था में भी किसी सन्तान पुत्र अथवा कन्या की प्राप्ति हो जाये तो मैं सुवर्ण की पताका के समर्पण द्वारा कृपानिधि भगवान् की पूजा करूँगा, इसे सुनकर उन सज्जनों ने कहा, तुम्हारी कामना सफल हो उपरांत उन सम्यों के प्रणाम पूर्वक प्रसाद भक्षण कर भगवान् का मानसिक चिन्तन करता हुआ वह वैश्य अपने घर को लौट आया, उसके आने पर घर की स्त्रियाँ हाथों में मांगलिक वस्तुओं को लेकर विचित्र भाँति के मांगलिक कर्म करने लगीं, अनन्तर उस साधु वैश्य ने उस महान् मांगलिक कौतुक समेत अपने नगर में प्रवेश किया, कुछ समय के उपरांत लीलावती नामक उसकी पत्नी ने ऋतु कालीन स्नान करके पति की सेवा शुश्रूषा द्वारा गर्भ धारण किया और समय प्राप्त होने पर उस पति परायण ने एक कन्या रत्न उत्पन्न किया जिसके कमल की भाँति विशाल तथा चपल नेत्र और जो स्वयं बन्धु वर्गों को आनन्द प्रदान करने वाली थी, उसे देखकर वह वैश्य आनन्द विभोर होकर अत्यन्त धन का वितरण करने लगा, वैदिक ब्राह्मणों को बुलाकर कर मंगल कर्म सुसम्पन्न करा कर ज्योतिषी ब्राह्मण द्वारा जन्म पत्री बनवाया और स्वयं उसका नामकरण कलावती किया, वह कलावती भी कलानिधि चन्द्र की कला की भाँति प्रतिदिन बढ़ने लगी, कन्यायें आठ वर्ष की अवस्था में गौरी नव वर्ष की अवस्था में रोहिणी दश वर्ष की अवस्था में कन्या और उसके पश्चात् प्रौढा एवं रजस्वला कही गई हैं, उसने समय पाकर अपनी कन्या की प्रौढ़ा वस्था देखकर उसके विवाहार्थ काञ्चनपुर नगर के निवासी उस शंखपति नामक वैश्य का जो कुलीन रूप सौन्दर्य युक्त शील एवं उदार आदि गुण युक्त था अपनी पुत्री के समान वर की उपलब्धि होने पर उसके लिए वरण किया, पश्चात् शुभ लगन में भाँति भाँति के अनेक मांगलिक समारोह समेत यथा विधान जिसमें वैदिक ध्वनियों से वह स्थान गुंजित हो रहा था उसके साथ अपनी कन्या का पाणिग्रहण सुसम्पन्न कराया, उस साधु ने उसकी मांगलिक कामना के निमित्त मणि मोती मूंगे वस्त्र एवं आभूषणों को प्रसन्नता में विभोर होकर प्रदान किया, पश्चात् अत्यन्त प्रेम के नाते उसे दामाद को अपने ही घर में रख लिया, वह साधु उससे पुत्र की भाँति प्रेम करने लगा और वह उससे अपने पिता की भाँति अधिक दिनों के बीत जाने पर सत्य नारायण की पूजा का स्मरण न रहा और अपने दामाद के साथ अपने व्यापार के लिए पुनः प्रस्थान भी किया, 


सूत जी बोले,

भाँति भाँति के रत्नों को अपनी नौका में रख कर वह साधु उस नाव द्वारा देश देशान्तर के लिए प्रस्थित हुआ नर्मदा नदी के तट पर एक नगर में पहुँच कर नाव रोक कर ठहर गया, क्रय विक्रय करता हुआ वह महात्मा वैश्य अधिक दिनों तक वहाँ रहने पर भी कर्म मन अथवा वाणी द्वारा सत्य नारायण की सेवा का स्मरण न कर सका जिससे उरा वैश्य को देव दुर्विपाक दुर्भाग्य वश शीघ्र ही उसके परिणाम स्वरूप संतप्त होना पड़ा, किसी दिन रात्रि के समय घने अंधकार में राजा के यहाँ सब को निद्रित समझकर चोरों ने वहाँ से अत्यन्त धन की चोरी की, प्रातः काल सूत मागध एवं बंदियों द्वारा जाग कर राजा प्रातः काल का कृत्य समाप्त करके सभा में प्रविष्ट हुआ कि राजा के प्रिय सेवकों ने वहाँ आकर कहा, पृथिवी पते मेरी बातों को सुनने की कृपा करें, मोतियों की मालाएँ और अनेक भाँति के रत्नों को चुराकर चोर गण भाग गये राजन् उनके विषय में हम लोग कुछ भी नहीं जानते हैं, इस प्रकार निवेदन करने पर पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ वह राजा क्रुद्ध होने के नाते रक्त नेत्र होकर कहने लगा, तुम लोग शीघ्र जाओ और धन समेत उन चोरों को मेरे सम्मुख उपस्थित करो, नहीं तो तुम्हें गण समेत प्राण दण्ड दिया जायगा, इस प्रकार उसने अपने सेवकों को आज्ञा प्रदान की वे सेवक वर्ग राजा की बातें सुनकर वहाँ से चल दिये, अनेक प्रयत्न करने पर भी धन समेत चोर का पता न मिलने पर वे सब रात्रि में एकत्र होकर चिन्तित होने लगे, राजा गण समेत हमें प्राण दण्ड देगा अतः क्या करूँ सुख की प्राप्ति कैसे हो, राजदण्ड द्वारा होने वाली मृत्यु मुझे प्रेत बनायेगी ही अतः नर्मदा में डूबकर प्राण परित्याग करना कल्याणप्रद समझता हूँ इस प्रकार निश्चय करके वे लोग नर्मदा के तट पर पहुँचे, वहाँ उस विदेशी वैश्य के विपुल धन तथा उस साधु के कण्ठ में सुशोभित उस मोती के हार को देखकर अपनी रक्षा के निमित्त उसे चोर निश्चय कर बाँध लिया, उसके धन एवं दामाद समेत उसे राजा के समीप उपस्थित किया, भगवान् के प्रतिकूल होने के नाते राजा भी उनके विषय में कुछ विचार न कर धनालय खजाने में धन रखकर इन दोनों दुष्टों को बाँधकर लोहे की शृंखला जंजीर से इनके दोनों चरण बाँध कर जेल में डाल दो इस प्रकार राजा के आदेश होने पर उनके सेवकों ने वैसा ही उन्हें बन्धनों से जकड़ दिया, दामाद समेत साधु बार बार विलाप करता थाहा पुत्र तात जामात मेरा धन कहाँ चला गया मेरी पुत्री और स्त्री कहाँ है, भाग्य का उलट फेर देखो इसी कारण हम लोग दुःख सागर में डूब रहे हैं इस संकट से हमारी कौन रक्षा करेगा, मैंने पहले अनेक बार भगवान् को अप्रसन्न किया है उसी का यह दुर्विपाक परिणाम उपस्थित है अथवा नहीं जानता यह किस कर्म का फल प्राप्त हो रहा है इस प्रकार वे श्वसुर जामाता दोनों बारह दिनों तक चिन्तित रहकर दुःखों का अनुभव करते रहे हैं,

Satyanarayan vrat katha श्री सत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक व्रत कथा पांचवा अध्याय सम्पूर्ण पाठ का वर्णन समाप्त हुआ

बोलो सत्य नारायण देव की जय.






Satyanarayan vrat katha सत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक व्रत कथा छठा अध्याय सम्पूर्ण पाठ का वर्णन.


सूत जी बोले,

भगवान् विष्णु का चरित तीनों तापों का विनाश करता है वही उसे तथा तुम्हारे लिए कल्याणप्रद है, जो विद्वद्गण नित्य उसका श्रवण करते हैं वे भगवान् के स्थान की प्राप्ति करते है, भगवान् के प्रतिकूल अप्रसन्न रहने पर अनेक भाँति के नरकों की प्राप्ति होती है, भगवान् की प्राण प्रिया कमला देवी हैं और धर्म यज्ञ राजा एवं चोर नामक ये चार पुत्र हैं जो लक्ष्मी का प्रिय कार्य करते रहते हैं, ब्राह्मण तथा अतिथि के निमित्त दिये जाने वाले दान को धर्म बताया गया है मातृकाओं और देवताओं के लिए स्वधा तथा स्वाहा के द्वारा अर्पित करने को मख यज्ञ कहा गया है, इन्हीं दोनों धर्म और यज्ञ के रक्षक को राजा एवं इन्हीं दोनों के विनाशक को चोर कहा जाता है, इसीलिए सब धर्म सेवक हैं, जहाँ सत्य की स्थिति रहती है उसी स्थान पर लक्ष्मी स्थिर रहती है, सत्य हीन होने के नाते उस साधु के नौकास्थित धन को राजा और घर में स्थित धन को चोरों ने चुराकर उसकी पत्नी को इतना कष्ट प्रदान किया, जिससे उसने अपने आभूषणों वस्त्रों आदि को भी विक्रय करके प्राण रक्षा की किन्तु कुछ दिन के अनन्तर भोजन बनाने की किसी सामग्री के न रहने पर वे दोनों माता पुत्री लकड़ी ढोने लगी, इसके उपरांत एक दिन वह कन्या भोजन वस्त्र विहीन होकर एक ब्राह्मण के घर गई जहाँ सत्य नारायण देव की पूजा हो रही थी, वहाँ जगन्नियन्ता की प्रार्थना हो रही थी, उसे देख कर उसने भी भगवान् से प्रार्थना की, सत्य नारायण भगवान् हमारे पिता और पति दोनों सकुशल घर आ जाँये तो मैं भी आपकी पूजा करूँगी यही आप से प्रार्थना कर रही हूँ, वहाँ के ब्राह्मणों ने कहा, वैसा ही होगा पश्चात् वह घर चली आई, पर घर आने पर उसे उसकी माता ने डाँटते हुए कहा, शुभे तुम इतने समय तक कहाँ रही उसने उस सत्य नारायण की अर्चना का सभी वृत्तान्त दिया कलियुग में यह प्रत्यक्ष फल प्रदान करता है अतः मनुष्य सदैव इसे किया करते हैं, इसलिए मातः तुम्हारी यदि आज्ञा हो जाये तो इसे मैं भी करना चाहती हूँ, क्योंकि मेरी एकान्त कामना है कि पिता और स्वामी शीघ्र घर आ जायें, इस प्रकार रात्रि में निश्चय करके प्रातः काल वह कलावती कन्या शीलपाल नामक गुप्त के यहाँ जाकर कुछ धन की याचना करने लगी, भ्रातः कुछ थोड़ा सा धन दीजिये जिससे सत्य नारायण की अर्चना सुसम्पन्न हो जाये, इसे सुन कर शीलपाल ने उसे पाँच सुवर्ण की उसे सुना मुद्रा गिन्नी प्रदान किया और कहा, कलावति यह तुम्हारे पिता का ऋण मेरे यहाँ रह गया था इतना कह कर ऋण से मुक्त होने पर वह गया श्राद्ध के लिए चला गया और उस कन्या ने उस धन द्वारा सत्य नारायण की शुभ पूजा अपनी माता लीलावती समेत भक्ति पूर्वक सुसम्पन्न किया, उस पूजन द्वारा नारायण अत्यन्त प्रसन्न हुए, नर्मदा के तट पर राजा मन्दिर में शयन कर रहा था, थोड़ी सी रात्रि के शेष रहते समय जब कि राजन् अपनी शय्या पर निद्रामग्न शयन कर रहा था, ब्राह्मण का रूप धारण करके विष्णु ने विनम्र वाणी द्वारा उससे कहा, राजेन्द्र उठो उठो उन दोनों साधुओं को शीघ्र मुक्त करो तुमने बिना अपराध उन्हें बाँध रखा है अन्यथा तुम्हारा कल्याण नहीं होगा, इस प्रकार ब्राह्मण रूप द्वारा भगवान् के कहने पर राजा जाग उठे, उस समय भगवान् अन्तर्हित हो गये आश्चर्य प्रकट करता हुआ राजा सहसा उठकर सनातन ब्रह्म के ध्यान पूर्वक सभा में पहुँचकर स्वप्न का कारण मंत्रियों से कहने लगा, द्विज प्रजागण और मंत्री सभी राजा से कहने लगे कि यह सत्य है मैंने भी इसी भाँति का स्वप्न देखा है जिसमें वृद्ध ब्राह्मण द्वारा ज्ञान कराया गया है, पश्चात् राजा ने उन दोनों वैश्यों को बुलाकर सादर पूँछा, उन दोनों के आने पर उनसे राजा ने कहा, आप लोग कहाँ रहते हैं किस कुल में उत्पन्न हैं और किस नगर के निवासी हैं, साधु ने कहा, रमणीक रत्नपुर का मैं निवासी हूँ वैश्य कुल में मेरा जन्म हुआ है महाराज हमारी जीविका व्यापार ही है अतः व्यापार के लिए हम दोनों मणि मोतियों के क्रय विक्रयार्थ आप के नगर में आये थे, वहाँ आप के सेवकों ने आकर हमें बाँध कर आप के सम्मुख उपस्थित किया, भाग्य के पलट जाने पर मनुष्य को कौन सी दशा प्राप्त नहीं है इसीलिए बिना अपराध भी कृष्ण को मणि का चोर कहा गया था, राजेन्द्र आप भली भाँति विचार कर सकते हैं, हम दोनों चोर नहीं है, उनके बन्धन के कारण को सुन कर तथा उसे निश्चित मान कर उनको हथकड़ी बेड़ी काट कर उनके क्षौर करा कर तथा उन्हें भूषणों से भूषित करके राजा ने उन्हें भोजन कराया, पुनः अपने नगर में वस्त्र आभूषण एवं वाहन सवारियों समेत उनकी पूजा सुसम्पन्न करने पर साधु ने विनय विनम् होकर राजा से कहा, महाराज जेल में तो बहुत दुःखों का अनुभव करना पड़ा किन्तु अब तो दूसरी अवस्था में हूँ अतः कृपानिधे आज्ञा प्रदान कीजिये मैं अपने देश जाना चाहता हूँ,  साधु की बातें सुनकर राजा ने अपने कोषाध्यक्ष से कहा, मेरी आज्ञा है इनकी नौका मुद्राओं से परिपूर्ण कर दीजिये, इसके उपरांत अपने जामाता समेत वह साधु मांगलिक गायन वाद्य समेत स्वदेश के लिए प्रस्थित हुआ किन्तु इतने पर भी उसने भगवान् की अर्चना न की,


कलियुग में सत्य नारायण देव प्रत्यक्ष फल प्रदान करते हैं, 

अतः तपस्वी का वेष धारणकर भगवान् साधु की भाँति व्यवहार करने लगे, तापस ने कहा, साधो तुम्हारी नौका में क्या है और मेरा अनादर करके चले जा रहे हो यह क्या धर्म है इसके उत्तर में साधु ने कहा, नाव छोड़ दीजिये महाराज मेरी नौका में धन नहीं है, केवल लतापत्र से यह भरी पड़ी है, अतः इस नौका द्वारा मैं अपने घर जा रहा हूँ इसमें विरोध करने से क्या लाभ हो सकता है, इतना कहने पर उस तापस ने कहा, इसी क्षण तुम्हारी बात सत्य हो, तदनन्तर साधु वैश्य का धन तो अन्तर्हित हो गया और नौका में केवल लतापत्र आदि शेष रह गये, अपनी नौका में धन न देखकर साधु व्याकुल हो गया और सोचने लगा, यह क्या हुआ क्या कारण है मेरा पात्र कहाँ चला गया, वज्राघात से आहत होने की भाँति अत्यन्त दुःखित होकर अब कहाँ जाऊँ कहाँ रहूँ और क्या करूँ हा मेरा धन क्या हो गया, इस प्रकार मूच्छित होकर वह वैश्य बार बार विलाप करने लगा, पश्चात् जामाता के बताने पर वह तपस्वी के पास गया, गले में वस्त्र बाँधकर तपस्वी को प्रणाम किया और कहने लगा, आप कौन हैं देव गन्धर्व या ईश्वर अथवा देवाधिदेव हैं मैं आप के पराक्रम जानने में असमर्थ हूं, महाभाग इस भाँति के व्यवहार करने का कारण बताइये, तापस बोले, साधो आत्मा ही आत्मा का शत्रु है तथा वही उसका प्रिय और अप्रिय भी अतः व्यर्थ बाद करने की आवश्यकता नहीं है अपनी मूढ़ता का त्याग करो, तापस के इस भाँति कहने पर भी उस धनाढ्य साधु को ज्ञान उत्पन्न न हुआ, इसलिए उसके पूर्व कर्मों के कारण कृपा करते हुए तापस ने कहा, राजा चन्द्रचूड़ जिस समय सत्य नारायण की पूजा कर रहे थे सन्तान हीन होकर तुमने भी सन्तानार्थ उनकी प्रार्थना की थी क्या तुमने उसका विस्मरण नहीं किया फिर क्यों व्यर्थ संतप्त हो रहे हो, दुर्बुद्धे सत्य नारायण देव विश्वव्यापी हैं और वही फल प्रदान करते हैं उनका अनादर करने पर तुम्हें सुख प्राप्त कैसे हो सकता है, पश्चात् उस वैश्य ने पहले समय में प्राप्त हुए वरदान का स्मरण करते हुए जगदीश्वर का स्मरण किया पुनः उस तपस्वी को सत्य नारायण देव के रूप में देखा, पृथिवी में गिरकर दण्डवत् करके उनकी बार बार परिक्रमा करते हुए अपनी गद्गद वाणी द्वारा तापस को प्रसन्न करने लगा,

साधु ने कहा,

सत्य नारायण देव को नमस्कार है जो सत्य रूप सत्य प्रतिज्ञ और जगत् में सत्य रूप से वर्तमान हैं, तुम्हारी माया से मुग्ध होकर मनुष्य अपने आत्म कल्याण को नहीं देखता है तथा दुःख सागर में निमग्न रहते हुए भी अपने को सुखी अनुभव करता है, मैं तो मूर्ख हूँ धन के गर्व से मेरे दोनों नेत्र अन्धे से हो गये हैं, इसलिए अपने आत्म कल्याण को नहीं जानता हूँ एवं मूर्ख बुद्धि होने के नाते देख भी कैसे सकता हूँ, अतः हरे मेरी दुष्टता को क्षमा कीजिये आप तपोनिधि को नमस्कार है, मुझे अपना दास बनाने की कृपा करें जिससे आपके चरणों का स्मरण करता रहूँ, इस भाँति स्तुति करके एक लक्ष मुद्रा सामने रखा और कहा, फिर घर पहुँच कर सत्य नारायण देव की अर्चना करूँगा, उपरांत नारायण ने प्रसन्न होकर कहा, तुम्हारा मनोरथ सफल हो तथा पुत्र पौत्र समेत उत्तम भोगों के उपभोग करने के पश्चात् मेरे समीप रहकर आनन्दानुभव करना, इतना कहकर विष्णु अन्तर्हित हो गये और वह वैश्य अपने नगर की ओर चला, सत्यदेव से सुरक्षित होकर वह वैश्य सातवें दिन अपने घर पहुँचा, अपने नगर के समीप पहुँच कर उसने अपने घर एक सेवक भेजा, घर पहुँच कर वह सेवक लीलावती से कहने लगा कि, जामाता के साथ कृतकृत्य होकर साधु आ गये, उस समय वह अपनी कन्या समेत सत्य नारायण की अर्चना कर रही थी, उसने पूजा का संभार कलावती पर रख कर स्वयं नौका के पास चली गई, कलावती भी जो सखियों के साथ मैं वहाँ मांगलिक कौतुक कर रही थी प्रसाद परित्याग रूप अनादर करके शीघ्र वहाँ पहुँच गई, उस समय वह सायं काल में चकोरी की भाँति पति के कमलमुख का पान करना चाहती थी किन्तु उस प्रसाद के अपमान करने के कारण शंखपति की नौका जामाता के समेत उसी क्षण जल में अन्तहित हो गई, अपने जामाता को उस जल में निमग्न होते देखकर वह वैश्य मूच्छित होकर विलाप करने लगा लीलावती भी उसे सुनकर मूच्छित होकर विलाप करने लगी, पश्चात् इसे सुन कर कलावती भी मूच्छित होकर पृथ्वी में गिर पड़ी चेतना प्राप्त होने पर विलाप करने लगी, वायु के झोंके से कम्पित केले की भाँति काँपती हुई, कान्तकान्त कह कर पुकारने लगी तथा हा नाथ प्रिय धर्म एवं करुणानिधि कौशल मुझ वियोगिनी को देव ने पति से सर्वदा के लिए पृथक् कर दिया, पति का शरीरार्ध भाग तो चला गया शेष यह अर्धांग भाग जीवित कैसे रहे, 


सूत जी बोले,

कलावती ने जो सुन्दर कलाओं में निपुण मूंगे की भाँति चरण तल रक्तवर्ण अति कोमल तथा कमल की भाँति अपने विशाल नेत्रों से अश्रुविन्दुओं की पवित्र धारा बहाती थी मुकुलित पुष्पों की भाँति उसके स्तनों पर मोती के हार की भाँति दिखाई देती थी कहा, सत्य नारायण सत्यसिंधो इस पति वियोग से मेरा उद्धार कीजिये मैं इसमें डूब रही हूँ, इन कारुणि वाक्यों को सुन कर भगवान् आकाशवाणी द्वारा बोले, साधो यह कलावती शीघ्र मेरे प्रसाद का भक्ष कर ले पश्चात् यहाँ आने पर अपने पति की प्राप्ति कर सकेगी अतः शोक मत करो, इस आकाश वानी को सुन कर उसने विस्मित होती हुई वैसा ही किया नारायण की कृपा से कलावती ने पति दर्शन प्राप किया, उसी स्थान पर अत्यन्त प्रसन्नता प्रकट करते हुए उस साधु ने अनन्य भक्ति में विभोर होकर लक्ष मुद्रा द्वारा सत्य नारायण देव की अर्चना किया, उस व्रत के प्रभाव से पुत्र पौत्र युक्त होकर उस उत्तम भोगों के उपभोग करते हुए आनन्दमय जीवन व्यतीत किया और निधन होने के उपरांत स्व निवास प्राप्त किया, जो मानव भक्ति समेत इस इतिहास का श्रवण करेंगे वे विष्णु के अत्यन्त प्रिय हो और उनकी कामनाएँ सफल होंगी, विप्र इससे इस उत्तम व्रत को जो कलिकाल में परम पुण्य और ब्राह्मण के मुख से निकला है तुम्हें सुना दिया, 


श्री सत्य सनातन अविनाशी परमात्मा नारायण की पौराणिक इतिहासिक व्रत कथा का छठा अध्याय सम्पूर्ण पाठ वर्णन समाप्त हुआ। बोले सत्य नारायण भगवान की जय.



सत्य नारायण भगवान की आरती॥ श्री सत्यनारायण जी की आरती।।

Satyanarayan-vrat-katha-aarti-sampurn-adhyaya-bhavishya-puran-ki-katha-hindi


जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा । सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा ॥ जय लक्ष्मी ॥


रत्न जड़ित सिंहासन, अद्भुत छवि राजे । नारद करत नीराजन, घंटा वन बाजे ॥ जय लक्ष्मी...


प्रकट भए कलिकारन, द्विज को दरस दियो । बूढ़ो ब्राह्मण बनकर, कंचन महल कियो ॥ जय लक्ष्मी... ||


दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी । चंद्रचूड़ इक राजा, तिनकी विपति हरी ॥ जय लक्ष्मी.... ||


वैश्य मनोरथ पायो श्रद्धा तज दीन्ही । सो फल भोग्यो प्रभुजी, फिर स्तुति किन्हीं ॥ जय लक्ष्मी... ॥


भाव-भक्ति के कारण, छिन-छिन रूप धर्यो । श्रद्धा धारण किन्ही, तिनको काज सरो ॥ जय लक्ष्मी... ॥


ग्वाल-बाल संग राजा, बन में भक्ति करी । मनवांछित फल दीन्हो, दीन दयालु हरि ॥ जय लक्ष्मी... ॥


चढ़त प्रसाद सवायो, कदली फल मेवा । धूप-दीप-तुलसी से, राजी सत्यदेवा ॥ जय लक्ष्मी... ॥



सत्यनारायणजी की आरती जो कोई नर गावे । ऋषि-सिद्ध सुख-संपति सहज रूप पावे ॥ जय लक्ष्मी.... ॥


ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी जय लक्ष्मीरमणा । सत्यनारायण स्वामी ,जन पातक हरणा ॥ जय लक्ष्मी... ॥



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सत्यनारायण व्रत कथा में कितने अध्याय हैं?

सत्यनारायण का व्रत कैसे किया जाता है?

सत्यनारायण व्रत में क्या खाना चाहिए?

सत्यनारायण कथा क्यों करते हैं?

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की कथा

आज की कथा

भगवान सत्यनारायण की कथा

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