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Ling Puran Shauchachara - शौचाचार का लक्षण अर्थ वर्णन नियम विधि और परिभाषा - शौच पवित्रता मनुष्य के लिए उत्तम

श्री लिंग पुराण अध्याय  93 - Shauchachara शौचाचार का लक्षण अर्थ वर्णन नियम विधि और परिभाषा, Ling Puran Shauchachara शौचाचार का लक्षण अर्थ वर्णन नियम विधि और परिभाषा, शौच पवित्रता मनुष्य के लिए उत्तम पद प्रदान करने वाला है,



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सूतजी बोले  हे ऋषियो अब मैं आप लोगों के लिए Shauchachara शौचाचार का लक्षण का लक्षण कहूँगा।

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जिसका पालन करने से मुनि लोग परम गति को पाते हैं। इसको पूर्व में ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण प्राणियों के हित के लिये कहा था उसको मैं अब संक्षेप से कहता हूँ। शौच पवित्रता मुनियों के लिए उत्तम पद प्रदान करने वाला है। इसमें प्रमाद न करने वाला मुनि कभी भी नष्ट नहीं होता है। मान और अपमान मुनियों का विष और अमृत है। मान उनको अमृत है और अपमान विष है। यम और नियमों का पालन करता हुआ तथा गुरु के हित में सदा तत्पर रहकर एक वर्ष तक रहे। इस पृथ्वी पर उत्तम धर्म का आचरण करता हुआ ज्ञान योग को धारण करता है। आँखों के द्वारा जल को छानकर पवित्र करके पीना चाहिए। सत्य के द्वारा वाक्य को पवित्र करके वचन बोलने चाहिए और मन के द्वारा पवित्र होकर आचरण करने चाहिए।

Shauchachara शौचाचार का लक्षण,


मछली पकड़ने वाले को छ मास में जो पाप लगता है वह अपवित्र जल पीने वाले को केवल एक दिन में ही लग जाता है। अपवित्र जल पीने वाले को अघोर मन्त्र का जप करना चाहिए। तब शुद्धि को प्राप्त करता है। उसे शम्भु को घी दूध आदि के द्वारा विस्तार पूर्वक पूजन करना चाहिए और तीन परिक्रमा करनी चाहिए तो वह शुद्ध हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं।आतिथ्य सत्कार में तथा यज्ञ आदि में योगी को नहीं जाना चाहिए। योगी को अहिंसक होना चाहिए। अग्नि धुआं के रहित हो जाय सब भोजन कर चुके हों तब नगर या गाँव में योगी को भिक्षा के लिए जाना चाहिए। वनस्थ और यायावर महात्माओं के यहाँ भिक्षा करनी चाहिए। गृहस्थी श्रद्धालु तथा श्रोत्रियों के घर जाकर भिक्षा करनी चाहिए। दधिभक्षक दूध भक्षक तथा अन्य नियम वाले मनुष्य भिक्षा करने वाले की सोलहवीं कला को भी नहीं प्राप्त कर सकते। 


Shauchachara शौचाचार का लक्षण भिक्षाचारी को जितेन्द्रिय तथा भस्मशायी होना चाहिए। 




परम पद की इच्छा वाले को पाशुपत योग धारण करना चाहिएसब योगियों को चान्द्रायण व्रत श्रेष्ठ है इसे एक दो या चार अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुसार करे। चोरी न करना ब्रह्मचर्य धारण करना लोभन करना त्याग करना तथा हिंसान करना ये पाँच व्रत करने चाहिए। फिर अक्रोध आहार में लघुता नित्य स्वाध्याय ये नियम कहे हैं। इनका पालन करना चाहिए। दम शम सत्य और अपाय मौन सब प्राणियों के प्रति नम्रता यह अतीन्द्रियज्ञान शिव स्वरूप है ऐसा ज्ञानी लोग कहते हैं। जो मनुष्य सदाचार में रत हैं अपने धर्म का पालन करने वाले हैं शान्त हैं वे सब लोकों को जीतकर ब्रह्म लोक को जाते हैं, ब्रह्माजी ने जो सनातन धर्म का उपदेश सम्पूर्ण भूतों का हित करने वाला कहा है हे मुनीश्वरो उसे मैं आप लोगों से कहता हूँ। गुरु तथा उपदेश करने वाले वृद्धों का आदर तथा प्रणाम करना चाहिए। ब्राह्मण और गुरुओं को अष्टांग प्रणाम तीन बार तथा तीन बार प्रदक्षिणा करनी चाहिए। छल चुगली अधिक हास त्याग देना चाहिए। गुरुओं के सामने प्रतिकूल बात नहीं करनी चाहिए। यति के आसन वस्त्र दण्ड खड़ाऊं माला शयन स्थान पात्र और छाया और उनके यज्ञपात्र इनको पैर से नहीं छूना चाहिए। 



Shauchachara शौचाचार का लक्षण, देवद्रोह और गुरुद्रोह नहीं करना चाहिए। 



यदि प्रमाद से ऐसा हो जाय तो कम से कम एक हजार प्रणव ॐ का जप करना चाहिए। ब्राह्मण को सन्ध्या का विच्छेद होने पर तीन बार सन्ध्या की आवृति करनी चाहिए। भस्म से काँसे की लोहे की क्षार से ताँबे की अम्ल से तथा सोने चाँदी के पात्र जल मात्र से ही शुद्ध हो जाते हैं। तृण काष्ठादि की शुद्धि जल के छींटा मात्र से हो जाती है तथा यज्ञ के पात्र गर्म जल से शुद्ध होते हैं। ब्राह्मण को सो करके छींक करके थूक करके खाकर के अध्ययन आदि के लिये आचमन करना चाहिए। मैथुन करके पति का स्पर्श करके कुक्कुट स्वान कूकर खर काक ऊँट का स्पर्श करके शुद्ध जल के स्नान से पवित्र होता है। रजस्वला तथा सूतिका का स्पर्श नहीं करना चाहिए। रजस्वला से वार्तालाप भी न करे वह प्रथम दिन चाण्डाल दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तीसरे दिन रजिकी तथा चौथे दिन शुद्ध होती है। स्नान शौच गायन रोदन हसन गमन काजल लगाना जुआ खेलना दिन में सोना दांतुन करना मैथुन कर्म मन वाणी के द्वारा देव पूजन रजस्वला स्त्री द्वारा त्यागा जाना चाहिए। 



Shauchachara शौचाचार का लक्षण, इस प्रकार सदाचार सभी प्राणी मात्र के लिए कहा है। 



जो पवित्र होकर सदाचार को पढ़े या सुने या ब्राह्मण के द्वारा श्रवण करे वह ब्रह्म लोक को प्राप्त करके ब्रह्मा के साथ आनन्द को पाता है।

जय श्री कृष्णा,




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