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raja janak ji ke, Aur Maharishi Yajnavalkya Samvaad - वेद का मन्त्र स्मरण आता रहा, परन्तु इसी चिन्तन में वह निद्रा की गोद में चले गये

Raja Jhanak Aur Maharishi Yajnavalkya Samvaad, raja janak ji ke

वेद का मन्त्र स्मरण आता रहा, परन्तु इसी चिन्तन में वह निद्रा की गोद में चले गये। निद्रा की गोद में जाने के पश्चात्, मध्यरात्रि का काल जब समाप्त हुआ तो मेरे प्यारे! देवी जागरूक हो गई, और देवी के समीप नाना मन्त्र स्मरण आने लगे, वेदमन्त्र कह रहा था “प्रकाशां ब्रह्मे वर्ण प्रह्वा वसनजन ब्रीही अस्तों” वेद का वाक् कह रहा था कि हम किसके प्रकाश से प्रकाशित होते है? तो वेद के मन्त्र में यह विशेषता है, वही प्रश्न कर रहा है वही उत्तर दे रहा है। मेरे प्यारे! द्वितीय मन्त्र कहता है “सूर्याणि गच्छं चन्द्रो ब्रह्म प्रविष्टो वाचन्नमा अग्ने व्रताणि” मानो देखो, वेद की आख्यिका जब यह कहने लगी, क्या जब मंगले, प्रश्न किया गया तो उत्तर में कह रहा है कि सूर्य, चन्द्रमा प्रकाशां अग्नं ब्रह्मे मानो नाना प्रकार की आभाओं में वह रत्त कराता है।

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मेरे प्यारे! चिन्तन करने लगी, मानों राजा जनक के कक्ष में पहुंची, उन्होंने उन्हें जागरूक किया और यह कहा कि प्रभु! यह वेदमन्त्र क्या कह रहा है? मैं इस वेदमन्त्र का अपने में निपटारा नहीं कर पा रही हूँ आप इसका निपटारा कर दीजिए। राजा जनक भी उस आभा में, उच्चारण में लग गये, परन्तु वह ब्रह्मयाग होने लगा, ब्रह्म चिन्तन करते रहे, परन्तु अपने में उनका कोई निमटारा नहीं कर सके। विचार आता रहता है तुम्हें मध्य रात्रि से, प्रातःकालीन हो गया, प्रातःकाल होते ही आसन को त्याग दिया, अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो करके, राजा जनक के यहाँ, जहाँ ब्रह्मयाग होता रहता! उनके यहाँ, देव पूजा भी होती रहती थी। राजा जनक के यहाँ एक यज्ञशाला, उस यज्ञशाला में एक प्रतिभा, ऋषि मुनियों का आसन विद्यमान है। परन्तु राजा जनक और उनकी पत्नी अपनी यज्ञशाला में पहुंचे, उस यज्ञशाला में एक आसन, पुरोहित का विद्यमान है, एक आसन ब्रह्मवेत्ता का है, कुछ ब्रह्मचारियों के आसन लगे हुए है। सब अपने-अपने आसनों पर आ करके विद्यमान हो गये, महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज, अपने विशाल ब्रह्मवेत्ता के आसन पर विद्यमान थे। 

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सब अपने-अपने आसनों पर आ करके विद्यमान हो गये, महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज, अपने विशाल ब्रह्मवेत्ता के आसन पर विद्यमान थे। राजा जनक, उनकी पत्नी ने प्रातःकालीन अग्नि का चयन किया, अग्निहोत्र किया और देव पूजा करने के पश्चात् मेरे प्यारे! अग्नि का आह्वान और उसमें साकल्य प्रदान करके, वायु मण्डल को पवित्रता में अपनी वाणी को पवित्र बनाते, परन्तु वह मौन हो गये। राजा ने यह संकल्प कर लिया पत्नी सहित की हम, आज आचार्य ब्रह्मवेत्ता से कोई प्रश्न नहीं करेंगे। परन्तु जैसे वह याग करके मौन हुए, महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि बोले-हे यज्ञमान! तुम मेरे से कोई प्रश्न कर सकते हो। राजा जनक के हर्ष की कोई सीमा न रही, पति पत्नी नत मस्तक हो करके ऋषि से कहते है कि महाराज! हम प्रातःकालीन वेद का अध्ययन कर रहे थे, वेद का मन्त्र कह रहा था कि हम किसके प्रकाश से प्रकाशित होते है? कौन हमारा प्रकाशक है, कौन प्रकाश के देने वाला है? तो भगवन्! हम उस प्रकाश को जानना चाहते है।

राजा जनक के इन वाक्यों को पान करके, महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मनिष्ठ कहते है हे राजन! इसको प्रत्येक मानव जानता है, प्रत्येक बालिका जानती है, कि हमारे जो नेत्र हैं वे सूर्य के प्रकाश से प्रकाशमान होते हैं।सूर्य हमारे नेत्रों का देवता है। वह प्रकाश के देने वाला है। प्रातःकाल उदय होता है। प्रकाश देता रहता है। वह आदित्य कहलाता है। मानो आदित्य बन करके, वह अपना प्रकाश देता है। उसे हमारे यहाँ उदयन नाम से पुकारा जाता है। वह उदयन है जो उदय होता है। जो उदय हो करके हमें प्रकाश देता है। 

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मानो देखो, उसको हमारे यहाँ देखो,”अप्रतां व्रह्वे अस्ति व्रख” कहते हैं। मानो जो प्रकाश दे करके, उस प्रकाश को अपने में धारण कर लेता है। वेद का आचार्य कहता है-हे राजन्! यह जो सूर्य हमारे नेत्रों का देवता है यह जो सूर्य का प्रकाश है यह हमारे जीवन को उद्बुद्ध करता है। नाना प्रकार की वनस्पतियों में प्रकाश दे करके, उनका जन जीवन बनाता है, नाना प्रकार की मानो वनस्पतियाँ परिपक्व बनती हैं। यहाँ तक नहीं, मानो देखो, वही वनस्पतियाँ पशु इत्यादि पान करते हैं। वह पय उत्पन्न कर रहे हैं। मानो देखो, वह स्वञ्जलि बन करके, गौ नाम के पशु के रीढ़ के विभाग में एक सूर्य केतु नाम की नाड़ी होती है, उस नाड़ी का प्रातःकाल सूर्य उदय होते ही, नाड़ी का ऊर्ध्वा मुख बन जाता है।

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