Sanatan Hindu dharm Katha Magha माघ मास का महात्म्य प्रतिदिन प्रात:काल और सायंकाल अग्निहोत्र तीनों समय स्नान और भिक्षा के अन्न का भोजन करते थे, माघ माह माहात्म्य
मृगशृङ्ग मुनि का भगवान् से वरदान प्राप्त।
वसिष्ठ जी कहते हैं - राजन्! मैं माघ मास का प्रभाव बतलाता हूँ, सुनो। इसे भक्तिपूर्वक सुनकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।
प्राचीन रथन्तर कल्प के सत्ययुग में कुत्स नाम के एक ऋषि थे, जो ब्रह्माजी के पुत्र थे। वे बड़े ही तेजस्वी और निष्पाप थे।
उन्होंने कर्दम ऋषि की सुन्दरी कन्या के साथ विधि पूर्वक विवाह किया। उसके गर्भ से मुनि के वत्स नामक पुत्र हुआ, जो वंश को बढ़ाने वाला था।
Maagh Mahina ka mahatmay katha
वत्स की पाँच वर्ष की अवस्था होने पर पिता ने उनका उपनयन संस्कार करके उन्हें गायत्री-मन्त्र का उपदेश किया।
अब वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भृगु कुल में निवास करने लगे।
प्रतिदिन प्रात:काल और सायंकाल अग्निहोत्र, तीनों समय स्नान और भिक्षा के अन्न का भोजन करते थे।
इन्द्रियों को काबू में रखते, काला मृग चर्म धारण करते और सदा स्वाध्याय में संलग्न रहते थे।
पैर से लेकर शिखा तक लंबा पलाश का डंडा, जिसमें कोई छेद न हो, लिये रहते थे।
उनके कटिभाग में पूँज की मेखला शोभा पाती थी। हाथ में सदा कमण्डलु धारण करते, स्वच्छ कौपीन पहनते, शुद्ध भाव से रहते और स्वच्छ यज्ञोपवीत धारण करते थे।
उनका मस्तक समिधाओं की भस्म से सुशोभित था।
वे सबके नयनों को प्रिय जान पड़ते थे। प्रतिदिन माता, पिता, गुरु, आचार्य, अन्यान्य बड़े-बूढ़ों, संन्यासियों तथा ब्रह्मवादियों को प्रणाम करते थे। बुद्धिमान् वत्स ब्रह्मयज्ञ में तत्पर रहते और सदा शुभ कर्मों का अनुष्ठान किया करते थे।
वे हाथ में पवित्री धारण करके देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण करते थे।
फूल, चन्दन और गन्ध आदि को कभी हाथ से छूते भी नहीं थे। मौन होकर भोजन करते। मधु, पिण्याक और खारा नमक नहीं खाते थे। खड़ाऊँ नहीं पहनते थे तथा सवारी पर नहीं चढ़ते। शीशे में मुँह नहीं देखते। दन्तधावन, ताम्बूल और पगड़ी आदि से परहेज रखते थे।
नीला, लाल तथा पीला वस्त्र, खाट, आभूषण तथा और भी जो-जो वस्तुएँ ब्रह्मचर्य-आश्रम के प्रतिकूल बतायी गयी हैं, उन सबका वे स्पर्श तक नहीं करते थे; सदा शान्तभाव से सदाचार में ही तत्पर रहते थे।
ऐसे आचारवान् और विशेषतः ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले वत्स मुनि सूर्य के मकर राशि पर रहते माघ मास में भक्तिपूर्वक प्रात:स्नान करते थे।
वे उस समय विशेषरूप से शरीर की शुद्धि करते थे। आकाश में जब इने-गिने तारे रह जाते थे, उस समय–ब्रह्मवेला में तो वे नित्य स्नान करते थे और फिर जब आधे सूर्य निकल आते, उस समय भी माघ का स्नान करते थे। वे मन-ही-मन अपने भाग्य की सराहना करने लगे - 'अहो! इस पश्चिम वाहिनी कावेरी नदी में स्नान का अवसर मिलना प्रायः मनुष्यों के लिये कठिन है, तो भी मैंने मकरार्क में यहाँ स्नान किया। वास्तव में मैं बड़ा भाग्यवान् हूँ।
समुद्र में मिली हुई जितनी नदियाँ हैं, उन सबका प्रवाह जहाँ पश्चिम या उत्तर की ओर है, उस स्थान का प्रयाग से भी अधिक महत्त्व बतलाया गया है।
मैंने अपने पूर्वपुण्यों के प्रभाव से आज कावेरी का पश्चिमगामी प्रवाह प्राप्त किया है। वास्तव में मैं कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हूँ।' इस प्रकार सोचते हुए वे प्रसन्न होकर कावेरी के जल में तीनों काल स्नान करते थे।
उन्होंने कावेरी के पश्चिमगामी प्रवाह में तीन साल तक माघ स्नान किया।
उसके पुण्य से उनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया। वे ममता और कामना से रहित हो गये।
तदनन्तर माता, पिता और गुरु की आज्ञा लेकर वे सर्वपापनाशक कल्याणतीर्थ में आ गये। उस सरोवर में भी एक मास तक माघ स्नान करके ब्रह्मचारी वत्स मुनि तपस्या करने लगे।
राजन्! इस प्रकार उन्हें उत्तम तपस्या करते देख भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर उनके आगे प्रत्यक्ष प्रकट हुए और बोले - 'महाप्राज्ञ मृगशृङ्ग! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।' यों कहकर भगवान् पुरुषोत्तम ने उनके ब्रह्मरन्ध्र (मस्तक) का स्पर्श किया।
तब वत्स मुनि समाधि से विरत हो जाग उठे और उन्होंने अपने सामने ही भगवान् विष्णु को उपस्थित देखा।
वे सहस्र सूर्यों के समान तेजस्वी कौस्तुभमणि रूप आभूषण से अत्यन्त भासमान दिखायी देते थे। तब मुनि ने बड़े बेग से उठकर भगवान् को प्रणाम किया और बड़े भाव से सुन्दर स्तुति की।
भगवान् हृषीकेश की स्तुति और नमस्कार करके वत्स मुनि अपने मस्तक पर हाथ जोड़े चुपचाप भगवान् के सामने खड़े हो गये। उस समय उनके नेत्रों से आनन्द के आँसू बह रहे थे और सारे शरीर में रोमाञ्च हो आया था। तब श्री भगवान् ने कहा - मृगशृङ्ग ! तुम्हारी इस स्तुति से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। माघ मास में इस सरोवर के जल में जो तुमने स्नान और तप किये हैं, इससे मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ। मुने! तुम निरन्तर कष्ट सहते सहते थक गये हो। दक्षिणाओंसहित यज्ञ, दान, अन्यान्य नियम तथा यमों के पालन से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना माघ के स्नान से होता है।
पहले तुम मुझ से वर माँगो। फिर मैं तुम्हें मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करूँगा।
मृगशृङ्ग! तुम मेरी प्रसन्नता के लिये मैं जो आज्ञा दूँ, उसका पालन करो।
इस समय तुम्हारे ब्रह्मचर्य से जिस प्रकार ऋषियों को सन्तोष हुआ है, उसी प्रकार तुम यज्ञ करके देवताओं को और सन्तान उत्पन्न करके पितरों को संतुष्ट करो।
मेरे सन्तोष के लिये ये दोनों कार्य तुम्हें सर्वथा करने चाहिये।
अगले जन्म में तुम ब्रह्मा जी के पुत्र महाज्ञानी ऋभु नामक जीवन्मुक्त ब्राह्मण होओगे और निदाघ को वेदान्तवाक्यजन्य ज्ञान का उपदेश करके पुनः परमधाम को प्राप्त होओगे।
मृगशृङ्ग बोले - देवदेव! सम्पूर्ण देवताओं द्वारा वन्दित जगन्नाथ!
आप यहाँ सदा निवास करें और सबको सब प्रकार के भोग प्रदान करते रहें। आप सदा सब जीवों को सब तरह की सम्पत्ति प्रदान करें।
भगवन् ! यदि मैं आपका कृपापात्र हूँ तो यही एक वर, जिसे निवेदन कर चुका हूँ, देने की कृपा करें। कमलनयन! चरणों में पड़े हुए भक्तों का दु:ख दूर करने वाले अच्युत! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। शरणागतवत्सल ! मैं आपकी शरण में आया हूँ।
भगवान् विष्णु बोले - मृगशृङ्ग! एवमस्तु, मैं सदा यहाँ निवास करूँगा। जो लोग यहाँ मेरा पूजन करेंगे, उन्हें सब प्रकार की सम्पत्ति हाथ लगेगी।
विशेषतः जब सूर्य मकर राशि पर हों, उस समय इस सरोवर में स्नान करने वाले मनुष्य सब पापों से मुक्त हो मेरे परमपद को प्राप्त होंगे।
व्यतीपात योग में, अयन प्रारम्भ होने के दिन, संक्रान्ति के समय, विषुव योग में, पूर्णिमा और अमावास्या तिथि को तथा चन्द्रग्रहण और सूर्य-ग्रहण के अवसर पर यहाँ स्नान करके यथाशक्ति दान देने से और तुम्हारे मुख से निकले हुए इस स्तोत्र का मेरे सामने पाठ करने से मनुष्य मेरे लोक में प्रतिष्ठित होगा।
भगवान् गोविन्द के यों कहने पर उन ब्राह्मणकुमार ने पुनः प्रणाम किया और भक्तों के अधीन रहने वाले श्री हरि से फिर एक प्रश्न किया 'कृपानिधे! देवेश्वर!
मैं तो कुत्स मुनि का पुत्र वत्स हूँ; फिर मुझे आपने मृगशृङ्ग कहकर क्यों सम्बोधित किया?
श्री भगवान् बोले - ब्रह्मन्! इस कल्याण – सरोवर के तट पर जब तुम तपस्या करने में लगे थे,
उस समय जो मृग प्रतिदिन यहाँ पानी पीने आते थे, वे निर्भय होकर तुम्हारे शरीर में अपने सींग रगड़ा करते थे।
इसी से श्रेष्ठ महर्षि तुम्हें मृगशृङ्ग कहते हैं। आज से सब लोग तुम्हें मृगशृङ्ग ही कहेंगे।
यों कहकर सबको सब कुछ प्रदान करनेवाले भगवान् सर्वेश्वर वहाँ रहने लगे, तदनन्तर मृगशृङ्ग मुनि ने भगवान् का पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे उस पर्वत से चले गये।
जय श्री कृष्णा
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