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Valmiki ramayan sunderkanda patha अयोध्या में राम जी का स्वागत और राज्याभिषेक का उत्सव राम वनवास से अयोध्या लौटे

जब भगवान श्री राम लक्ष्मण सीता सहित विमान से आ रहे थे, तब भरत जी को साथ लिए आगे बढ़े, अब इन्होंने अपनी नगरी देखी, राजधानी को देखकर भगवान् श्री रामचन्द्र जी को बड़ी प्रसन्नता हुई । 

Valmiki ramayan sunderkanda patha 

अयोध्या में राम जी का स्वागत और राज्याभिषेक का उत्सव राम वनवास से अयोध्या लौटे,
नगरी मै  प्रकाश उत्सव मनाने का आदेश

इधर भरत ने अपने मित्र एवं सचिव सुमुख को नागरिक उत्सव का प्रबन्ध करनेके लिये नगर के भीतर भेजा। भरत जी बोले,  नगर के सब लोग शीघ्र ही श्री रघुनाथ जी के आगमन का उत्सव आरम्भ करें। घर घरमें सजावट की जाय, सड़कें झाड़ बुहार कर साफ की जाय और उन पर चन्दन मिश्रित जल का छिड़काव करके उनके ऊपर फूल बिछा दिये जाय । हर एक घर के आँगन में नाना प्रकार को ध्वजाएँ फहरायी जायँ, प्रकाश का प्रबन्ध हो और सर्वतो भद्र आदि चित्र अङ्कित किये जायें,  श्री राम का आगमन सुनकर हर्ष में भरे हुए लोग मेरे कथनानुसार नगर को शोभा बढ़ाने वाली भाँति भाँति की रचना करें।


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भरत जी के ये वचन सुनकर मन्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ सुमुख ने अयोध्या पुरी को अनेक प्रकार की सजावट एवं तोरणों से सुशोभित करने के लिये उसके भीतर प्रवेश किया,  नगर में जाकर उसने सब लोगों में श्री राम के आगमन महोत्सव की घोषणा करा दी । 


नगरी के लोगो, मित्रो सहयोगियों से भगवान ने किया भेंट

लोगों ने जब सुना कि श्री रघुनाथ जी अयोध्या पुरी के निकट आ गये हैं, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ, क्योंकि वे पहले भगवान्के विरह से दुखी हो अपने सुख भोग का परित्याग कर चुके थे, वैदिक ज्ञान से सम्पन्न पवित्र ब्राह्मण हाथों में कुश लिये धोती और चादर से सुसजित हो श्री रामचन्द्र जी के पास गये, जिन्होंने संग्राम भूमि में अनेकों वीरों पर विजय पायी थी, वे धनुष बाण धारण करने वाले श्रेष्ठ और सूरमा क्षत्रिय भी उनके समीप गये, धन धान्य से समृद्ध वैश्य भी सुन्दर वस्त्र पहन कर महाराज श्री राम के निकट उपस्थित हुए, उस समय उनके हाथ सोने की मुद्राओं से सुशोभित हो रहे थे तथा वे शूद्र जो ब्राह्मणों के भक्त अपने जातीय आचार में दृढ़ता पूर्वक स्थित और धर्म कर्म का पालन करने वाले थे, अयोध्यापुरी के स्वामी श्री रामचन्द्र जी के पास गये, व्यवसायी लोग जो अपने अपने कर्म में स्थित थे, वे सब भी भेंट में देने के लिये अपनी अपनी वस्तु लेकर महाराज श्रीराम के समीप गये, 


Valmiki ramayan sunderkanda patha  इस प्रकार राजा भरत का संदेश,

पाकर आनन्द की बाढ़ में डूबे हुए पुर वासी नाना प्रकार के कौतुकों में प्रवृत्त होकर अपने महाराज के निकट आये, तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी ने भी अपने अपने विमान पर बैठे हुए सम्पूर्ण देवताओं से घिर कर मनोहर रचना से सुशोभित अयोध्या पुरी में प्रवेश किया, आकाश मार्ग से विचरण करने वाले वानर भी उछलते कूदते हुए श्री रघुनाथ जी के पीछे पीछे उस उत्तम नगर में गये, उस समय उन सब की पृथक् शोभा हो रही थी, कुछ दूर जाकर श्री रामचन्द्र जी पुष्पक विमान से उतर गये और शीघ्र ही श्री सीता के साथ पालकी पर सवार हुए, उस समय वे अपने सहायक परिवार द्वारा चारों ओर से घिरे हुए थे । 


ढोल नगाड़े बजाकर नगर वाशी राम के जयकारे लगा रहे थे


जोर जोर से बजाये जाते हुए वीणा, पणव और भेरी आदि बाजों के द्वारा उनकी बड़ी शोभा हो रही थी, सूत, मागध और वन्दीजन उनकी स्तुति कर रहे थे, सब लोग कहते थे, रघुनन्दन आपकी जय हो, सूर्य कुल भूषण श्रीराम आप की जय हो, देव दशरथ नन्दन आप की जय हो, जगत्के स्वामी श्री रघुनाथ जी, आपकी जय हो, इस प्रकार हर्ष में भरे पुरवासियों की कल्याणमयी बातें भगवान्को सुनायी दे रही थी, उनके दर्शन से सब लोगों के शरीर में रोमाञ्च हो आया था, जिससे वे बड़ी शोभा पा रहे थे, क्रमशः आगे बढ़कर भगवान्की सवारी गली और चौराहों से सुशोभित नगर के प्रधान मार्ग पर जा पहुँची, 


Valmiki ramayan sunderkanda patha नगर के स्त्रियों ने किया श्री राम के दर्शन

जहाँ चन्दन मिश्रित जल का छिड़काव हुआ था और सुन्दर फूल तथा पल्लव बिछे थे, उस समय नगर की कुछ स्त्रियाँ खिड़की के सामने की छनों का सहारा लेकर भगवान्की मनोहर छवि निहारती हुई, आपस में कहने लगी पुरवासिनी स्त्रियाँ बोली, सखियो वनवासिनी भीलों की कन्याएँ भी धन्य हो गया, जिन्होंने अपने नील कमल के समान लोचनों द्वारा श्री रामचन्द्र जी के मुखारविन्द का मकरन्द पान किया है, अपने सौभाग्य से इन कन्याओं ने महान् अभ्युदय प्राप्त किया है, अरी वीरोचित तेज से युक्त श्री रघुनाथ जी के मुख की ओर तो देखो, जो कमल की सुषमा को लजित करने वाले सुन्दर नेत्रों से सुशोभित हो रहा है, उसे देखक र धन्य हो जाओगी,  अहो देवता भी जिनका दर्शन नहीं कर पाते, वे ही आज हमारी आँखों के सामने हैं, अवश्य ही हम लोग अत्यन्त बड़ भागिनी हैं, देखो इनके मुख पर कैसी सुन्दर मुसकान है, मस्तक पर किरीट शोभा पा रहा है, ये लाल लाल ओठ बन्धूक पुष्पकी अरुण प्रभा को अपनी शोभा से तिरस्कृत कर रहे हैं तथा इनकी ऊँची नासिका मनोहर जान पड़ती है, इस प्रकार अधिक प्रेम के कारण उपर्युक्त बातें कहने वाली अवधपुरी की रमणियाँ भगवान्के दर्शन कर प्रसन्न होने लगी, तदनन्तर, जिनका प्रेम बहुत बढ़ा हुआ था, उन पुरवासी मनुष्यों को अपने दृष्टि पात से संतुष्ट कर के सम्पूर्ण जगत्को मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले श्री दशरथ नन्दन ने माता के भवन में जाने का विचार किया,


Valmiki ramayan sunderkanda patha माता कैकेई से भेंट


वे राजाओ के राजा तथा अच्छी नीतिका पालन करने वाले थे, अतः पालकी पर बैठे हुए ही सबसे पहले अपनी माता कैकेयी के घर मे गये, कैकेयी लजा के भार से दबी हुई थी, अतः श्री रामचन्द्र जी को सामने देख कर भी वह कुछ न बोली, वारंबार गहरी चिन्ता में डूबने लगी, सूर्य वंश की पताका फहराने वाले श्रीराम ने माता को लजित देख कर उसे विनय युक्त वचनों द्वारा सान्त्वना देते हुए कहा, श्रीराम बोले माँ मैंने वन में जाकर तुम्हारी आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन किया है, अब बताओ तुम्हारी आज्ञा से इस समय कौन सा कार्य करूँ, श्रीराम की यह बात सुन कर भी कैकेयी अपने मुँह ऊपर न उठा सकी वह धीरे धीरे बोली, बेटा राम, तुम निष्पाप हो अब तुम अपने महल में जाओ, माता का यह वचन सुन कर कृपा निधान श्री रामचन्द्र जी ने भी उन्हें नमस्कार किया और वहाँ से सुमित्रा के भवन में गये,


Valmiki ramayan sunderkanda patha माता सुमित्रा से भेंट

सुमित्रा का हृदय बड़ा उदार था, उन्होंने अपने पुत्र लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्र जी को उपस्थित देख आशीर्वाद देते हुए कहा, बेटा तुम चिरजीवी हो, श्री रामचन्द्र जी ने भी माता सुमित्रा के चरणों में प्रणाम करके बारं बार प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा, माँ लक्ष्मण जैसे पुत्र रत्न को जन्म देने के कारण तुम रत्न गर्भा हो बुद्धिमान् लक्ष्मण ने जिस प्रकार हमारी सेवा की है, जिस तरह इन्होंने मेरे कष्टों का निवारण किया है वैसा कार्य और किसी ने कभी नहीं किया, रावण ने सीता को हर लिया, उसके बाद मैंने रावण का वध करके उसके राज्य को जीत कर पुनः जो इन्हें प्राप्त किया है, को सब तुम लक्ष्मण का ही पराक्रम समझो, यो कहकर तथा सुमित्रा के दिये हुए आशीर्वाद को शिरो धार्य करके वे देवताओं के साथ अपनी माता कौसल्या के महल में गये,  


माता कौशल्या से भेंट

माता को अपने दर्शन के लिये उत्कण्ठित तथा हर्ष मय देख भगवान् श्रीराम तुरंत ही पालकी से उतर पड़े और निकट पहुँच कर उन्होंने माताके चरणोंको पकड़ लिया, माता कौसल्या का हृदय बेटे का मुँह देखने के लिये उत्कण्ठा से विह्वल हो रहा था, उन्होने अपने राम को बारंबार छाती से लगाया और बहुत प्रसन्न हुई, उन के शरीर में रोमाञ्च हो आया, वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रों से आनन्द के आँसू प्रवाहित होकर चरणों को भिगो ने लगे, विनय शील श्री रघुनाथ जी ने देखा कि माता अत्यन्त दुर्बल हो गयी है, मुझे देख कर ही इन्हें कुछ कुछ हर्ष हुआ है, उन की इस अवस्था पर दृष्टि पात कर के उन्होंने कहा, श्रीराम बोले माँ मैने बहुत दिनों तक तुम्हारे चरणों की सेवा नहीं की है, निश्चय ही मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, तुम मेरे इस अपराध को क्षमा करना, जो पुत्र अपने माता पिता की सेवा के लिये उत्सुक नहीं रहते, उन्हें रज वीर्य से उत्पन्न हुआ कीड़ा ही समझना चाहिये, क्या करूँ,


श्री राम चन्द्र ने संक्षेप मै व्यथा सुनाई

पिता जी की आज्ञा से मैं दण्डकारण्य में चला गया था, वहाँ से रावण सीता को हर कर न लङ्का में ले गया था, किन्तु तुम्हारी कृपा से उस राक्षसराज को मार कर मैंने पुनः इन्हें प्राप्त किया है, ये पतिव्रता सीता भी तुम्हारे चरणों में पड़ी हैं, इनका चित्त सदा तुम्हारे इन चरणों में ही लगा रहता ह, श्री रामचन्द्र जी की बात सुन कर माता कौसल्या ने अपने पैरों पर पड़ी हुई पतिव्रता बहू सीता को आशीर्वाद देते हुए कहा मानिनी सीते, तुम चिरकाल तक अपने पति की जीवन सङ्गिनी बनी रहो, मेरी पवित्र स्वभाव वाली बहू तुम दो पुत्रों की जननी होकर अपने इस कुल को पवित्र करो, बेटी दुःख सुख में पति का साथ देने वाली तुम्हारी जैसी पतिव्रता स्त्रियाँ तीनों लोकों में कहीं भी दुःख की भागिनी नहीं होती, यह सर्वथा सत्य है, विदेह कुमारी तुमने महात्मा राम के चरण कमलों का अनुसरण कर के अपने ही द्वारा अपने कुल को पवित्र कर दिया, सुन्दर नेत्रों वाली श्री रघुनाथ पत्नी सीता से यों कह कर माता कौसल्या चुप हो गयीं, कारण पुनः उन  का सर्वाङ्ग पुलकित हो गया, तदनन्तर श्री रामचन्द्र जी के भाई भरत ने उन्हें पिताजी का दिया हुआ अपना महान् राज्य निवेदन कर दिया,



इस से मन्त्रियों को बड़ी प्रसन्नता हुई, राज्याभिषेक की तैयारी


उन्होंने मन्त्र के जानने वाले ज्योतिषियों को बुला कर राज्याभिषेक का मुहूर्त पूछा और उद्योग कर के उन के बताये हुए उत्तम नक्षत्र से युक्त अच्छे दिन को शुभ मुहूर्त में बड़े हर्ष के साथ राजा श्री रामचन्द्र जी का अभिषेक कराया, सुन्दर व्याघ्रचर्म के ऊपर सातो द्वीपों से युक्त पृथ्वी का नकशा बना कर राजाधिराज महाराज श्रीराम उस पर विराजमान हुए उसी दिन से साधु पुरुषों के हृदय में आनन्द छा गया सभी त्रियाँ पति के प्रति भक्ति रखती हुई पतिव्रत धर्म के पालन में संलग्न हो गयीं,


जहा श्री राम है वहीं धर्म है।


संसार के मनुष्य कभी मन से भी पाप का आचरण नहीं करते थे, देवता, दैत्य, नाग, यक्ष, असुर तथा बड़े बड़े सर्प ये सभी न्याय मार्ग पर स्थित हो कर श्री रामचन्द्र जी की आशा को शिरोधार्य करने लगे, सभी परोपकार मे लगे रहते थे, सब को अपने धर्म के अनुष्ठान मे ही सुख और संतोष की प्राप्ति होती थी, विद्या से ही सब का विनोद होता था, दिन रात शुभ का पर ही सब की दृष्टि रहती थी, श्री राम के राज्य मे चोरों की तो कही चर्चा ही नहीं थी, जोर से चलने वाली हवा भी राह चलते हुए पथिकों के सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्त्र को भी नहीं उड़ाती थी, कृपानिधान श्री रामचन्द्र जी का स्वभाव बड़ा दयालु था, वे याच को के लिये कुबेर थे, 

शेष कथा जारी अगले पोस्ट मै। जय जय सियाराम।

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