समाधिपाद-१
अथ योगानुशासनम्॥१॥
योग दर्शन सूत्र ०१ से ०८ तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद सहित
yog-darshan-Sutra-01-to-08
अथ अब; योगानुशासनम् परम्परागत योगविषयक शास्त्र (आरम्भ करते हैं)।
व्याख्या- इस सूत्रमें महर्षि पतञ्जलिने योगके साथ अनुशासन पदका प्रयोग करके योगशिक्षाकी अनादिता सूचित की है, और अथ शब्दसे उसके आरम्भ करनेकी प्रतिज्ञा करके योगसाधनाकी कर्तव्यता सूचित की है॥१॥
सम्बन्ध- इस प्रकारके योगशास्त्रके वर्णनकी प्रतिज्ञा करके अब योगके सामान्य लक्षण बतलाते हैं
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥२॥
व्याख्या- इस ग्रन्थमें प्रधानतासे चित्तकी वृत्तियोंके निरोधको ही 'योग' नामसे कहा गया है ॥२॥
सम्बन्ध-योग शब्दकी परिभाषा करके अब उसका सर्वोपरि फल बतलाते हैं
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥३॥
व्याख्या- जब चित्तकी वृत्तियोंका निरोध हो जाता है, उस समय द्रष्टा (आत्मा) की अपने स्वरूपमें स्थिति हो जाती है, अर्थात् वह कैवल्यअवस्थाको प्राप्त हो जाता है (योग• ४ । ३४) ॥३॥ .
सम्बन्ध- क्या चित्तवृत्तियोंका निरोध होनेके पहले द्रष्टा अपने स्वरूपमें स्थित नहीं रहता इसपर कहते हैं
वत्तिसारूप्यमितरत्र ॥४॥
व्याख्या- जबतक योग-साधनोंके द्वारा चित्तकी वृत्तियोंका निरोध नहीं हो जाता, तबतक द्रष्टा अपने चित्तकी वृत्तिके ही अनुरूप अपना स्वरूप समझता रहता है, उसे अपने वास्तविक स्वरूपका ज्ञान नहीं होता। अतः चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग अवश्य कर्तव्य है ॥४॥
सम्बन्ध- चित्तकी वृत्तियाँ असंख्य होती हैं, अतः उनको पाँच श्रेणियों में बाँटकर सूत्रकार उनका स्वरूप बतलाते हैं
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ॥५॥
व्याख्या- ये चित्तकी वृत्तियाँ आगे वर्णन किये जानेवाले लक्षणोंक अनुसार पाँच प्रकारकी होती हैं तथा हर प्रकारकी वृत्तिके दो भेद होते हैं। एक तो क्लिष्ट यानी अविद्यादि क्लेशोंको पुष्ट करनेवाली और योगसाधनमें विघ्नरूप होती हैं तथा दूसरी अक्लिष्ट यानी क्लेशोंको क्षय करनेवाली और योगसाधनमें सहायक होती हैं। साधकको चाहिये कि इस रहस्यको भलीभाँति समझकर पहले अक्लिष्ट वृत्तियोंसे क्लिष्ट वृत्तियोंको हटावे, फिर उन अक्लिष्ट वृत्तियोंका भी निरोध करके योग सिद्ध करे ॥५॥
सम्बन्ध- उक्त पाँच प्रकारकी वृत्तियोंके लक्षणोंका वर्णन करनेके लिये पहले उनके नाम बतलाते है
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥६॥
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः
(१) प्रमाण, (२) विपर्यय, | (३) विकल्प, (४) निद्रा, (५) स्मृति-ये पाँच हैं।
व्याख्या- इन पाँचोंके स्वरूपका वर्णन स्वयं सूत्रकारने अगले सूत्रोंमें किया है, अतः यहाँ उनकी व्याख्या नहीं की गयी है ।। ६॥
सम्बन्ध- उपर्युक्त पाँच प्रकारकी वृत्तियोंमेंसे प्रमाणवृत्तिके भेद बतलाये जाते हैं-
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥ ७ ॥
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-(ये तीन), प्रमाणानि-प्रमाण हैं।
व्याख्या-प्रमाणवृत्ति तीन प्रकारकी होती है; उसको इस प्रकार समझना चाहिये
(१) प्रत्यक्ष-प्रमाण
बुद्धि, मन और इन्द्रियोंके जानने में आनेवाले जितने भी पदार्थ हैं, उनका अन्तःकरण और इन्द्रियोंके साथ बिना किसी व्यवधानके सम्बन्ध होनेसे जो भ्रान्ति तथा संशयरहित ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष अनुभवसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति है। जिन प्रत्यक्ष दर्शनोंसे संसारके पदार्थोकी क्षणभङ्गरताका निश्चय होकर या सब प्रकारसे उनमें दुःखकी प्रतीति होकर (योग० २ । १५) मनुष्यका सांसारिक पदार्थोंमें वैराग्य हो जाता है, जो | चित्तकी वृत्तियोंको रोकने में सहायक हैं, जिनसे मनुष्यकी योगसाधनमें श्रद्धा और उत्साह बढ़ते हैं, उनसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति तो अक्लिष्ट है तथा जिन प्रत्यक्ष दर्शनोंसे मनुष्यको सांसारिक पदार्थ नित्य और सुखरूप होते हैं, भोगोंमें आसक्ति हो जाती है, जो वैराग्यके विरोधी भावोंको बढ़ानेवाले हैं, उनसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति क्लिष्ट है।
(२) अनुमान-प्रमाण-
किसी प्रत्यक्ष दर्शनके सहारे युक्तियोंद्वारा जो अप्रत्यक्ष पदार्थके स्वरूपका ज्ञान होता है, वह अनुमानसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति है। जैसे धूमको देखकर अग्निकी विद्यमानताका ज्ञान होना, नदीमें बाढ़ आया देखकर दूर-देशमें वृष्टि होनेका ज्ञान होना-इत्यादि । इनमें भी जिन अनुमानोंसे मनुष्यको संसारके पदार्थोंकी अनित्यता, दुःखरूपता आदि दोषोंका ज्ञान होकर उनमें वैराग्य होता है और योगके साधनोंमें श्रद्धा बढ़ती है, जो आत्मज्ञानमें सहायक हैं, वे सब वत्तियाँ तो अक्लिष्ट हैं और उनके विपरीत वृत्तियाँ क्लिष्ट हैं।
(३) आगम-प्रमाण-
वेद, शास्त्र और आप्त (यथार्थ वक्ता) परुषोंके वचनको आगम' कहते हैं। जो पदार्थ मनुष्यके अन्तःकरण और इन्द्रियोंके प्रत्यक्ष नहीं है एवं जहाँ अनुमानकी भी पहुँच नहीं है, उसके स्वरूपका ज्ञान वेद, शास्त्र और महापुरुषोंके वचनोंसे होता है, वह आगमसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति है। जिस आगम-प्रमाणसे मनुष्यका भोगोंमें वैराग्य होता है (गीता ५।२२) और योगसाधनोंमें श्रद्धा-उत्साह बढ़ते हैं, वह तो अक्लिष्ट है और जिस आगम-प्रमाणसे भोगोंमें प्रवृत्ति और योग-साधनों में अरुचि हो, जैसे स्वर्गलोकके भोगोंकी बड़ाई सुनकर उनमें और उनके साधनरूप सकाम कर्मोंमें आसक्ति और प्रवृत्ति होती है, वह क्लिष्ट है ॥७॥
सम्बन्ध- प्रमाणवृत्तिके भेद बतलाकर अब विपर्ययवृत्तिके लक्षण बतलाते हैं
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥८॥
व्याख्या- किसी भी वस्तुके असली स्वरूपको न समझकर उसे दूसरी ही वस्तु समझ लेना-यह विपरीत ज्ञान ही विपर्ययवृत्ति है-जैसे सीपमें चाँदीकी प्रतीति। यह वृत्ति भी यदि भोगोंमें वैराग्य उत्पन्न करनेवाली और योगमार्गमें श्रद्धा-उत्साह बढ़ानेवाली हो तो अक्लिष्ट है, अन्यथा क्लिष्ट है। जिस दुल्टिस आदिके द्वारा वस्तुओका यथार्थ ज्ञान होता है, उन्हींसे जान भा होता है। यह मिथ्या ज्ञान भी कभी-कभी भोगोंमें वैराग्य करनेवाला हो जाता है। जैसे भोग्य पदार्थोंकी क्षणभङ्गरताको देखकर, अनुमान करके या सुनकर उनको सर्वथा मिथ्या मान लेना योग-सिद्धान्तके अनुसार विपरीतवृत्ति है; क्योंकि वे परिवर्तनशील होनेपर भी मिथ्या नहीं हैं,
तथापि यह मान्यता भोगीमें वैराग्य उत्पन्न करनेवाली होनेसे अक्लिष्ट है। कुछ महानुभावोंके मतानुसार विपर्ययवृत्ति और अविद्या-दोनों एक ही हैं, परंतु यह युक्तिसङ्गत नहीं मालूम होता; क्योंकि अविद्याका नाश तो केवल असम्प्रज्ञातयोगसे ही होता है (योग०४।२९-३०) जहाँ प्रमाणवृत्ति भी नहीं रहती। किंतु विपर्ययवृत्तिका नाश तो प्रमाणवृत्तिसे ही हो जाता है। इसके सिवा योगशास्त्रके मतानुसार विपर्यय ज्ञान चित्तकी वृत्ति है, किंतु अविद्या चित्तवृत्ति नहीं मानी गयी है, क्योंकि वह द्रष्टा और दुश्यके स्वरूपकी उपलब्धिमें हेतुभूत संयोगकी भी कारण है (योग० २।२३-२४) तथा अस्मिता और राग आदि क्लेशोंकी भी कारण है (योग० २।४), इसके अतिरिक्त प्रमाणवृत्तिमें विपर्ययवृत्ति नहीं है, परंतु राग-द्वेषादि क्लेशोंका वहाँ भी सद्भाव है, इसलिये भी विपर्ययवृत्ति और अविद्याकी एकता नहीं हो सकती; क्योंकि विपर्ययवृत्ति तो कभी होती है और कभी नहीं होती,
किंतु अविद्या तो कैवल्य-अवस्थाकी प्राप्तितक निरन्तर विद्यमान रहती है। उसका नाश होनेपर तो सभी वृत्तियोंका धर्मी स्वयं चित्त भी अपने कारणमें विलीन हो जाता है (योग० ४ । ३२)। परंतु प्रमाणवृत्तिके समय विपर्ययवृत्तिका अभाव हो जानेपर भी न तो राग-द्वेषोंका नाश होता है तथा न द्रष्टा और दृश्यके संयोगका ही। इसके सिवा प्रमाणवृत्ति क्लिष्ट भी होती है, परंतु जिस यथार्थ ज्ञानसे अविद्याका नाश होता है, वह क्लिष्ट नहीं होता। अतः यही मानना ठीक है कि चित्तका धर्मरूप विपर्ययवृत्ति अन्य पदार्थ है, तथा पुरुष और प्रकृतिके संयोगकी कारणरूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है।॥ ८॥
बाल्मीकि रामायण महात्म्य,
द्वितीय अध्याय में सौदास,
पुराण भारतीय धर्म,
शिव-शक्ति शिवलिंग का रहस्य,
महात्मा विदुर की नीति,
वेद के रूप,
मोक्ष मुक्ति क्या है?,
मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है?
महाभारत तथा पर्यावरण विज्ञान,
ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञात और ज्ञेय,
पंचम अध्याय में सनत् कुमार,
कथा अध्याय ३,
वेदों की उत्पत्ति वेद का ज्ञान,
बाल्मीकि रामायण के महात्म्य,
पुराणों की अति प्राचीनकता,
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