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mahabharat - मानव शरीर विज्ञान


महाभारत तथा मानव शरीर विज्ञान mahabharat Manav Sharir Vigyaan


मानव शरीर विज्ञान, विज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा है। इसके अन्तर्गत मनुष्य के शारीरिक अङ्गों की रचना तथा उनकी क्रिया विधि का अध्ययन किया जाता है। यह विज्ञान चिकित्सा की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आधुनिक समय में मनुष्य की दीर्घ आयु के लिए और उसके रोग रोग के कारण तथा उसके निवारण के उपाय के लिए मानव शरीर विज्ञान की सहायता ली जाती है।

मानव-शरीर-विज्ञान-सामान्य-परिचय


मानव शरीर विज्ञान -सामान्य परिचय
manav sharir vigyaan samany parichay


मानव शरीर नाना प्रकार के जीवित अङ्गों से युक्त एक जीवित मशीन अर्थात् यंत्र के समान है। जिसमें समस्त शारीरिक अङ्ग नियमित रूप से कार्य करते रहते हैं। शरीर के कुछ अवयव बाहर से प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, किन्तु कुछ अङ्ग जो शरीर के भीतर होते हैं, वे दिखाई नहीं देते हैं। मनुष्य के शरीर के वाह्य तथा आन्तरिक अङ्गों की क्रियाविधि तथा प्रजनन की समस्त प्रक्रिया का वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण और गूढ़ अध्ययन इस विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। मानव शरीर विज्ञान को शारीरिक अङ्गों की रचना तथा उनकी क्रियाओं के आधार पर सामान्यतः दो प्रमुख क्षेत्रों में बांटा जा सकता है -



1- शरीर विज्ञान - इसमें मानव शरीर की रचना, तथा क्रियाविधि आदि का
अध्ययन किया जाता है।

2- प्रजनन विज्ञान - इसमें गर्भ धारण से लेकर शिशु के जन्म तक की समस्त
प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है।


मानव शरीर विज्ञान प्राचीन काल से ही प्रचलित हैं। वेदों में मानव शरीर के अङ्गों की क्रिया विधि, संरचना आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के तृतीय मण्डल में हृदय की क्रियाविधि का उल्लेख', चरक संहिता में अस्थियों की संख्या का उल्लेख मिलता है। अतः इससे मानव शरीर विज्ञान की महत्ता स्पष्ट हो जाती है।mahabharat - मानव शरीर विज्ञान प्राचीन वैदिक काल से ही मानव शरीर की वाह्य तथा आन्तरिक रचना और उनकी क्रियाविधि का निरन्तर अध्ययन किया जा रहा है। रामायण काल में मानव शरीर रचना का वृहत् ज्ञान चिकित्सकों को था। इस सन्दर्भ में रामायण के युद्ध काण्ड में लक्ष्मण के मूर्छित होने के प्रसंग में वैद्य सुषेण द्वारा लक्ष्मण के हृदय गति का उल्लेख किया गया है। जिससे यह प्रतीत होता है कि मानव अङ्गों की रचना तथा संचालन का समस्त ज्ञान रामायण काल में प्रचलित था। महाभारत काल में भी मानव शरीर विज्ञान अत्यन्त विकसित स्थिति में था। महर्षि व्यास ने महाभारत में मानव शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक रचना और उनकी क्रिया विधि जैसे – श्वसन क्रिया, पाचन क्रिया, उत्सर्जन क्रिया आदि का उल्लेख किया है। महर्षि व्यास द्वारा प्रजनन विज्ञान का भी विस्तृत वर्णन महाभारत में किया गया है।


महाभारत तथा शरीर रचना विज्ञान

मानव शरीर की उत्पत्ति पञ्च भौतिक तत्त्वों से मानी जाती है अर्थात् यह मानव शरीर आकाश, वायु, जल, अग्नि तथा पृथ्वी से मिलकर बना है। ये सभी पञ्च तत्त्व अपने-अपने कार्य को करते हुए मानव शरीर का संचालन करते हैं।इस सन्दर्भ में महर्षि व्यास द्वारा शान्ति पर्व में अपने पुत्र शकदेव से शरीर में उपस्थित पञ्चभूतों के विषय में कथन है कि आकाश, वायु, जल आदि पञ्चभूत, भाव पदार्थ

'तुम्येदिन्द्र स्व ओक्येइ सोमे चोदामि पीतये। एष रोरन्तु ते हृदि । -ऋ. वे. 3.42.8 2 त्रीणि षष्टीनि शतान्यस्थनां दन्तालूखलनखेनं। – च. सं. 7.6 ३ विषादं माकृथा वीर सप्राणोऽयमरिंदम। आख्याति तु प्रसुप्तस्य प्रस्तगात्रस्य भूतले ।। सोच्छ्वासं हृदयं वीर कम्पमानंमुहुर्मुहुः । वा. रा. (युद्ध का.) 101-28


(गुण, कर्म, सामान्य आदि), अभाव और काल (दिक् आत्मा तथा मन) ये सभी पाञ्चभौतिक शरीरधारी प्राणियों में स्थित हैं।' महर्षि व्यास द्वारा शरीर की उत्पत्ति का कारण बताने के पश्चात् पञ्चभौतिक तत्त्वों के गुणों का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार शब्द आकाश का गुण है और श्रवणेन्द्रिय आकाशमय है। चलना-फिरना वायु का धर्म है। प्राण और अपान भी वायु स्वरूप ही है। अतः स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) तथा स्पर्श नामक गुण को भी वायुमय ही समझना चाहिए। ताप, पाक, प्रकाश और नेत्रेन्द्रिय – ये सभी अग्नि तत्त्व के कार्य हैं। अतः श्याम, गौर और ताम्र आदि वर्ण वाले रूप को उसका गुण समझना चाहिए। क्लेदन (किसी वस्तु को सड़ा-गला देना), क्षुद्रता (सूक्ष्मता) तथा स्निग्धता – ये जल के धर्म हैं। रक्त, मज्जा तथा जो कुछ स्निग्ध पदार्थ है, वे सभी जलमय हैं। अतः रसनेन्द्रिय, जिला और रस ये सब जल के गुण हैं।


शरीर में जो सङ्गत या कड़ापन है वह पृथ्वी का कार्य है, अतः हड्डी, दांत, नख आदि को पृथ्वी का अंश समझना चाहिए। इसी प्रकार दाढ़ी, मूंछ, शरीर के रोएं, केश, नाड़ी, स्नायु और चर्म – इन सबकी उत्पत्ति भी पृथ्वी से ही हुई है। नासिका नामक ध्राणेन्द्रिय पृथ्वी का ही अंश है। अतः गंध नामक विषय को भी पार्थिव गुण ही जानना चाहिए। उत्तरोत्तर सभी भूतों में पूर्ववर्ती भूतों के गुण विद्यमान हैं। इस वर्णन में महर्षि व्यास ने स्पष्ट रूप से कहा है कि

आकाशं मारूतो ज्योतिरापः पृथ्वी च पञ्चमी। भावाभावौ च कालश्च सर्वभूतेषु पञ्चसु ।। महा. भा. शान्ति पर्व, 252.2 2

अन्तरात्मकमाकाशं तन्मयं श्रोत्रमिन्द्रियम् ।
तस्य शब्दं गुणं विद्यान्मूर्तिशास्त्र विधानवित् ।। चरणं मारूतात्मेति प्राणापानौ च तन्मयौ। स्पर्शनं चेन्द्रियं विद्यात् तथा स्पर्श च तन्मयम् ।। ताप: पाक: प्रकाशश्च ज्योतिश्चक्षुश्च पञ्चमम् । तस्य रूपं गुणं विद्यात् ताम्रगौरासितात्मकम् । प्रक्लेदः क्षुद्रता स्नेह इत्यपामुदिश्यते। अमृङनज्जा च यच्चान्यत् स्निग्धं विद्यात् तदात्मकम् ।। रसनं चेन्द्रियं जिला रसश्चायाँ गुणो मतः । संधातः पार्थिवो धातुरस्थिदन्तनखानि च ।। श्मश्रु रोम च केशाश्च शिरा स्नायु च चर्म च । इन्द्रियं ध्राणसंज्ञातं नासिकेत्यभिसंज्ञिता।। गन्धश्चेवेन्द्रियोर्थोऽयं विज्ञेयः पृथिवीमयः। उत्तरेषु गुणाः सन्ति सर्वसत्वेषु चोत्तराः ।।

महा. भा. शान्ति. पर्व. 252.3-9
mahabharat - मानव शरीर विज्ञान


आकाश में शब्द मात्र गुण हैं, वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, तेज में शब्द, स्पर्श और रूप तीन गुण हैं, जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस चार गुण हैं तथा पृथ्वी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध पञ्च गुण व्याप्त हैं। जिससे यह प्रतीत होता है कि शरीर की रचना का मूलाधार पाञ्चभौतिक तत्त्व हैं। अतः ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में शरीर-विज्ञान के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान सर्वत्र प्रचलित था। महाभारत की नीलकंठ टीका में शरीर के पञ्च महाभूतों के कार्यों का उल्लेख करते हुए वर्णन मिलता है –


भूतेषु जरायुजादिषु पञ्चसुपंचात्मकेषु ऐतन भावाभाव कालनामपि भौतिकत्वमुक्तं। ननु पंचभ्यो भूतेभ्योऽधिकानिकालदिगात्ममनांसि चत्वारि द्रव्याणि गुणाश्च चतुर्विशतिः कर्मसामान्य विशेष समवायाश्चभाव पदार्थाः सप्तमोऽभाव पदार्थश्चेति काणादामन्यतेतत्कथं सर्वस्य पंचात्मकत्वं उत्तरेषु भूतेषु पूर्वभूतगुणाः संतितेन शब्द एवाकाशे शब्द स्पर्शो परकारणतामेति भावनाज्ञानकर्मभिः।


महाभारत में मानव अङ्गों की उत्पत्ति, पञ्चभूतों के सन्दर्भ में विस्तृत रूप से मिलती है। महाभारत के शान्ति पर्व के दौ सौ उनतालीसवें अध्याय में महर्षि वेद-व्यास का शुकदेव से मानव शरीर के गूढ़ रहस्यों का वर्णन करते हुए कथन है - सम्पूर्ण महाभूत विधाता की पहली सृष्टि है। वे समस्त प्राणी समुदाय में तथा सभी देहधारियों के शरीरों में अधिक से अधिक भरे हुए हैं। देहधारियों की देह का निर्माण पृथ्वी से हुआ है चिकनाहट और पसीने आदि जल से प्रकट होते हैं,

अग्नि से नेत्र तथा वायु से प्राण और अपान का प्रादुर्भाव हुआ है। नाक, कान आदि के छिद्रों में आकाश तत्त्व स्थित है।'
महा. भा. शान्ति पर्व 252.2–9,


महाभूतानि सर्वाणि पूर्वसृष्टि: स्वयम्भुवः । भूयिष्ठं प्राणभृगामे निविष्टानि शरीरिषु ।। महा. भा. शान्ति पर्व 239.6 ३ भूमेर्दैहो जलात् स्नेहोज्योतिषश्चक्षुषी स्मृते। प्राणापानाश्रयो वायुः खेष्वाकाशं शरीरिणाम् ।। क्रान्ते विष्णुर्बले शक्र: कोष्ठेऽग्निर्भोक्तमिच्छति। कर्णयोः प्रदिशः श्रोत्रं जिह्वायां वाक् सरस्वती।। महा. भा. शान्ति पर्व 239.6-8


चरणों की गति में विष्णु और बाहुबल में इन्द्र स्थित है। उदर में अग्नि देवता स्थित है। जो भोज चाहते और पचाते हैं। कानों में श्रवण शक्ति और दिशाएं हैं तथा जिला में वाणी और सरस्वती देवी का निवास है। इस वर्णन में महर्षि व्यास ने मानव अङ्गों की उत्पत्ति का विस्तृत उल्लेख किया है जिससे यह प्रतीत होता है कि मानव शरीर की रचना आदि का गूढ़ ज्ञान महाभारत काल में विकसित हो चुका था।


महाभारत के टीकाकार ने महर्षि व्यास के वचनों को स्पष्ट करते हुए वर्णन किया है –


महाभारत तथा कृषि विज्ञान,

महाभारत काल में कृषि विज्ञान,


स्वयंभ्रुव ईश्वस्य महाभूतानि पूर्व सृष्टिः। तानिचप्राण भृद्गामेजीव संघे शरीरिषुशरीराभिमानिषुमूढ जीवेषुभूयिष्ठं निविष्टानितैरात्मवेन गृहीतानीत्यर्थः प्रथक् सृष्टिरितिपाठेभौतिक सृष्टेः पृथगेव भूतसृष्टिस्ततः प्राचीनत्वादितिसएवार्थः । खेषुनासादिरं धेषु। योगमते आत्माभोक्तैवनतुकर्ता साख्यमतेतुन भोक्तानापि कर्तेति तंत्राचंदूषयत्युत्तरस्यैव सिद्धांतत्वं ज्ञापयितुम क्रांते इति। क्रांते पादेद्रियबले पाणीद्रिये च विष्णु जिह्वा स्थानं वागिन्द्रियं सरस्वतीदेवता एतच्चान्येषामपिस्थानादीनामुपलक्षणं।"


मानव शरीर में पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं जैसे - आंख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। इन ज्ञानेन्द्रियों का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है। महाभारत के शान्ति पर्व में महर्षि व्यास द्वारा पञ्च ज्ञानेन्द्रियों तथा उनके विषयानुभवों का उल्लेख शुकदेव के समक्ष किया गया है। इस वर्णन में देहधारियों द्वारा इन्द्रियों को वश में रखने पर बल दिया गया है तथा देहधारियों के शरीर में विद्यमान समस्त तत्त्वों का भी उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार महाभारतकार ने महाभारत में अनेक स्थानों पर पञ्चभूतों द्वारा शरीर की उत्पत्ति के विषय में उल्लेख किया है। महा. भा. शान्ति पर्व 239, 6-8 को त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी। दर्शनीयेन्द्रियोक्तानि द्वाराण्याहारसिद्धये ।। शब्द: स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः | इन्द्रियार्थान् पृथग् विद्यादिन्द्रियेभ्यस्तु नित्यदा।। इन्द्रियाणि मनो युङ्क्ते वश्यान् यन्तेव् वाजिनः । मनश्चापि सदा युङ्क्ते भूतात्मा हृदयाश्रितः ।। इन्द्रियान्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः। प्राणापानौ च जीवश्च नित्यं देहेषु देहिनाम् ।। महा. भा. शान्ति. पर्व 239.9-13


इसी सन्दर्भ में शान्तिपर्व में महर्षि भृगु द्वारा महर्षि भरद्वाज के समक्ष विस्तृत उल्लेख मिलता है जिसमें मानव शरीर के समस्त अङ्गों की उत्पत्ति का मूल रहस्य समाहित है।' महर्षि भृगु द्वारा देहधारियों की समस्त ज्ञानेन्द्रियों की विशेषताओं का उल्लेख महर्षि भरद्वाज के प्रति किया गया है जिसके अनुसार गन्ध, स्पर्श, रस, रूप और शब्द – ये पृथ्वी के गुण माने गए हैं। शब्द, स्पर्श, रूप और रस – ये जल के गुण माने गए हैं। शब्द, स्पर्श और रूप – ये अग्नि के तीन गुण माने गये हैं। तथा आकाश का एकमात्र गुण शब्द ही माना गया है। इस तरह महाभारत काल में ऋषि, विद्वान आदि सभी मानव शरीर रचना से भलीभांति परिचित थे। मनुष्य की समस्त क्रियाएं इन्द्रियों पर आधारित होती हैं।

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