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महाभारत काल में कृषि विज्ञान - वैदिक खेती कृषि, भारतीय कृषि व्यवस्था, mahabharat mai krishi vigyaan,

महाभारत काल में कृषि विज्ञान, mahabharat mai krishi vigyaan,


पृथ्वी पर जीवन धारण करने के लिये जिस प्रकार वायु, जल आदि आवश्यक हैं। उसी प्रकार भूख शान्त करने के लिए भोजन आवश्यक है और यह भोजन मुख्य रूप से धान्य, कन्द, मूल, फल आदि कृषि द्वारा प्राप्त होते हैं, इस प्रकार कृषि अधिकृत प्रवर्तित विज्ञान 'कृषि विज्ञान' कहलाता है।

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कृषि विज्ञान-सामान्य परिचय, mahabharat mai krishi


कृषि शब्द की व्युत्पत्ति कृष् धातु से हुई, जिसका अर्थ, विलेखन क्रिया करना है, उत्कीर्ण, अपकर्षण, कर्षण, भी कहा जाता है। अतः भूमि पर कर्षण द्वारा फसलों को उगाना, उनकी कटाई और पशुपालन आदि कृषि-विज्ञान के अन्तर्गत आते हैं। कृषि शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर निम्नलिखित अर्थ स्पष्ट होते हैं

कृष्यते इति कृषिः, कृष्यतेऽनेनेति कृषिः कर्मसामान्यं कृषिः कर्षण क्रियायाः फलं कृषिः शतपथ ब्राह्मण में कृषि को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया गया है -

अथैनं विकृषति, अन्नं वै कृषिः। तथा आदि पुराण के अनुसार,

कृषिभूकर्षणे प्रोक्ता। शत. ब्रा. 7.2.2.6

आदि. पु. 16.181


इस प्रकार कृषि का प्रारम्भ अनादि काल से माना गया है। इस क्षेत्र में निरन्तर विज्ञान के आधार पर विकास होते रहे हैं। यह विज्ञान वैदिक काल से लेकर उत्तर काल तथा आधुनिक काल तक निरन्तर विकास करता आया है।


महाभारत तथा कृषि विज्ञान 


महाभारत काल में कृषि विज्ञान अत्यन्त विकसित स्थिति में था। कृषि के महत्व से सभी परिचित थे तथा इस क्षेत्र में विकास हेतु अनेक कार्य महाभारत काल में किये गये। महर्षि व्यास ने कृषि को इस जगत् के जीवन का मूल माना है तथा राजा द्वारा उचित शासन व्यवस्था से इसका पालन-पोषण सम्भव बताया है। इस सन्दर्भ में राजा के न होने पर प्रजा की हानि का उल्लेख करते हुए वसुमना तथा बृहस्पति के संवाद में वर्णन मिलता है। इसी प्रकार कृषि के प्रयोजन को अन्न की उत्पत्ति का आधार बताते हुए बृहस्पति द्वारा अन्न के महत्व का उल्लेख युधिष्ठिर के प्रति किया गया है। इस वर्णन से महाभारत में कृषि के महत्व का बोध होता है।


महाभारत में श्रीकृष्ण द्वारा गीता में कृषि के स्वरूप का उल्लेख किया गया है जिसमें अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव, ये पांच कर्म कृषि विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण बताये गये हैं। यथा -


अधिष्ठान – कृषि की अधिष्ठात्री देवी 'पृथ्वी' हैं, जो सभी बीजों की प्रसवयित्री और भूतधात्री हैं। इस सन्दर्भ में अथर्ववेद में भी वर्णन मिलता है।

वार्तामूलो ह्ययं लोकसय्या वैधार्यते सदा।

तत् सर्वं वर्तते सम्यग् यदा रक्षति भूमियः ।। महा. भा. शान्ति. पर्व. 68.35

प्राणा ह्यन्नं मनुष्याणां तस्माज्जन्तुश्च जायते।

अन्ने प्रतिष्ठितो लोकस्तस्मादन्नं प्रशस्यते।। सतां पन्थानमावृत्य सर्वपापैः प्रमुच्यते।। महा. भा. अनु. पर्व 112.11-23

यस्यामन्नं कृष्टयः सम्बभूव, यस्यामिदं जिन्वन्ति प्राणदेजत् सा नो भूमि: अथर्व. वे. 12.1.3


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कर्ता – कृषि कर्म का कर्ता बुद्धि कौशलयुक्त तथा कृषि तंत्र का जानकार होता है। धान्य उत्पादन के कारण 'धान्यकृत', कर्षण व्यापार से 'कृषक तथा कृषि रूप वृत्ति से 'कृषीवल और हल के मुख से भूमिगत कीट आदि जीवों का नाश करने से 'कीनाश" कहलाता है।


करण - कृषि कर्म के साधन यथा – जल, बीज, हल आदि करण कहलाते

चेष्टा - क्षेत्रकर्षण, बीजवपन, फसल सींचना, धान्य निस्तृणीकरण धान्य लवन, मर्दन आदि कर्म चेष्टा कहलाते हैं।

दैव - कृषि की सिद्धि पर दैव प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है। यथा – इन्द्र, सूर्य, वायु, पर्जन्य, प्रजापति, पृथ्वी आदि दिव्य शक्तियां ग्रह नक्षत्र तथा काल आदि कृषि को प्रभावित करते हैं। ऋग्वेद के क्षेत्रपति सूक्त में दिव्य शक्तियों की स्तुति का उल्लेख मिलता है।


इस विवरण से स्पष्ट होता है कि महाभारत काल में कृषि के सभी तत्त्वों का ज्ञान प्रचलित था। इसके अतिरिक्त महर्षि व्यास ने महाभारत में अनेक स्थानों पर कृषि विज्ञान से सम्बन्धित तथ्यों का उल्लेख किया है, जैसे – कृषि कर्माधिकारी, भूमि, कृषि-प्रक्रिया, सिंचाई के साधन, कृषि उपयोगी यंत्र, वपन क्रिया, कृषि संरक्षण, कृषि पर ज्योतिषीय प्रभाव आदि ।


महाभारत काल में कृषि विज्ञान कृषि कर्माधिकार, MAHABHARAT MAI KRISHI KARM


भारतीय जीवन दर्शन का मूल आधार कर्म है। कर्म प्राणियों का स्वभाव है। महाभारत में गीता में कहा गया है कि जीव का प्रतिपल किया गया कर्म ही ठहरता वपन्तो बीजमिव धान्यकृतः । ऋ. वे. 10.94.13 - कृषि पराशर 1.1 3 ऋ. वे. 8.6.4 * इरायै कीनाशम् – शुक्ल. यजु. वे. 30.11 5 ऋ. वे. 4.57 है।

महाभारत तथा कृषि विज्ञान,


इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का ज्ञान दिया है।' महर्षि व्यास द्वारा में कृषि कर्म के अधिकारी को दो भागों में विभक्त किया गया है,वर्णधर्म के अनुसार कृषि कर्म का अधिकार - महर्षि व्यास ने मनुस्मृति के नियम के आधार पर वर्णों को चार भागों में विभक्त किया है, यथा - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और इनमें वैश्य धर्म वालों को ही कृषि का अधिकारी माना है। इस सन्दर्भ में महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म द्वारा वैश्यों के कर्म का उल्लेख युधिष्ठिर के प्रति किया गया है, जिसके अनुसार वैश्य का कार्य कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार करना है। इसी प्रकार शान्ति पर्व में महर्षि भृगु ने भरद्वाज ऋषि के समक्ष यह वर्णन किया है कि कुछ ब्राह्मणों ने कृषि कर्म को अपनी जीविका चलाने की वृत्ति मान लिया था जिससे उनका रङ्ग पीला पड़ गया था,


अतः वे ब्राह्मण वैश्यभाव को प्राप्त हुए। इससे स्पष्ट होता है कि महाभारत काल में वैश्य धर्म वाले ही कृषि कर्म के अधिकारी थे। इस सन्दर्भ में अर्थशास्त्र में वैश्यों को कृषि कर्म का अधिकारी बताया है। महर्षि वाल्मीकि ने भी रामायण के अयोध्याकाण्ड में वैश्य वर्ण को कृषि कर्म का अधिकारी माना है।


गीता. 2.47

करोति कर्म यद् वैश्यस्तद् गत्वा ह्युपजीवति ।

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यमकुत्सा वैश्यकर्मणि।। महा. भा. अनु. पर्व. 1359

गोभ्यो वृत्ति समास्थाय पीताः कृष्युपजीविनः। स्वधर्मान् नानुतिष्ठन्ति ते द्विजा वैश्यगतां गताः ।। महा. भा. शान्ति. पर्व. 188.12 कृषि पशुपाल्ये वाणिज्या च वार्ता। अर्थ. शा. 1.4.1

वा. रा. अयोध्याकाण्ड 100.47

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