गांधी से सुभाष बोस की टकराहट ही इसी बात को लेकर थी, क्योंकि सुभाष बाबू का कहना था,
अंग्रेजों को, मजहबियों को "अराजक" होने दीजिए, लाशें गिरने दीजिए..रक्त बहने दीजिए, तब जो देश-समाज जागेगा, उसमें से विद्रोह के स्वर अपने आप फूटेंगे! वही वास्तविक स्वतन्त्रता लाएगा। क्योंकि सुभाष में "विनाश में सृजन" को देखने की क्षमता और साहस दोनों था।
जबकि गांधी चाहते थे, खून खराबा ना हो! रक्त ना बहे! जो भी हो, सबकी सहमति से हो! क्योंकि गांधी में "विनाश में सृजन" को देख सकने की क्षमता और साहस दोनों नहीं था।
देश, गांधी के रास्ते चला। रक्त से भयभीत हो गया। संपति के मोह से ठहर गया। सन 1947 में सदियों से ठहरे मवाद को बहने का अवसर नहीं मिला। सड़न बढ़ती गई। यह जो सड़न है! यह जो मवाद है! सत्ता का नहीं, समाज का मवाद है! समाज की सड़न है।
कथित किसान आंदोलनकारियों के सामने आज जो "वास्तविक किसान" आकर खड़े हो गए। वो संभव ना होता यदि कल लालकिले पर सत्ता गोली चलवा देती। तब समाज को न्याय करने का अवसर ना मिलता। सड़न और मवाद फिर देह में ठहर जाता।
हर समाज अपनी आस्था से निर्देशित होता है। अपनी आस्था के नायकों के रास्ते पर चलता है। कभी-कभी सत्ता की "निष्क्रियता" सुसप्त पड़े समाज को "सक्रिय" कर देती है। जाग्रत कर देती है।
अपन हमेशा एक कार्यकर्ता रहे हैं। आज भी हैं। परिवर्तन को जमीन से महसूस किया, तभी कोई दृष्टि बनाई।
कल लिखा था ना... सबसे भयंकर होता है, हताशा का विस्फोट!
हताशा में असीम ऊर्जा छिपी होती है।
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