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Sandhya Vidhi संध्या उपासना त्रिकाल संध्या विधि धर्मसूत्रों और स्मृतियों के आधार पर बने हुए संध्या वंदन

Sandhya Vidhi संध्या उपासना त्रिकाल संध्या विधि धर्मसूत्रों और स्मृतियों के आधार पर बने हुए संध्या वंदन।

आज से कई हजार वर्ष पहले आर्य जाति ने अपना जो टाइम टेबल वादिनचर्या बनायी थी उसके अनुसार वह आचरण किया करती था।


वह दिनचर्या गृह्यसूत्रों ओर वाद उनके तथा धर्मसूत्रों और स्मृतियों के आधार पर बने हुए आह्रिकों में मिलती है। इनके अनुसार मनुष्य को ब्राह्म मुहर्त में उठ कर फिर रात को सोने तक क्या क्या करना चाहिये उसका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। 

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दिन रात में आठ पहर होते हैं परन्तु कार्य के सुभीते के लिये इस टाइम टेवल में प्रहरार्द्ध वा यामाई रखे गये हैं और इस प्रकार आठ याम के सोलह यामार्द्ध वा प्रहरार्द्ध बनाये गये हैं। ब्राह्ममुहूर्त डेढ़ घण्टे रात रहे अर्थात् ४ बजे से ही आरम्भ होता है इसलिये आयों का सबेरा इसी समय होता था। सोलह यामाई में आजीविका के लिये एक यामार्द्ध रखा गया है। यह व्यवस्था द्विजमान के लिये थी इससे स्पष्ट है कि लोगों की आवश्यकताएं ही कम न थीं परन्तु राज्य उनका होने से उसकी ऐसी व्यवस्था थी कि कमाने खाने का काम बहुत साधारण समझा जाता था और सारा समय धर्माचरण धर्मोपदेश और धर्मचर्चा में व्यतीत होता था। परन्तु आजकल तो मनुप्य इसी चिन्ता में चूर हो रहे हैं कि कैसे अपना और अपने आश्रितों का भरण पोषण करें। जब सारे दिन भी काम करके वे पर्याप्त धन नहीं प्राप्त कर सकते तो एक यामाई या डेढ़ घण्टे में क्या कर सकेंगे यह विचारणीय है। इसलिये पिछले लोगाने अवस्थाके अनुसार व्यवस्था कर ली और अब वह आद्विक पुराने आदर्श का स्मारक मात्र रह गया है। 


Sandhya Vandana Time पुराना आदिक वा टाइम टेबल इस प्रकार थाः 

ब्राममुहूर्त में बजे उठना और ६ बजे तक एक यामार्द्ध में प्रातःस्मरण शौचादि मे निवृत्ति दन्तधावन मान सन्ध्या जप और तर्पण। 

६ बजेसे ७ बजे तक इष्टदेव गुरु आदिका पूजन 

७ वजेसे ९ बजे तक वेदाध्ययन । 

१ वजे से १०॥ बजे तक आजीविकाके लिये काम । 

१० बजे से १२ बजे तक लानमन्याइ सन्ध्या तर्पण ब्रह्मयज्ञ देवपूजा। 

१२ बजे से २ बजे तक होम और भृत पितृ देव बाम और नृयज्ञ नाम के पञ्च महायज्ञ और भोजन । 

और ८ १।। वजेसे बजे तक इतिहास पुराण तथा अन्य सांसारिक विषयोंका अध्ययन । 

१ बजे से ६ वजे तक मित्रां से मिलना भेटना और सायं सन्ध्या । 

१० और ११ ६ से ९ बजे तक दिनके पूरे न हुए धर्मों का पालन स्त्री बच्चों आदिमे वार्तालाप आदि । 

११ से १६ ०से ४ बजे तक सोना। आहिकों में इस दिनचर्या का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। कहां मल मूत्र त्यागकरना कहां नहीं दतचन कितनी बड़ी और किस पेड़ की होनी चाहिये धोती के साथ गमछा क्यों होना चाहिये इत्यादि विषयों पर बड़ा शास्त्रार्थ भरा पड़ा है। 


Panchmaha yagya. पंच महायज्ञ

वेदों के पठन पाठन के साथ ही वैदिक कर्म का भी लोपसा हो गया। पंच महायज्ञों से ब्रह्मयज्ञ इस प्रकार निकल जाने से चार ही रह गये। इनमें देवयज्ञ वलिवैश्वदेव है जिसमें क्रमशः 

१ अमि२ सोम ३ अग्निसोम ४ विश्वदेवा ५ धन्वन्तरि ६ कुहु ७ अनुमति ८ प्रजापति ९ द्यावापृथिवी और १० अग्नि स्विष्टकृत को बलि रूप से अन्न दिया जाता था और भूतयज्ञ में प्राणियों वा मनुप्येतर जीवों को उनका भाग दिया जाता था जिनमें काकबलि और श्वानबलि भी हैं बन्द हो गया। 


केवल कुत्ते को रोटी देना भर रह गया है और वह भी भोजन करने के पहले नहीं पीछे पितृयज्ञ पितृश्राद्ध है और तृयज्ञ अतिथिसेवा है। आजकल ब्रह्मयज्ञ देवयज्ञ भूतयज्ञ और पितृयज्ञके बदले सन्ध्या पूजा और तर्पण आदि ही रह गये हैं मनुप्य वा नृयज्ञ भी लुप्तसा हो रहा है। भोजन के समय जो ग्रास आदि उत्सर्ग किये जाते हैं उनसे भी भूतयज्ञ की आंशिक पूर्ति होती है। इसलिये नित्यकर्ममें सन्ध्या तर्पण और भोजन विधिका ही वर्णन रह जाता है। 


सन्ध्या । 

सन्ध्या शब्द का व्यवहार हम लोग सूर्यास्त समय या शाम के लिये करते हैं परन्तु उसका अर्थ मेल है और दिन रात की सन्धि भी सन्ध्या ही कहाती है। प्रातःकाल और सायंकाल को तो रात्रि की दिन से और दिन से रात्रि की सन्धि सभी समझते हैं परन्तु मध्याह्न काल में सूर्य की अवस्था की अत्यन्त उन्नति और अवनति में जो सन्धि होती है उससे मध्याह्न कालकी संज्ञा भी सन्ध्या पड़ गयी है और इस प्रकार तीन सन्ध्याएं प्रातः मध्याह्न और सायं होती हैं। इन सन्ध्याऑक समय परमात्माकी जो उपासना की जाती है उसका नाम भी सन्ध्या है 

सम्यध्यायंति सम्यध्यायते वा परब्रह्म यस्यां सा सध्या 

अर्थात् जिसमें योगी भली भांति परब्रह्मका ध्यान करते हैं या जिसमें परंवामका भली भांति ध्यान किया जाय वह सन्ध्या है। सन्ध्या के समय परमात्माकी उपासना सन्थ्योपासन या सन्ध्योपासना भी कहाती है। जीवात्माका परमात्मा से मेल सन्थ्योपासनद्वारा ही होता है इसलिये भी इमे सन्ध्या कहना चाहिये । 

त्रिकाल सन्ध्या। 

सन्ध्या द्विजांका नित्य कर्तव्य है और इसी लिये कहा गया है कि रोज रोज सन्ध्या करे अहरहः सन्ध्यामुपासीत। मनुस्मृति में तो सवेरे शाम सन्ध्या न करनेवालेको आयों की श्रेणी से निकाल देने की बात भी कही गया है। कहा है 

 न तिष्ठति तु यः पूर्वा नोपास्ते यश्च पश्चिमां । स शूद्र इव वहिप्कार्यः सर्वस्मादिद्रुजकर्मणः ॥ 

जो प्रातःकाल पूर्व की ओर मुंह करके और सायंकाल पश्चिमकी ओर मुंह करके सन्ध्योपासना नहीं करता वह सब द्विजे कर्मों से शुद्र के समान बहिष्कारयोग्य है। इससे जान पड़ता है कि सन्ध्या दो बार करनी चाहिये पर कई ऐसे वेद मंत्र भी हैं जिनमें तीन बार भी उपासना की चर्चा है और उपनिषदों में तो इसी आशय का आदेश अनेक स्थलों पर है। त्रिकाल सन्ध्योपासन के पक्ष में ये वेद मंत्र हैं 

मम त्वा सूर उदिते मम मध्यं दिने दिवः । मम प्रपित्वे अपिशवरे वसवास्तोमासोअवृत्सत ।। ऋग्वेद ८।१।२९।। 

हे सर्वव्यापक परमेश्वर सूर्योदयके समय मध्य दिनमें और दिनके अन्तमें सायंकाल भी मेरी प्रार्थना तुम्हारे लिये ही होती है। अर्थात् तीन वार मैं सन्ध्योपासन करता हूं। 

यदा सूर्य उद्यति प्रिय क्षत्रा ऋतं दध । यन्निग्रुचि प्रबुधि विश्ववेदसो यद्वा मध्यन्दिने दिवः ॥३० ८।२७१९।। 

हे क्षत्रियो सूर्य के उदय के समय वा जागने के समय सूर्य के अस्त के समय और दिन के मध्य में सर्वज्ञ परमेश्वर के मंत्र की धारणा करोगे तो आज से ही ययार्थ संकल्प के धारण करने वाले बन जाओगे । 

यदा सूर उदिते यन्मध्यं दिन आतुचि । वामं धत्य मनवे विश्ववेदसो जुहवानाय प्रचेतसे ॥ऋ० ८।२७॥२१॥ 

यदि तुम सूर्य के उदय के समय मध्य दिन के समय तथा सन्ध्या के समय सर्वज्ञ परमेश्वर का बन्दनीय स्तोत्र मनन चिन्तन और धारण करोगे तो आज ही श्रेष्ठ बन जाओगे। ये स्तोत्र और कुछ नहीं सन्ध्या के ही मंत्र हैं। इसलिये आह्निक की व्यवस्था के सिवा वैदिक मंत्रों से भी तीन बार सन्ध्या करने की ही विधि का पता लगता है। पर यहां यह प्रश्न हो सकता है कि फिर मनुस्मृति में दो ही वार सन्ध्या करने पर क्यों जोर दिया गया है। इसका उत्तर यह है कि उस समय द्विजों में सन्ध्या की उपेक्षा होने लगी थी इस लिये मनुस्मृति के समय में सोचा गया कि तीन न सही दो ही वार सन्ध्या करें तो बहुत है । इसी से कहा गया कि जो द्विज दो बार सन्ध्या न कर वह वैदिक अनुष्ठानों में न बैठने पावे। परन्तु इससे यह नहीं सिद्ध होता कि संध्या दो ही वार करनी चाहिये । यही नहीं तैत्तिरीय आरण्यक में आचमन के मंत्र जब तीनो संध्याओं के लिये अलग अलग लिखे हैं और सायणाचार्य ने अपने भाप्य में यह बात स्पष्ट कह दी है तब तीन बार सन्ध्या करनी चाहिये या दो बार इसका निपटारा सहज में ही हो जाता है। 


याज्ञवल्क्य के वचन त्रिकाल संध्या।

दिवा वा यदि वा रात्रौ यदा ज्ञान कृतं भवेत् । त्रिकाल सन्ध्या करणात्तत्सर्व विप्रणश्यति ॥ 

और व्यास की इस उक्ति से कि 

या सन्ध्या सा च गायत्री त्रिधा भूत्त्वा व्यव स्थिता। पूर्वा भावे तु गायत्री सावित्री मध्यमा स्मृता ॥ या भवेत् पश्चिमा सन्ध्या सा च देवी सरस्वती ॥ 

स्पष्ट होता है कि इन स्मृतिकारों को त्रिकाल सन्ध्या ही इष्ट है। परन्तु आजकल है जब एक बार भी सन्ध्या करना भार हो रहा है तब दो बार करनी चाहिये या तीन बार इसकी चर्चा ही व्यर्थ है। समय समय पर लोगों ने इस टाइम टेबल में सुधार चाहे लिख कर न किये हों पर व्यवहार में किये हैं और इसका पता लगता है कि भोजन के बाद किसी समय मध्याह्न सन्ध्या होने लगी थी। यह अनुचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि मध्याह्न सन्ध्याके एक आचमन मंत्र में उच्छिष्ट भोजन की निप्कृति की चर्चा भी है। इसके बाद प्रातःसन्ध्या के साथ ही मध्याह्न सन्ध्या कर लेना उचित समझा गया और इस प्रकार कहने के लिये तो तीन बार पर वास्तव में दो ही बार सन्ध्योपसना होने लगी। 

अब एक ही चार सन्ध्योपासन रह गया है। सन्ध्या के समय। तीनो सन्ध्याओं का समय तो अलग अलग होता ही है परन्तु प्रातः सन्ध्या सूर्योदय के पहले आरम्भ करनी चाहिये और उषाकाल में सूर्या ञ्जलि देनी चाहिये। इसी प्रकार सायं सन्ध्या सूर्यास्त से पहले आरम्भ और समाप्त कर देनी चाहिये। योगि याज्ञवल्क्य ने कहा है कि 

सन्धौ सन्ध्यामुपासीत नास्तगे नोद्गते खौ। हास वृद्धिं तु सततं दिवसानां यथाक्रम ॥ 

अर्थात् सन्धिमें सन्ध्या करना चाहिये और सूर्योदय या सूर्यास्तके बाद न करनी चाहिये। दिनोंके घटने बढ़ने का क्रम बराबर समझते रहना चाहिये। दोपहर को मध्याह्न सन्ध्या करनी चाहिये इस विषय में तो कुछ कहने का ही प्रयोजन नहीं रह गया। संध्या के मंत्र। अब विचारना है कि सन्ध्या के मंत्र कौन से हैं। सन्ध्या नाम से जो ईश्वरोपासना प्रसिद्ध है वह वैदिक ही है । इसलिये सन्ध्या के मंत्र भी वेदों के ही मंत्र होने चाहिये। परन्तु यदि कोई भाषा द्वारा सन्ध्या करे तो भी कुछ हर्ज नहीं है। वेदों से सम्बन्ध बनाये रखने के लिये वैदिक मंत्रों से सन्ध्या करने की परिपाटी प्रचलित रहना परमावश्यक है पर वैदिक मंत्रों का शुद्ध उच्चारण जिनसे नहीं बन पड़ता उनसे वेद मंत्रों द्वारा सन्ध्या कराना निष्प्रयोजनीय है। 

सन्ध्या की जो पोथियां मिलती । हैं उनमें वैदिक मंत्रोंके सिवा कुछ पौराणिक और तांत्रिक बातें भी हैं। तांत्रिक बातें कम ही हैं क्योंकि तांत्रिकों ने अपने सिद्धान्त वैदिकों की अपेक्षा अधिकतर गुप्त रखे है पर पौराणिक बातें स्पष्ट दिख रही हैं। 


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