भगवान श्रीराम जी और महर्षि अगस्त्य जी के बीच संवाद महर्षि अगस्त्य उवाच शिवलिंग का रहस्य और वैज्ञानिकता क्या है शिवलिंग की पूजा क्यों होती है और कैसे बना? शिव-शक्तिस्वरूप shiv puran katha shivling kya hai
अतः परमानन्दका लाभ लेनेके लिये शिवलिंगका विशेषरूपसे पूजन करे।देवी उमा जगत्की माता हैं और भगवान् शिव जगतके पिता। जो इनका पूजन करता है, उस पर इन दोनों की कृपा नित्य बढ़ती रहती है । वे साधकों पर कृपा करके उसे आन्तरिक और मानसिक सुख प्रदान करते हैं। अत: जीवन सुख प्राप्त करने हेतु, शिवलिंग पूजन अव्यश्य करना चाहिए, भगवान शिव पुरुषरूप है और शिवा प्रकृति कहलाती है। प्रकृति में पुरुषका संयोग होने पर पुरुषसे उसका प्रथम जन्म कहलाता है।अव्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्वादिके क्रमसे जो जगत्का व्यक्त होना है, यही उस प्रकृतिका द्वितीय जन्म कहलाता है। जीव पुरुषसे ही बारंबार जन्म और मृत्युको प्राप्त होता है। मायाद्वारा अन्य रूपसे प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है, जीवका शरीर जन्मकालसे ही जीर्ण ( छः भावविकारोंसे युक्त) होने लगता है, इसीलिये उसे 'जीव' संज्ञा दी गयी है। जो जन्म लेता और विविध पाशोंद्वारा तनाव ( बन्धन) -में पडता है, उसका नाम जीव है; जन्म और बंधन जीव शब्द का अर्थ ही है । अतः जन्म - मृत्युरूपी बन्धनकी निवृतिके जन्मके अधिष्ठानभूत मातृ-पितृस्वरूप शिवलिंगक पूजन करना चाहिए ।
लिंग पुराण पूर्वभाग चौथा अध्याय शिवलिंग का रहस्य और वैज्ञानिकता क्या है शिवलिंग की पूजा क्यों होती है और कैसे बना? शिव-शक्तिस्वरूप shiv puran katha,
अलिङ्ग एवं लिङ्गतत्त्वका स्वरूप, शिवतत्त्वकी व्यापकता, महदादि तत्त्वोंका विवेचन,जगत्की उत्पत्तिका क्रम तथा महेश्वर शिवकी महिमा सूतजी बोले-वह निर्गुण ब्रह्म शिव (अलिङ्ग) ही लिङ्ग (प्रकृति) -का मूल कारण है तथा स्वयं लिङ्ग प्रकृतिरूपके है। लिङ्ग को भी शिवोद्भासित माना जाता है, अगुण, ध्रुव,अक्षय,अलिङ्ग निर्गुण और शब्द, स्पर्श, रूप, रस,गन्ध आदि से परे तत्त्वको ही शिव कहा गया है। १-३ ।। हे श्रेष्ठ विप्रो! वह जगत्का उत्पत्तिस्थान है, पंचभूतात्मक अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, आकाश, वायुसे युक्त है, स्थूल है, सुक्ष्म है, जगत्का विग्रह है तथा यह लिङ्गतत्व निर्गुण परमात्मा शिवसे स्वयं उत्पन्न हुआ है। उस अलिङ्ग अर्थात् निर्गुण परमात्माकी माया से सात, आठ तथा फिर ग्यारह इस तरह कुल छब्बीस रूपवाले लिङ्गतत्व इस व्रह्माण्डमें व्याप्त हैं ॥ ५ ॥
उन्हीं माया वितत लिङ्गोंसे उद्धत तीनों प्रधान देव शिवात्मक हैं। उन तीनोंमें एक ब्रह्मासे यह जगत् उत्पन्न हुआ, एक विष्णुसे जगत्की रक्षा होती है तथा एक रुद्रसे जगत्का संहार होता है। इस प्रकार शिवतत्त्वसे यह विश्व व्याप्त है। वह परमात्मा निर्गुण भी है तथा सगुण भी है। लिङ्ग अर्थात् व्यक्त तथा अलिङ्ग अर्थात् अव्यक्तरूपमें कही गयी सभी मूर्तियाँ शिवात्मक ही हैं; इसलिए यह ब्रह्मांड साक्षात ब्रह्मरूप है । वही अलिंगी अर्थात अव्यक्त तथा बीजी भगत्तत्व परमेश्वर है ।। ६ - ८ ।। वह परमात्मा बीज ( ब्रह्मा) भी है, योनि (विष्णु) भी है तथा निर्बीज (शिव) भी है और बीजरहित वह शिव जगत्का बीज अर्थात् मूल कारण कहा जाता है। बीजरूप ब्रह्मा, योनिरूप विष्णु तथा प्रधानरूप शिवकी इस जगत्में अपनी-अपनी विश्व, प्राज्ञ तथा तैजस अवस्थाकी संज्ञा भी है॥ ९॥ यह विशुद्ध मुनिरूप परब्रह्म नित्यबुद्धस्वभावके कारण पुराणोंमें 'शिव' कहे गये हैं॥ १० ॥ हे विप्रो! शिवकी दृष्टिमात्रसे प्रकृति 'शैवी' हो गयी तथा सृष्टिके समय अव्यक्त स्वभाववाली वह प्रकृति गुणोंसे युक्त हो गयी॥ ११ ॥
अव्यक्त तथा महत्तत्त्वादिसे लेकर स्थूल पंचमहाभूतपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् उसी प्रकृतिके अरधीन है। अत: विश्वको धारण करनेवाली शैवीशक्ति प्रकृति ही अजा नामसे कही गयी है॥ १२ ॥ रक्तवर्णा अर्थात् रजोगुणवाली, शुक्लवर्णा अर्थात् सत्त्वगुणवाली तथा कृष्णवर्णा अर्थात् तमोगुणवाली एवं बहुविध प्रजाओंकी उत्पत्ति करनेवाली अजास्वरूपिणी उस प्रकृतिकी प्रेमपूर्वक सेवा करता हुआ यह बद्ध जीव उसका अनुसरण करता है॥ १३ ॥ दूसरे प्रकारका अनासक्त जीव प्रकृतिके भोगोंको भोगकर और उसकी असारता तथा क्षणभंगुरताको समझकर उस मायाका परित्याग कर देता है । परमेश्वर द्वारा अधिष्ठित वह अजा अंनत ब्रह्मांड की उत्पत्तिकर्त्री है।।१४।। सृष्टिके समयमें तीन गुणोंसे युक्त अजरूप पुरुषकी आज्ञासे उसमें अधिष्ठित मायासे वह महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ।।१५।। सृष्टि करनेकी इच्छासे युक्त होकर उस अधिष्ठित महत्त्त्वने स्वत: अव्यय तथा अव्यक्त पुरुषमें प्रविष्ट होकर व्यक्त सृष्टिमें विक्षोभ उत्पन्न किया॥ १६॥
उस महत्तत्त्वसे संकल्प-अध्यवसायवृत्तिरूप सात्त्विक अहंकार उत्पन्न हुआ तथा उसी महत्तत्वसे त्रिगुणात्मकरूप रजोगुणकी अधिकतावाला राजस अहंकार उत्पन्न हुआ और उस रजोगुणसे सम्यक् प्रकारसे आवृत तमोगुणकी अधिकतावाला तामस अहंकार भी उसी महत्तत्वसे उत्पन्न हुआ है तथा उसी अहंकारसे सुष्टिको व्याप्त करनेवाली शब्द, स्पर्श आदि तन्मात्राएँ भी उत्पन्न हुई हैं॥ १७-१८॥ महत्तत्त्वजन्य उस तामस अहंकारसे शब्द तन्मात्रावाले अव्यय आकाशकी उत्पत्ति हुई और बादमें शब्दके कारणरूप उस अहंकारने शब्दयुक्त आकाशको व्याप्त कर लिया। हे विप्रो! इसी प्रकार तन्मात्रात्मक भूतसर्ग के विषयमें कहा गया है। हे मुने! उस आकाशसे स्पर्श-तन्मात्रावाला महान् वायु उत्पन्न हुआ। पुन: उस वायुसे रूपतन्मात्रावाले अग्निकी उत्पत्ति हुई तथा अग्निसे रसतन्मात्रावाले जलका प्रादुर्भाव हुआ। फिर रसतन्मात्रावाले उस जलसे गन्धतन्मात्रावाली कल्याणमयी पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई।॥ १९-२१ ॥
हे श्रेष्ठ विप्रो! शिवलिंग का रहस्य और वैज्ञानिकता क्या है शिवलिंग की पूजा क्यों होती है और कैसे बना? शिव-शक्तिस्वरूप shiv puran katha,
आकाश स्पर्शतन्मात्रावाले वायुको आवृत किये रहता है तथा रूपतन्मात्रावाले अग्निको आच्छादित करके यह क्रियाशील वायु रहता है॥ २२ ॥ साक्षात् अग्निदेव रसतन्मात्रावाले जलको आच्छादित किये रहते हैं तथा सभी रसोंसे युक्त जलतत्त्व गन्धतन्मात्रावाली पृथ्वीको आच्छादित किये रहता है॥ २३ ॥ इस प्रकार पृथ्वी पाँच (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध) गुणोंसे, गन्धरहित शेष चार गुणोंसे जल, भगवान् अग्नि तीन गुणोंसे तथा स्पर्शसमन्वित वायु दो गुणोंसे युक्त हुए और अन्य अवयवोंसे रहित आकाशदेव मात्र एक गुणवाले हुए। इस प्रकार तन्मात्राओंके पारस्परिक संयोगवाला भूतसर्ग कहा गया है ॥ २४-२५ ॥
राजस, तामस तथा सात्त्विक सर्ग साथ-साथ प्रवृत्त होते हैं, किंतु यहाँ पर तामस अहंकारसे ही सर्गका होना बताया गया है॥ २६ ॥ शब्द-स्पर्श आदिको ग्रहण करनेके लिये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा उभयात्मक मन इस जीवके लिये बनाये गये हैं॥ २७ ॥ महत्तत्त्वादिसे लेकर पंचमहाभूतपर्यन्त सभी तत्त्व अण्डकी उत्पत्ति करते हैं। वह परमात्मा ही पितामह ब्रह्मा, शंकर तथा विश्वव्यापी प्रभु विष्णुके रूपमें उस अण्डसे जलके बुलबुलेकी भाँति अवतीर्ण हुआ। ये सभी लोक तथा उनके भीतरका यह सम्पूर्ण जगत् उस अण्डमें सन्निविष्ट था ॥ २८-२९ ॥ वह अण्ड अपनेसे दस गुने जलसे बाहरसे व्याप्त था और जल बाहरसे अपनेसे दस गुने तेजसे आवृत था॥ ३० ॥ तेज अपनेसे दस गुने वायुसे बाहरसे आवृत था और वायु अपनेसे दस गुने आकाशसे बाहरसे आवृत था॥ ३१॥ शब्दजन्य वायुको आवृत किये हुए वह आकाश तामस अहंकारसे आवृत है। शब्द-हेतु आकाशको आवृत करनेवाला वह तामस अहंकार महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है और वह महत्त्त्व स्वयं अव्यक्त प्रधानसे आवृत है ॥ ३२ ॥ उस अण्ड (ब्रह्माण्ड)-के ये सात प्राकृत आवरण कहे गये हैं। कमलासन ब्रह्माजी उसकी आत्मा हैं। इस सृष्टिमें करोड़ों-करोड़ों अण्डों (ब्रह्माण्डों)-की स्थितिके विषयमें कहा गया है॥ ३३॥
प्रधान (प्रकृति) ही सदाशिवके आश्रयको प्राप्त करके इन करोड़ों ब्रह्माण्डोंमें सर्वत्र चतुर्मुख ब्रह्मा, विष्णु और शिवका सृजन करती है अन्तमें शम्भुका सहयोग प्राप्तकर वहीं प्रधान लय भी करती है। इस प्रकार परस्पर सम्बद्ध आदि (सृष्टि) तथा अन्त (प्रलय) - के विषयमें कहा गया है। इस सृष्टिकी रचना, पालन तथा संहार करनेवाले वे ही एकमात्र महेश्वर हैं॥ ३४-३५|॥ वे ही महेश्वर क्रमपूर्वक तीन रूपोंमें होकर सृष्टि करते समय रजोगुणसे युक्त रहते हैं, पालनकी स्थितिमें सत्त्वगुणमें स्थित रहते हैं तथा प्रलयकालमें तमोगुणसे आविष्ट रहते हैं॥ ३६ ॥ वे ही भगवान् शिव प्राणियोंके सृष्टिकर्ता, पालक तथा संहर्ता हैं। अतएव वे महेश्वर ब्रह्माके अधिपतिरूपमें प्रतिष्ठित हैं, जिस कारणसे भगवान्स दाशिव भव, विष्णु, ब्रह्मा आदि रूपोंमें स्थित हैं तथा सर्वात्मक हैं, इसी कारण वे ही ब्रह्माण्डवर्ती इन लोकोंके रूपमें तथा इनके कर्ता पितामहके रूपमें कहे गये हैं॥ ३७-३८॥ हे द्विजो! पुरुषाधिष्ठित यह प्राथमिक ईश्वरकृत अबुद्धिपूर्वक उत्पन्न तथा कल्याणकारी प्राकृत सर्ग मैंने तुम्हें सुनाया है॥ ३९॥
श्री शिव गीता अध्याय श्लोक - २६ भगवान श्रीराम जी और महर्षि अगस्त्य जी के बीच संवाद
महर्षि अगस्त्य उवाच
दुर्ज्ञेया शांभवी माया तया संमोह्यते जगत् ।
माया तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।।२६।।
अनुवाद-अगस्त्य मुनि बोले कि माया को जानना बहुत कठिन है, सम्पूर्ण जगत माया से ग्रस्त है, इस माया को प्रकृति और माया अधिपति को महादेव माना जाता है, शिवलिंग का रहस्य और वैज्ञानिकता क्या है शिवलिंग की पूजा क्यों होती है और कैसे बना? शिव-शक्तिस्वरूप shiv puran katha,
व्याख्या- ईश्वर से २ प्रकार की शक्तियों का शक्तिपात होता है पहला चेतना दूसरा जड़त शक्ति, भगवान की माया शक्ति से जगत और चेतन शक्ति से चेतन देह आत्मा की रचना होती है। अपने गुण धर्मो के आधार पर ये कार्य करते है, अत: ईश्वर को कर्ता नहीं माना जाता, जिस प्रकार सूर्य का स्वभाव गर्मी देना है, बर्फ का स्वभाव शीतलता है, चीनी का स्वभाव उसका मीठापन है, चुम्बक का स्वभाव लोहे को खींचना है, चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति से समुद्र में ज्वारभाटा आता है, चन्द्रमा के कारण कुमुदनी खिलती है। ये सभी कार्य इनके स्वभाव के कारण होते हैं ये स्वयं अपनी इच्छा से करते नहीं हैं। इसी प्रकार ईश्वर की मायाशक्ति से सृष्टि में सभी क्रियाएँ हो रही है। इसी को ईश्वर अथवा महेश्वर की माया शक्ति, प्रकृति अथवा उस शक्ति का स्वभाव कहा गया है। इसलिए अगस्त्यजी कहते हैं कि सुख-दुःख का अनुभव न आत्मा ना ही देह आदि को होता है, तब प्रश्न आता है कि सुख दुख का अनुभव किसको होता है? उतर है कि उस ईश्वर की चेतन शक्ति जब देह आदि वस्तु में निवास करने के बाद उसी को अपना स्वरूप मान बैठता है यही दुख और सुख का कारण बनता है,
जब देह से आत्मा का तादात्म्य छूट जाये तब जीवात्मा को सुख दुख की अनुभूति नहीं रहता है, इसलिए हे राम आपको जो दुःख की अनुभूति हो रहा है, आपने देह के साथ अपना तादात्म्य कर लिया है। इसीलिए आप इसका त्याग कर के आत्मा में स्थित हो तब आप इस दुःख से मुक्त हो सकते हो। तुमने सीता को अपनी स्त्री माना है इसलिए तुम्हे दुःख हो रहा है । यदि किसी अन्य पुरुष की स्त्री का हरण होता तो तुम्हें दुःख नही होता । रावन तो कई कई स्त्रियों का अपहरण किया था उससे तुमको दुःख नही हुआ । किसी को अपना मान लेना ही दुःखों का कारण है । यही महेश्वर की माया है जो अज्ञान है । ज्ञान प्राप्ति पर इस माया का बंधन नही रहता ।
श्री शिव गीता अध्याय - २ श्लोक - २७ - २८
भगवान श्रीराम जी और महर्षि अगस्त्य जी के बीच संवादमहर्षि अगस्त्य उवाच शिवलिंग का रहस्य और वैज्ञानिकता क्या है शिवलिंग की पूजा क्यों होती है और कैसे बना? शिव-शक्तिस्वरूप shiv puran katha,
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।
सत्यज्ञानात्मकोऽनन्तो विभुरात्मा महेश्वरः।।२७।।
अनुवाद - उसी के अवयव रूप जीवों से सम्पूर्ण जगत व्याप्त है , वह महेश्वर सत्य स्वरूप , ज्ञान स्वरूप , अंनत और सर्वव्यापी है ।
व्याख्या-अगस्त्यजी कहते हैं कि वह महेश्वर तो सत्य स्वरूप है, चैतन्य शक्ति है, वही ज्ञान स्वरूप भी है तथा सर्वव्यापी है । वह सृष्टि की किसी क्रिया में न भाग लेता है, न उनमें कोई हस्तक्षेप ही करता है। वह तो निर्लिप्त रहकर दृष्टामात्र है। सृष्टि की सभी क्रियाएँ उसकी दोनों प्रकार की शक्तियों के स्वभाव के कारण हो रही हैं। इसलिए दुःखों का कारण आत्मा नहीं बल्कि उसका स्वभाव है।
तस्यैवांशो जीवलोके हृदये प्राणिनां स्थितः ।
विस्फुलिङ्गा यथा वह्नेर्जायन्ते काष्ठयोगतः ॥ २८॥
अनुवाद - उसी का अंश जीवलोक में सब प्राणियों के हृदय में स्थित हुआ है । जिस प्रकार काष्ठ के योग से अग्नि में स्फुल्लिंग उठते हैं उसी प्रकार जीव भी परमात्मा से उतपन्न होता है ।
व्याख्या-वह परमात्मा सत् चित् व आनन्द स्वरूप है तथा वहीं सर्वव्यापी है जो इस जीवलोक में अर्थात् समस्त जीवों के शरीर में अंशरूप से व्याप्त है। वही सबके हृदय में स्थित है। जिस प्रकार काष्ठ के संयोग से अग्नि में कई चिनगारियाँ उठती है उसी प्रकार ईश्वर की चेतनाशक्ति का जब प्रकृति से संयोग होता है तब जीव जगत की रचना होती है। अत: प्रकृति और ईश्वर की चेतनशक्ति ही समस्त जीव जगत् की रचना करती है।
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