puran tatha paryavaran
पुराणों की अति प्राचीनकता
संस्कृत वाड.मय में पुराणों का एक विशिष्ट स्थान है । इसमें वेदों के गुढ़ार्थ के स्पष्टीकरण की अपूर्व क्षमता है। अतः पुराण सर्वथा वेदानुकूल है । पुराणों का एक भी विषय वेद विरुद्ध नहीं है। और इसकी प्रमाणिकता के प्रति भी संदेह नहीं हैं ।
वेद पुराण-स्मृति न्याय दर्शन आदि में पुराणों की अति प्राचीनकता सिद्ध की गयी है :
ऋचः समानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह ।
उच्छिष्टाज्जाज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिताः ।। 2411
अर्थववेद।111/7/24
इतिहासं पुराणं पंचम वेदानां वेदम् ।।62।।
न्याय दर्शन। 14/1/62
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं व्रहमणा स्मृतम् ।
अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः ।।
मत्स्य पुराण 153/3
पुराण क्या है ? इसका अर्थ क्या - क्या है ? अनेक ग्रन्थों में
इसकी व्याख्या कैसे की गई है ।
puran tatha paryavaran
पुरा अपि नवं पुराणम् ' से यह प्रतीत होता है कि
पुराना होने पर भी जो नवीन हो वह पुराण है ।
वायु पुराण के अनुसार
यस्मात् पुरा ह्यनतीदं पुराणं तेन तत स्मृतम ।
वायु०।11/1/83
जो पूर्व में सजीव था वह पुराण कहा गया है। हमारे धर्म-शास्त्रों में पुराणों की बड़ी महिमा बखान किया गया है उन्हें साक्षात हरि का रुप बताया गया है । जिस प्रकार सम्पूर्ण जगत को आलोकित करने के लिए भगवान सूर्य के रुप में प्रकट होकर बाहरी अन्धकार को नष्ट कर देते हैं। उसी प्रकार हमारे हृदयान्धकर को दूर करने के लिए हरि पुराण विग्रह धारण करते हैं। वेदों की भॉति पुराण भी हमारे यहाँ अनादि माने गये हैं और उनका रचयिता कोई नहीं माना गया है लेकिन बाद में व्यवस्थित ढंग से संकलन कर्ता वेद व्यास को माना जाता है । इराकी प्राचीनता के विषय में इसरो ही स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी भी पुराणों का स्मरण करते हैं ।
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रहमणा स्मृत् । पुराण विघा महर्षियों का सर्वस्व है। 20वीं तथा 21वीं शताब्दी जिसे विज्ञान का मध्यान्ह काल माना जाता है, किन्तु जितने भी ज्ञान विज्ञान आज तक उच्च भूमि पर पहुंच चुके हैं, जितने अभी अधूरे तथा अभी गर्भ में ही हैं। उनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जिसके सम्बन्ध में पुराणों में कोई उल्लेख न मिलता हो । हजारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों को इन सब बातों का ज्ञान था , जो आज के ज्ञान-विज्ञान में है अथवा नहीं है। राजनीति , धर्म-नीति, इतिहास, समाज-विज्ञान,
ग्रह-नक्षत्र ,विज्ञान, आयुर्वेद, भुगोल, ज्योतिष आदि समस्त विधाओं का प्रतिपादन पुराणों में हुआ है । पहले हम समझते थे कि पुराणों में कथायें ही होगी परन्तु जब हमने इसका अध्ययन किया तब तो हम चकित रह गये । संसार का ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं है जो पुराणों में न हो । वेदों का जहाँ मुख्य प्रतिपाघ विषय यज्ञ है वहीं पुराणों का मुख्य विषय लोकवृत (चरित्र) है । लोकवृत्तीय समाज में प्रमुख स्थान मानव का होता है । समस्त जीवों का मूलाधार जल, वायु, सूर्य तथा पृथ्वी है। अतः इसी लिए पुराणों में इसके संरक्षण की बात कही गयी है । वैसे पुराणों के समय में पर्यावरण जैसी कोई समस्या की बात नहीं कही गयी है।
पुराणों के समय में पर्यावरण जैसी कोई समस्या नहीं थी फिर भी पुराणों में इसके संरक्षण को धर्म बताया गया है। अतः इससे यह प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में हमारे ऋषि पर्यावरण के संरक्षण तथा पर्याप्त संतुलन बनाए रखने की बात पर बल देते थे। यह तथ्य आज के परिवेश को देखते हुए भी अति प्रासांगिक है क्योंकि वर्तमान में
मानव विज्ञान तथा
उसके द्वारा बनाए गए यंत्रों पर आधारित होता जा रहा है जिससे न केवल पर्यावरण असंतुलित हो रहा है अपितु प्रदूषित भी होता जा रहा है । यहाँ पर यह यक्ष प्रश्न भी हमारे सामने आता है कि वर्तमान यान्त्रिक जीवन शैली को अपना कर के आज का मानव किस दिशा में प्रगति कर रहा है ? क्या इस प्रकार की असंतुलित सोच से हम संपूर्ण मानव जाति का ही अस्तित्व तो खतरे में नहीं डाल रहे है ? इन प्रश्नों से उपजी शंकाओं का समाधान केवल पुराणों में वर्णित तथा समाव ऋषिओं द्वारा दिए गए प्राकृतिक नियमों पर चल कर ही प्राप्त हो सकता है । अतएव , समस्त मानव जाति को पुराणों में दिए गए सुविचरित आख्यानों पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए तथा अपनी जीवन शैली को पर्यावरण के अनुकूल बनाना चाहिए
पर्यावरण क्या है ?
सरकत 4 वृ धातु का अर्थ है आवृत करना, जो भूमण्डल को परितः आवृत करे वहीं पर्यावरण है । पर्यावरण की परिधि मे समय सृष्टि गृहीत है । वैदिक वृत ही अवेस्ता में वॅरेथ (warrenth) अंग्रेजी में वीदर (Weather) हो गया है। पर्यावरण शब्द · परि ' और आवरण से मिलकर बना है । इसके अन्तर्गत हमारे चारो ओर का विस्तृत वातावरण आता है जिसमें सभी जीवित एवं निर्जीव वस्तुएँ और पदार्थ सम्पूर्ण जड़ और चेतन जगत सम्मिलित है । पृथ्वी के चारों ओर प्रकृति तथा मानव निर्मित समस्त दृश्य या अदृश्य पदार्थ पर्यावरण के अंग हैं। हमारे चारों ओर का वातावरण और उसमें पाये जाने वाले प्राकृतिक
अप्राकृतिक जड तथा चेतन जगत सभी का मिला-जुला नाम पर्यावरण है और उसके पारस्परिक तालमेल तथा अन्योन्य किया व पारस्परिक प्रभाव को पर्यावरण सन्तुलन कहते हैं। पर्यावरण अनेक कारकों का सम्मिश्रण है . अर्थात तापकम , प्रकाश , जल , मिट्टी इत्यादि । कोई वाह्य वल पदार्थ या स्थिति जो किसी भी प्रकार किसी प्राणी के जीवन को पभावित करती है उसे पर्यावरण का कारक माना जाता है हमारा पर्यावरण , हमारे चारो ओर का समय वातावरण है जिसमें जल,वायु, पेड़-पौधे , मिट्टी और प्रकृति के अन्य तत्व तथा जीव-जन्तु आदि शामिल है । हमारे चारों ओर का
वातावरण एवं परिवेश जिसमें हम आप और अन्य जीवधारी रहते हैं , सब मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं। पर्यावरण का तात्पर्य उस समूची भौतिक जैविक व्यवस्था से भी है जिसमें समस्त जीवधारी रहते हैं , स्वभाविक विकास करते हैं तथा फलते-फूलते हैं । इस तरह वो अपनी स्वभाविक प्रवृत्तियों का विकास करते हैं । ऐसा पुराणों में दिए गाए उद्धरणों से भी स्पष्ट होता है।
किसी भी जीव के पर्यावरण में वे सभी भौतिक व जैविक घटक सम्मिलित होते हैं । पृथ्वी से करोड़ों मील दूर होते हुए भी जीवो के पर्यावरण के लिए सूर्य का प्रकाश उतना ही महत्वपूर्ण है जितना जल, वायु तथा मिट्टी आदि । पर्यावरण के सभी घटक और कारक एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । जैसे
सूर्य-उर्जा से जल व वायु गर्म होती है जिससे वाष्प बनती है और वायु उपर उठती है, वायु के बहने के साथ वाष्प बादलों के रुप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाती है । बादलों द्वारा सूर्य की उर्जा को पृथ्वी तक
पहुचने में बाधा उत्पन्न होती है । जिससे जल बरसता है फिर पेड़-पौधे पनपते हैं । अतः सपष्ट है कि पर्यावरण के किसी भी कारक के बिना अन्य कारक प्रभावित नहीं हो सकते हैं
वस्तुतः पर्यावरण के कारक आपस में इस तरह गुंथे होते हैं जैसे जाल का ताना बाना । पर्यावरण एक व्यापक शब्द है , सीधे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पर्यावरण है तो हम हैं , इसके बिना किसी भी प्राणी अथवा वनस्पति का कोई भी अस्तित्व नहीं है । जल, थल और वायुमण्टल किसी भी स्थान के पर्यावरण के मुख्य अंग होते है । इसके साथ मानव की जीवन कियाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले सभी भौतिक तत्वों तथा अन्य जीवों का भी पर्यावरण के निर्माण में यापर महत्वपूर्ण योगदान होता है । पर्यावरण मे समय के अनुसार परिवर्तन होना स्वभाविक ही है । जीवों तथा वनस्पतियों के विकास का सीधा सम्बन्ध पर्यावरण से है । इस लिए एक निश्चित सीमा तक प्राकृतिक परिवर्तनो को यथा वारिश , अकाल , हांडावात , बाढ़ तथा भूकंप आदि का सामना करने का तथा उससे बचाव का उपाय इत्यादि करते हुए जीवों को प्रकृति के ही अनकूल ढलने के लिए सामर्थ्य स्वय पर्यावरण ही प्रदान करता है । ऐसा वैज्ञानिकों द्वारा सिद्ध किया जा चुका है । जैसे कि चार्ल्स डारविन का प्राकृतिक चयन का सिद्धांत जिसके अनुसार प्रत्येक जीव की अग्रिम तथा विकसित प्रजाति के रुप में जन्म का कारण प्राकृतिक घटनागो तथा पारिस्थिकी से उसका संघर्ष है ।
अतएव इस धरा पर विभिन्न प्रकार के जीव जन्तुओ तथा वनस्पतियों में
पाई जाने वाली विभिन्नताओं का अप्रत्यक्ष कारण पर्यावरण ही पृथ्वी का धरातल और उसकी सारी प्राकृतिक दशायें प्राकृतिक सशाधन . भूमि , जल पर्वत - मंदान . पाधे सम्पूर्ण प्राणी जगत , जो पृथ्वी पर विधमान होकर मानव को प्रभावित करती हैं । वे पर्यावरण के अन्तर्गत आती हैं । यधपि हमारे देश की प्राचीन संस्कृति पर्यावरण के संरक्षण के अनुरुप ही रही है । प्रत्येक जीव की पर्यावरण के कारकों के प्रति एक निश्चित सहनशीलता होती है सहनशीलता की सीमा से अधिकता के कारण मानवीय जीवन कियाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । ऐसा पौराणिक धर्म ग्रन्थों में वर्णित है
पर्यावरण के घटक पारस्परिक ताल-मेल नहीं रखते तो पर्यावरण में असतुलन की स्थिति व्याप्त हो जाती है। इसी लिए पारिरिशकी सन्तुलन को बनाये रखने के लिए हमारे प्राचीन मनीषीगण पर्यावरण के उपादनों पर दैवीय रुपों का प्रत्यारोपण किया है । इसी लिए पर्यावरण के सहायक तत्वों के सम्वर्धन के प्रति ऋषि गण काफी उत्साहित दिखाई देते है तथा पर्यावरण के विकास के तत्वों को धर्म तथा धार्मिक कियाओ से जोड़कर आम जनता को इसकी (पर्यावरण) महत्ता का दर्शन कराया ।
जिससे आम जनता भी पर्यावरण के विकास में अपना योगदान दे सके । पौराणिक युगीन साहित्यकार शूद्रक ने अपने प्रसिद्ध सस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम' में भी तरह तरह को पर्यावरण पर आधारित उत्सवों जैसे वसन्तोत्सव , शरदोत्सव आदि का हर्षोल्लास से तत्कालीन नगरो में मनाए जाने का जिक्र किया है जिसमें आम जनता भी बढ़ चढ़ कर भाग लेती थी । इससे यह सिद्ध होता है कि पौराणिक समाज विशेष रुप से नगरीय समाज पर्यावरण के संतुलन के प्रति जागरुक था। पौराणिक कालीन संस्कृत साहित्य के महाकवि कालिदास के लगभग समस्त नाटकों में प्राकृतिक सौन्दर्य का विशद तथा मनोहारी वर्णन है जिससे यह पता चला है कि जीवन के प्रत्येक स्तर चाहे वह साहित्य सृजन हो या फिर धार्मिक कियाओं का संपादन हो पौराणिक समाज पर्यावरण के समस्त घटकों में उचित संतुलन बनाए रखने के प्रति सचेष्ट था।
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