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अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2 ! Akshyupanishad Khand 1 and 2

      Akshyupanishad

॥अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2॥


khand 1-2

यह उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध है। इसमें महर्षि सांकृति एवं आदित्य के बीच प्रश्रोत्तर के माध्यम से चाक्षुष्मती विद्या एवं योगविद्या पर प्रकाश डाला गया है। यह उपनिषद् दो खण्डों में प्रविभक्त है।

अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2




प्रथम खण्ड में चाक्षुष्मती विद्या का विवेचन है। द्वितीय खण्ड में सर्वप्रथम ब्रह्मविद्या का स्वरूप वर्णित है, तदुपरान्त ब्रह्मविद्या प्राप्ति के लिए योग की विविध भूमिकाओं का क्रमशः विवेचन किया गया है।


अक्ष्युपनिषद्-खंड-1-2

 

अक्ष्युपनिषद्-खंड-1-2



योग की कुल सात भूमिकाएँ हैं, जिनके माध्यम से साधक योग विद्या के क्षेत्र में क्रमिक उन्नति करता हुआ आगे बढ़ता है। सातवीं भूमिका में पहुँचने पर वह ब्रह्म साक्षात्कार की स्थिति में पहुँच जाता है। अन्त में ओंकार ब्रह्म के विषय में वह विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जिसको जानकर और उस विधि से साधना करके व्यक्ति ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है। अपने को परम आनन्दमय-प्रज्ञानघन आनन्द की स्थिति में पाता हुआ- मैं ब्रह्म हूँ- ऐसी अनुभूति करने लगता है। यही उपनिषद का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है।

       ॥ शान्तिपाठः॥

ॐ 

हे परमात्मन् ! आप हम दोनों (गुरु-शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों का साथ-साथ पालन करें। हम दोनों साथ-साथ शक्ति अर्जित करें। हम दोनों की पढ़ी हुई विद्या तेजस्वी (प्रखर) हो। हमारे त्रिविध दुखो का नाश हो और अनंत शांति की प्राप्ति हो।

    अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2



॥प्रथमः खण्डः॥



अथ ह सांकृतिर्भगवानादित्यलोकं जगाम।तमादित्यं नत्वा चाक्षुष्मतीविद्यया तमस्तुवत्॥ ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यायाक्षितेजसे नमः। ॐ खेचराय नमः। ॐ महासेनाय नमः। ॐ तमसे नमः। ॐ रजसे नमः । ॐ सत्त्वाय नमः । ॐ असतो मा सद्गमय।तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्माऽमृतं गमय। हंसो भगवाञ्छुचिरूप: प्रतिरूपः। विश्वरूपं घृणिनं जातवेदसं हिरण्मयं ज्योतीरूपं तपन्तम्। सहस्त्ररश्मिः शतधा वर्तमानः पुरुषः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः। ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यायादित्यायाक्षितेजसेऽहोऽवाहिनि वाहिनि स्वाहेति । एवं चाक्षुष्मतीविद्यया स्तुतः श्रीसूर्यनारायण: सुप्रीतोऽब्रवीच्चाक्षुष्मतीविद्यां ब्राह्मणो यो नित्यमधीते न तस्याक्षिरोगो भवति। न तस्य कुलेऽन्धो भवति। अष्टौ ब्राह्मणान्ग्राहयित्वाथ विद्यासिद्धिर्भवति। य एवं वेद स महान्भवति ॥ १॥


एक समय की कथा है कि भगवान सांकृति आदित्य लोक गये। वहाँ पहुंचकर उन्होंने भगवान् सूर्य को नमस्कार कर चाशुष्मती विद्या द्वारा उनकी अर्चना की-नत्रेेन्द्रिय के प्रकाशक भगवान् श्रीसूर्य को नमस्कार है। आकाश में विचरणशील सूर्यदेव को नमस्कार है। हजारों किरणों की विशाल सेना रखने वाले महासेन को नमस्कार है। अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2


तमोगुण रूप भगवान सूर्य को प्रणाम है। रजोगुण रूप भगवान् सूर्य को प्रणाम है। सत्वगुणरूप सूर्यनारायण को प्रणाम है। हे सुर्यदेव! हमें असत् से सत्पथ की ओर ले चलें। हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें। हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलें। भगवान् भास्कर पवित्ररूप और प्रतिरूप (प्रतिबिम्ब प्रकटकर्ता) हैं। अखिल विश्व के रूपों के धारणकर्ता, किरण समूहाँ से सुशोभित, जातवेदा (सर्वज्ञता), सोने के समान प्रकाशमान, ज्योतिःस्वरूप तथा तापसम्पन्न भगवान भास्कर को हम स्मरण करते हैं।


ये हज़ारों रश्मिसमूह वाले, सैकड़ों रूपों में विद्यमान सूर्यदेव सभी प्रणियों के समक्ष प्रकट हो रहे हैं। हमारे चक्षुओं के प्रकाशरूप अदितिपुत्र भगवान् सूर्य को प्रणाम है। दिन के वाहक, विश्व के वहनकर्ता सूर्यदेव के लिए हमारा सर्वस्व समर्पित है। इस चक्षुष्मती विद्या से अर्चना किये जाने पर भगवान सूर्यदेव अति हर्षित हुए और कहने लगे  जिस पण्डित/ब्रह्मण द्वारा चाक्षुष्मती का पाठ नित्य दिन किया जाता है, उसे नेत्ररोग नहीं होते और न उसके वंश में कोई अंधत्व को प्राप्त करता है। आठ ब्राह्मणों को इस विद्या का ज्ञान करा देने पर इस विद्या की सिद्धि होती है। इस प्रकार का ज्ञाता महानता को प्राप्त करता है ॥ १॥

अक्ष्युपनिषद् खंड 1-2


[सूर्यदेव को प्रतिरूप और विश्वरूप कहा गया है। विज्ञान के अनुसार हम जो कुछ भी देखते हैं, उसका रूप उसके द्वारा किए जा रहे प्रकाश के परावर्तन (रिफलैक्शन) के कारण ही है। इसलिए उन्हें प्रतिरूप कहा जाता है। दिन में सूर्य के प्रकाश में हम जो भी रूप देखते हैं, वे सब प्रकारान्तर से सूर्य के प्रकाश के ही विविध रूप हैं। इसलिए सूर्य को विश्वरूप कहा गया है।




















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