Valmiki Ramayan Kalik Katha
बाल्मीकि रामायण महात्म्य के चतुर्थ अध्याय
में कलिक नामक व्याध और को मुनि उत्तंक ने उपदेश दिया है । जब कलिक उनके सीने को एक पैर से दबाकर एक हाथ से गर्दन पकर और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जान से मारने के लिए तैयार था उस समय वे कलिक को कहते हैं -
Valmiki Ramayan Kalik Katha
बाल्मीकि रामायण महात्म्य के चतुर्थ अध्याय
ओ भले मानुष ! तुम व्यर्थ ही मुझे मारना चाहते हो । मैं तो सर्वथा निरपराध हूं । ऐ लुब्धक ! बताओ तो सही , मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है ? संसार में लोग अपराधी की ही प्रयत्न पूर्वक हिंसा करते हैं । सौम्य ! सज्जन निरपराध की व्यर्थ हिंसा नहीं करते हैं । शान्त चित्त साधु पुरुष अपने विरोधी तथा मूर्ख मनुष्यों में भी सद्गुणों की स्थिति देख कर उनके साथ विरोध नहीं रखते हैं । जो मनुष्य बारम्बार दूसरों की गाली सुनकर भी क्षमाशील बना रहता है , वह उत्तम कहलाता है । उस भगवान विष्णु का अत्यंत प्रिय जन बताया गया है ।
दूसरों के हित साधन में लगे रहने वाले साधुजन किसी के द्वारा अपने विनाश का समय उपस्थित होने पर भी उसके साथ वैर नहीं करते । चंदन का वृक्ष अपने को काटने पर भी कुठार के धार को सुवासित ही करता है । अहो ! विधाता बड़ा बलवान है । वह लोगों को नाना प्रकार से कष्ट देता रहता है । जो सब प्रकार के संग से रहित है , उसे भी दुरात्मा मनुष्य सताया करते हैं । अहो ! दुष्ट जन इस संसार में बहुत से जीवों को बिना किसी अपराध के ही पीरा देते हैं । मल्लाह मछलियों के , चुगलखोर सज्जनों के और व्याध मृगों के इस जगत में अकारण वैरी होते हैं ।
अहो! माया बड़ी प्रबल है । यह संपूर्ण जगत को मोह में डाल देती है तथा स्त्री , पुत्र और मित्र आदि के द्वारा सबको सब प्रकार के दुखों से संयुक्त कर देती है । मनुष्य पराए धन का अपहरण करके जो अपनी स्त्री आदि का पोषण करता है , वह किस काम का ; क्योंकि अंत में उन सबको छोड़ कर वह अकेला ही परलोक की राह लेता है । मेरी माता , मेरे पिता , मेरी पत्नी , मेरे पुत्र तथा मेरा यह घरबार ' - इस प्रकार ममता व्यर्थ ही प्राणियों को कष्ट देती रहती है । मनुष्य जबतक कमाकर धन देता है , तभी तक लोग उसके भाई बन्धु बने रहते हैं और उसके कमाए हुए धन को सारे बन्धु - बांधव सदा भोगते रहते हैं ; किन्तु मूर्ख मनुष्य अपने किए हुए पाप के फल रूप दुःख को अकेला ही भोगता है । Valmiki Ramayan Kalik Katha
बाल्मीकि रामायण महात्म्य के चतुर्थ अध्याय
पाठक गण कितना सुंदर यह उपदेश है । अंत में तो महामुनि उत्तंक जी ने यह कहकर कमाल कर दिया है कि मनुष्य अपने किए हुए पाप के दुख रूप फल को अकेला ही भोगता है । ऐसे उपदेश से दुष्टों में सुधार संभव है निश्चित नहीं । परन्तु पाप का फल किसी भी परिस्थिति में माफ नहीं होता । पाप का फल दुःख हमें भोगना ही पड़ता है समय भलेही जितना लगे। इस जन्म वा अन्य जन्मों में भोगना पड़ेगा ही।
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