पुराण सम्बद्ध Purana Sambandh mai manu, manusmriti, purana kya hai, purana in hindi
आधुनिक युग में पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों द्वारा पुराणों पर पर्याप्त कार्य किया गया है। इससे शोध की आधुनिक पद्धति के माध्यम से पुराणों का सुसम्पादित प्रकाशन होने के साथ-साथ समालोचनात्मक भूमिकाओं तथा स्वतन्त्र ग्रन्थों से अनेक विषयों पर सुन्दर विवेचन हुआ है।
श्री करपात्री जी जैसे विपश्चित्-शिरोमणियों के नेतृत्व में पौराणिक विद्वानों ने भी अनेक ग्रन्थ लिखे हैं तथा शास्त्रार्थ भी किये हैं। खण्डन-मण्डन की दृष्टि और उद्देश्य की प्रधानता से रचित इन ग्रन्थों से पर्याप्त सामग्री तो मिली है किन्तु पुराण के यथार्थ स्वरूप को ये दोनों ही पक्ष यथावत् रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। इन दिनों उपाधिलक्ष्यक शोध ग्रन्थ भी प्रचुर मात्रा में लिखे जा रहे हैं। यद्यपि इनसे साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र में विपुल संख्यक ग्रन्थराशि प्रकाश में आ रही है यद्यपि पुराण के स्वरूप की महत्ता इन सभी प्रकार के कार्यों से व्यक्त होती है किन्तु स्वरूप निरूपण अब भी प्रतीक्षा की घड़ियाँ गिन रहा है।
पुराण के सभी पक्षों को लेकर समाधानपरक निर्णायक विचार दृष्टि में न आने से इस दिशा में यह प्रवृत्ति है। इस पृष्ठभूमि पर आधारित यह विनम्र प्रयास सामान्य एवं सम्मान्य पाठकों की सेवा में समर्पित है। वेद, वैदिक तथा वेदेतर वाङमय के परिशीलन से पुराण का जो स्वरूप प्रत्यक्ष होता है वह निश्चय ही आज के जाने-माने स्वरूप से सर्वथा विलक्षण है।
दो अतिवादी विचारधाराओं Do Vibhinn Vichardhara, Purana Sambandh, manu, manusmriti, purana kya hai, purana in hindi से मुक्त यह स्वरूप पुराणाध्ययन की दिशा में जिज्ञासुओं की गति में साथी बने तथा हितावह हो जिससे ज्ञान का यह प्रस्थान प्रतिष्ठित हो, यह कामना इस निबन्ध के मूल में है।
पुराणेतर तथा पुराण वाङ्मय में परस्पर विरोधी वचन मिलते हैं। एक ओर पुराण के स्वाध्याय को अनिवार्य बताया जाता है तो दूसरी ओर उसका अध्ययन पातक अत एव हेय बताया जाता है। पुराण को वेद से भी श्रेष्ठ बताने वाले वचन भी कम नहीं है तो पुराणों की वेदानुवर्तिता वेद सम्मितता बताकर उन वचनों की निरर्थकता घोषित करने वाले वचन भी उसी परिमाण में हैं। पुराण वेदव्यास कृष्णद्वैपायन की उपज्ञा हैं तथा उन्हीं के प्रवचन सब पुराण हैं। दूसरी ओर अनेक महर्षियों तथा ब्रह्मा की रचना भी ये पुराण हैं ऐसे ही शतशः वचन इन्हीं पुराणों में हैं।
अध्येता अपनी श्रद्धा तथा रुचि के अनुकूल पक्ष के वचनों को चुन लेता है, विरोधी वचनों के प्रति मौन रहता है। शास्त्रानुशीलन की मर्यादा दोनों पक्षों पर विचार तथा समुचित समाधान की अपेक्षा रखती है। भगवान् स्वायम्भुव मनु कहते हैं :
स्वाध्यायं श्रावयेत् पित्र्ये धर्मशास्त्राणि चैव हि । आख्यानानीतिहासाँश्च पुराणानि खिलानि च ॥३/२३२
पितृकार्य में स्वाध्याय, धर्मशास्त्र, आख्यान, इतिहास, पुराण और खिल सुनाने चाहिये। इसी भाँति महर्षि याज्ञवल्क्य का कथन है :
ved ke bare mein,
वेदाथर्वपुराणानि सेतिहासानि शक्तितः। जपयज्ञप्रसिद्ध्यर्थं विद्यां चाध्यात्मिकी जपेत्।। १/१०१
ऋगादि त्रयी, अथर्ववेद, पुराण, इतिहास तथा आध्यात्मिक विद्या का जप अर्थात् स्वाध्याय-यज्ञ की उत्कृष्ट सिद्धि के लिए शक्ति के अनुसार सतत अनुशीलन- करें। इसी भाँति भूतभावन, महायोगी दत्तात्रेय अपने शिष्य मुनिवर सांकृति के प्रश्न के उत्तर में अष्टांग योग का उपदेश देते हुए 'जाबालदर्शनोपनिषत्' में कहते हैं :
कल्पसूत्रे तथा वेदे धर्मशास्त्रे पुराणके। इतिहासे च वृत्तिर्या स जपः प्रोच्यते मया ।।२/१२
कल्पसूत्र, वेद, धर्मशास्त्र, पुराण तथा इतिहास में विद्यमान जो मानसीवृत्ति है, उसे मैं जप कहता हूँ। अब इन वचनों के बाधक विपरीत वचन भी द्रष्टव्य हैं। भगवान् मनु का ही अनुशासन है : ॥२/१६८
जो द्विज वेद न पढ़कर अन्य शास्त्रों में श्रम करता है, वह जीते जी अपने वंश सहित शीघ्र ही शूद्रभाव को प्राप्त हो जाता है। ऐसा ही कथन भगवान् याज्ञवल्क्य का है :
यज्ञानां तपसां चैव शुभानां चैव कर्मणाम्। वेद एव द्विजातीनां निःश्रेयसकरः परः ।।
आचारा. ४० विविध यज्ञों में नाना प्रकार के तपों में तथा सभी शुभ कर्मों में केवल वेदस्वाध्याय ही द्विजातियों का सर्वोत्कृष्ट निःश्रेयस कारक है। अत्रिसंहिता में शास्त्रादि के अभ्यास को उत्तरोत्तर न्यून बताया गया है : पुराण सम्बद्ध Purana Sambandh, manu, manusmriti, purana kya hai, purana in hindi
वेदैविहीनाश्च पठन्ति शास्त्रं शास्त्रेण हीनाश्च पुराणपाठाः। पुराणहीनाः कृषिणो भवन्ति भ्रष्टास्ततो भागवता भवन्ति ।।३८२
वेदों से विहीन लोग शास्त्र पढ़ते हैं, शास्त्र से हीन पराण पाठक होते हैं। पुराण में भी जिनकी गति नहीं है, वे कृषक होते हैं, कृषकत्व से भी गिरे लोग भागवत होते हैं। यहाँ कृषक शारीरिक श्रम का उपलक्षण है जिसमें छोटा-मोटा व्यापार, नौकरी-चाकरी आदि समाविष्ट हैं। भागवत का सामान्य अर्थ है तत्त्वज्ञान शून्य, नाम मात्र की भक्ति जो निष्प्राण नाम जप तक सीमित है और निकम्मेपन की ओर ढकेलती है उसका अनुयायी भागवत है।
सामान्य प्रश्न उठना चाहिए कि साक्षात्कृतधर्मा मनु और याज्ञवल्क्य जैसे आप्त पुरुषों ने वदतो व्याघात रूप में वचन क्यों कहे। क्या हमें विचार नहीं करना चाहिये कि ये वस्तुतः वदतोव्याघात हैं भी अथवा नहीं। पक्ष-विपक्ष में हेतु पुरस्सर निर्णायक विचार कर इनकी एकवाक्यता अथवा निस्सारता प्रमाणित करना हमारा उत्तरदायित्व नहीं है? स्वयं पुराण भी अपने विषय में ऐसे ही परस्पर विरोधी भाव प्रकट करते हैं। कूर्मपुराण के ऐसे ही दो पद्य यहाँ उद्धृत किये जा रहे हैं :
अष्टादश पुराणानि व्यासाद्यैः कथितानि तु। नियोगाद् ब्रह्मणो राजस्तेषु धर्मः प्रतिष्ठितः॥१२/२६८
भवगती उमा पर्वतराज हिमालय को कह रही है कि राजन्! ब्रह्मा के नियोग से व्यास आदि ने १८ पुराण कहे हैं, उनमें धर्म प्रतिष्ठित हैं। उन्हीं के शिष्यों ने अन्यान्य उप पुराण भा प्रत्येक युग में कहे हैं। इन सब का कर्ता (रचयिता) धर्मशास्त्र का ज्ञाता रहा है।
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