Ad Code

Ticker

6/recent/ticker-posts

ved ke bare mein, Ved Ke Do Rup Shabdh rup aur Pratipadhy rup - भारतीय संस्कृति एवं संस्कृत वाङ्मय में श्रद्धास्पद विद्वानों का प्रायशः

 वेद के दा रूप ह-शब्द रूप तथा प्रतिपाद्य रूप। Ved Ke Do Rup Shabdh rup aur Pratipadhy rup, ved ke bare mein

शब्द रूप को वाङमय वेद कहा पुराण का वेदत्व जा सका है तथा प्रतिपाद्य रूप को तत्त्ववेद।" भारतीय संस्कृति एवं संस्कृत वाङ्मय में श्रद्धास्पद विद्वानों का प्रायशः यही मत है कि ज्ञान रूप वेद अपौरुषेय है और स्थूल शब्दरूप वेद पौरुषेय जो बाद में लिपिबद्ध हुआ। वेद अपौरुषेय उत वा पौरुषेय चाहे जो भी हो परन्तु वेद आज सर्वजन हेतु सर्वत्र सुलभ हैं। 

ved-ke-bare-mein-Ved-Ke-Do-Rup-Shabdh-rup-aur-Pratipadhy-rup


वेदों की संख्या vedo ki shankhya

वेदों का निर्माण कब कैसे और किनके द्वारा हुआ यह अलग प्रश्न है परन्तु वर्तमान में वैदिक वाङ्मय विविध रूप में उपलब्ध हो रहा है, इस सन्दर्भ में एक विचार उपस्थित होता है कि वास्तविकरूप में वेदों की संख्या कितनी है। मैं यहाँ वेदों की प्राप्त या अप्राप्त शाखाओं की बात न कर केवल वेदों की संख्या के बारे में चर्चा करना चाह रहा हूँ। 

ऋतम्भरा प्रज्ञावान् ऋषियों ने जो कुछ ज्ञान प्राप्त किया वह अक्षरशः आज भी अक्षुण्ण रूप से वेदों के रूप मे सुरक्षित है। यह वेद प्रारम्भ में एक युगपत् सत्ता के रूप में तथा बाद में विभक्त रूप में प्राप्त हुआ? कतिपय विद्वानों की दृष्टि में इस विभाजन का कर्ता ब्रह्मा है तथा कुछ लोग भगवान् कृष्णद्वैपायन वेदव्यास को स्वीकार करते हैं। वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग-द्वापर में भगवान् वेदव्यास ने सरस्वती के तट पर अपनी अलौकिक प्रतिभा से एक वेद को चार भागों में विभक्त किया

-भागवत १/४/१९-२० 


पुराण का वेदत्व Purana ka Vedatav.

इस प्रसंग में वेदत्रयी का भी उल्लेख मिलता है जिसमें ऋग्, यजुः, साम की गणना की है तथा बाद में अथर्ववेद के सम्मिलित होने पर वेद चतुष्टयी कही जाने लगी। इस सन्दर्भ में पं. अनन्त जी शर्मा ने विपुलमात्रा में प्रमाण प्रस्तत किये हैं। यह तो वेद मन्त्रों की रचना के आधार पर लिखे साहित्य के विभाजन का क्रम है। परन्तु अर्थ की दृष्टि से वेदों की संख्या निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो रही है जिसे 'अनन्ता वेदाः' के रूप में व्यक्त किया गया है। प्रकृत ग्रन्थ का प्रतिपाद्य ही वेदों का पुराणत्व है। 

वेद या मन्त्र संहिताओं में ज्ञान का विपुल भण्डार है यह ध्रुव सत्य है परन्तु परवर्ती मनीषियों द्वारा रचित ज्ञान विज्ञान के साहित्य को भी वेद नाम से अभिहित किया गया है भले ही वह वैदिक भाषा शैली में नहीं लिखा गया, इनमें आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद के की गणना की जा सकती है जिन्हें बाद में उपवेद की संज्ञा दी गई एतदनुरूप ही इतिहास-पुराण के रूप में परिगणित वेद व्यास का महाभारत 

और भरतमुनि का नाट्यशास्त्र तो पञ्चम वेद के रूप में ही स्वीकार ही किया गया है। वेदों की संख्या के सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद् में सनत्कुमार  के प्रति नारदक की यह उक्ति प्रमाण है - 

ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदम्। वेद ज्ञान इन हिंदी Ved Ke Do Rup Shabdh rup aur Pratipadhy rup, ved ke bare mein

अथर्वाणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदम्॥ इस प्रकार वेद चतुष्टयी के बाद भारत में ज्ञान विज्ञान निधि को 'वेद' शब्द से कहने की परम्परा सी बन गई है और पञ्चम वेद के रूप में इतिहास-पुराण, महाभारत, नाट्यशास्त्र, ज्योतिष, तथा स्थापत्य शास्त्र को जाना जाने लगा। इस प्रकार मन्त्र संहिताओं के अतिरिक्त वेदों की 

पुराण दर्शन समग्र दृष्टि, प्रथम भाग - पुराण का वेदत्व संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही और यह संख्या दस तक पहुँच गई इसके प्रमाण ब्राह्मण ग्रन्थों में पर्याप्त रूप से मिलते हैं। अश्वमेध के प्रसंग में शतपथ ब्राह्मण-तेरहवें काण्ड के चतुर्थ अध्याय के तृतीय ब्राह्मण में एक निश्चित क्रम में दस वेदों की गणना की गई है इस ब्राह्मण में क्रमशः १. ऋग्वेद, २. यजुर्वेद, ३. अथर्ववेद, ४. अङ्गिरसवेद विद्या ५. सर्पवेद, ६. देवजनविद्या वेद, ७. मायावेद, ८. इतिहास वेद, ९. पुराण वेद और १०. सामवेद की गणना प्रतिपादित की गई है। इस तरह भारत में विद्या को प्रायः वेद कहने की परम्परा रही हैं। आगे चलकर यही परम्परा संख्यात्मक दृष्टिकोण से या फिर ज्ञान की अनन्तता के कारण तैत्तिरीय ब्राह्मण (३/१०/११) में 'अनन्ता वै वेदाः' के रूप में स्वीकार कर ली गई। 

प्राचीन भारतीय संस्कृत वाङ्मय में वर्णित इतिहास और पुराण की संयुति को पृथक् कर लेना अतीव दुष्कर सा प्रतीत होता है क्योंकि यत्र तत्र सर्वत्र ही ग्रन्थों में इतिहास और पुराण वर्णन को नीरक्षीरवत् सम्मिलित करके वर्णित किया गया है। अतः पुराण साहित्य एवं महाभारत दोनों को ही पञ्चम वेद के रूप में परिगणित किया गया है। 

इतिहासः पुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते॥  वेद ज्ञान इन हिंदी Ved Ke Do Rup Shabdh rup aur Pratipadhy rup, ved ke bare mein

__-भागवत १/४/२० संस्कृत वाङ्मय में यत्र तत्र उद्धृत पुराणों के 'पञ्चम वेद' की इसी सूत्ररूप अवधारणा को आधार मानकर सम्पूर्ण पुराण वाङ्मय को महर्षि अगस्त्यवत् चुलुकपान करने वाले पं. अनन्त शर्मा जी के अन्तर्मन में एक विचार-सागर तरंगित हुआ और उन्होंने पुराणों का वेदत्व प्रतिपादन करने के उद्देश्य से ग्रन्थ की रचना की। इसके लिए आपने वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् महाभारत स्मृतिग्रन्थ आदि शतशः ग्रन्थों से उद्धरण देते हुए पुराणों का वेदत्व सिद्ध किया है जिसे शायद ही कोई विद्वान् नकार पाये क्योंकि आप्तवक्ताओं के वचन के आधार पर प्रस्तुत विचार सरणि को शिरोधार्य करना सद् विवेकी पुरुषों के लिए शोभादायक रहता है। 

आचार्य मम्मट के अनुसार सुहृत् शैली से उपदेश प्रदान करने वाले पुराणों का औदार्य तो संस्कृत जगत् पूर्व में ही स्वीकार कर चुका है। आशा है 'पुराण दर्शन समग्र दृष्टि' के प्रथम भाग के रूप में 'पुराण का वेदत्व' संस्कृतज्ञों, जिज्ञासुओं एव संस्कृतानुरागियों में एक नवीन चेतना का संचार करेगा। समस्त विद्याओं तथा अखिल धर्म की प्रतिष्ठा वाले १४ स्थानों की गणना भगवान् याज्ञवल्क्य ने निम्नलिखित रूप से की है,

पुराण स्मृति, न्याय शास्त्र, मीमांसा शास्त्र धर्मशास्त्र  मिश्रितांग । 

वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश।। 

Vedo ki Utpati

याज्ञ. स्मृ. उपोद्घात. ३ पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, छः वेदाङ्ग तथा ४ वेद, ये १४ शास्त्र विद्याओं तथा धर्म के स्थान हैं। गणना का आरम्भ ही पुराण से होने से विद्या तथा धर्म के स्रोत के रूप में पुराण की महत्ता स्पष्टरूप में इस कथन से विदित होती है।  श्रुति, स्मृति धर्म का ज्ञान कराते हैं। इस ज्ञान में सहायक हैं। न्याय और मीमांसा से युक्तायुक्तत्व के बोध द्वारा ग्राह्य और हेय की स्पष्ट प्रतिपत्ति होती है। इसके पश्चात् धर्म के अनुवर्तन के लिए सदाचार तथा आत्मतुष्टि का स्थान है। सदाचार के ज्ञान का स्रोत पुराण है तथा अपनी शैली से सुहृत् होकर आत्मतुष्टि का पथ प्रशस्त करता है। यही कारण है कि इसे प्रथम स्थान पर लिया गया है। 

इसे केवल महर्षि याज्ञवल्क्य का अपना विचार अथवा मत नहीं कह सकते हैं। समाज में देखने को मिलता है कि चिरकाल से पुराण कथा इस देश में होती आ रही है। कोई छोटे-से-छोटा ग्राम अथवा बड़े-से-बड़ा नगर ऐसा नहीं है जहाँ यह कथा न हुई हो अथवा न होती हो। आज तो पुराण कथा की बाढ़-सी आ गई है। लाखों श्रोताओं की भीड़ में महानगरों में यह चलती है।  वेद ज्ञान इन हिंदी Ved Ke Do Rup Shabdh rup aur Pratipadhy rup, ved ke bare mein, ऋग्वेद in hindi

इसे देखकर यह भी निर्णय लेना उचित नहीं होगा कि अशिक्षित, अल्पशिक्षित, श्रद्धालुओं के लिये ही यह आयोजन होता रहा है। वेद वेदाङ्गों के महान् विद्वान् गृहपति शौनक के आश्रम में सहस्रों ऋषियों को भी पुराण-विचक्षण सूत द्वारा सामान्य अवसरों पर तथा कभी-कभी दीर्घसत्रों के अवसर पर विशेषरूप से सुनाने की परम्परा का उल्लेख महाभारत तथा वायु आदि पुराणों में है। पुराण दर्शन समग्र दृष्टि, प्रथम भाग - पुराण का वेदत्व इसी भाँति अश्वमेध यज्ञ में पूरे वर्ष भर १०-१० दिन के पारिप्लव आख्यान की ३६ बार आवृत्ति का विधान शतपथ ब्राह्मण में है। १० दिन में ऋगादि १० वेदों का जिनमें नवम क्रम में पुराण है, सुनाना पारिप्लवाख्यान है। इसे ही वेद कथा कहा जाता है। इस प्रकार पुराणाख्यान की यह परम्परा चिरकाल से प्रचलित तथा वेदादिशास्त्र-सम्मत प्रमाणित होती है। याज्ञवल्क्य के शतपथादि के ये विचार ही उनकी स्मृति के इस पद्य में निबद्ध हुए हैं। पुराण की महत्ता पुराणों की विपुल संख्या से एवम् उन पर विद्वानों की टीकाओं की बहुलता से भी प्रमाणित होती है। मध्यकाल के धर्म मीमांसा परक विपुलकाय प्रायः सभी निबन्ध ग्रन्थों में पुराण वाङ्मय से पर्याप्त सहायता ली गयी है जिससे अनेक विषयों के निर्णायकमत की स्थापना उनमें हुई है। ऐसे निबन्धों में कृत्यकल्पतरु,  चतुर्वर्गचिन्तामणि, वीरमित्रोदय तथा स्मृतिचन्द्रिका प्रमुख हैं।

 

purana in hindi

Post a Comment

0 Comments