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धर्म की परिभाषा - आधार - भूमिका - सिद्धांत एवं विशेषता। हिन्दू धर्म ग्रंथो में वर्णित धर्म की व्याख्या क्या है

भारतीय धार्मिक ग्रंथों साहित्यों मैं धर्म की परिभाषा आधार भूमिका सिद्धांत एवं विशेषता क्या है। हिन्दू धर्म ग्रंथो में वर्णित धर्म की व्याख्या क्या है,


Vaisheshika Darshan वैशेषिक दर्शन के अनुसार धर्म की परिभाषा।
धर्म वैशेषिक शास्त्र के कर्ता, कणाद मुनि ने धर्म को व्याख्या इस प्रकार की है:- 

यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। 

अर्थात् जिससे इस लोक और परलोक, दोनों में सुख मिले, वही धर्म है। इससे जान पड़ता है कि जितने भी सत्कर्म हैं, जिनसे हमको सुख मिलता है और दूसरों को भी सुख मिलता है, वे सब धर्म के अन्दर आ जाते हैं। हम कैसे पहवानें कि यह मनुष्य धार्मिक है, इसके लिए 

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Manusmriti मनु स्मृति के अनुसार धर्म की परिभाषा।


मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बतलाये हैं। वे लक्षण. इस प्रकार हैं।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ 

अर्थात् जिस मनुष्य में धैर्य हो, क्षमा हो, जो विषयों में फंसा न हो, जो दूसरे की वस्तु को मिट्टी के समान, समझता हो, जो भीतर-बाहर से स्वच्छ हो, जो इन्द्रियों को विषयों की ओर से रोकता हो, जो विवेकशील हो, जो विद्वान् हो, जो सत्यवादी, सत्यमानी और सत्यकारी हो, जो क्रोधानं करता हो, वही पुरुष धार्मिक है । ये दस बातें, यदि मनुष्य अपने अन्दर धारण .धर्मशिक्षा कर ले, तो वह न तो स्वयं दुख पाये; न कोई उसको दुम्य दे सके और न वह किसी को दुख दे सके। 

मनुष्य इस संसार में जो सत्कर्म करता है, जो कुछ यह धर्म-संचय करता है, वही इस लोक में उसके साथ रहता है। और उस लोक में भी वही उसके साथ जाता है। साधारण लोगों में कहावत भी है कि, "यश-अपयश रह जायगा; और चला संब जायगा।" यह ठीक है । 

Manusmriti मनुस्मृति मैं मनुजी ने भी यही कहा है।

मृत 'परीरमुत्सृज्य काष्टलोप्टसमें जितौ । विमुखा पान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ॥ 

अर्थात् मनुष्य के मरने पर घर के लोग उसके मृत शरीर को काठ अथवा मिट्टी के ढेले की तरह स्मशान में विसर्जन करके विमुख लौट आते हैं, सिर्फ उसका सत्कर्म-धर्म-ही उसके साथ जाता है। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि, जो लोग धर्म छोड़ देते हैं-अधर्म से कार्य करते हैं-उनकी पहले वृद्धि होती है, परन्तु वही वृद्धि उनके नाश का कारण होती है। 

मनुजी ने कहा है :- अधर्मपते तापत्ततो भद्राणि पश्यति । ततःर खान जयति सनूलस्तु विनश्यति ॥ 

अर्थात् मनुष्य अधर्म से पहले बढ़ता है, उसको सुख मालूम होता है, (अन्याय से) शत्रुओं को भी जीतता है। परन्तु अन्त में जड़ से नाश हो जाता है। इस लिए धर्म की मनुष्य को पहले रक्षा करनी चाहिए। जो मनुष्य धर्म को मारता है, धर्म भी उसको मार देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है। इसी लिए व्यास मुनि ने महाभारत में शाक कोरिधीरवा में भी नहीं बोला पारिव:

Mahabharata महाभारत के अनुसार धर्म की परिभाषा।


न जात फामान भयाण लोमाद । धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः।। धर्मो नित्यः सुखाखे त्वनिये। जीवो नित्यो हेतुरस्य स्वनित्यः ।। 

न तो किसी कामनावश, न किसी प्रकार के भय से; और न लोभ से यहां तक कि जीवन के हेतु से भी-धर्म को नहीं छोड़ना चाहिये। क्योंकि धर्म नित्य है और ये सब सांसारिक सुख-दुःख अनित्य है । जीव, जिसके साथ धर्म का सम्बन्ध है, वह भी नित्य है और उसके हेतु जितने हैं, वे लव अनित्य हैं इस लिए किसी भी कारण से धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। स्वधर्म के विषय में तो भगवान कृष्ण ने गीता में यहां तक कहा है कि:- 


Bhagwad Geeta भगवद गीता के अनुसार धर्म की परिभाषा।


श्रेयान्स्वधर्मो विगणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधमें निधन श्रेयः परधर्मो भयावहः । 
अर्थात् अपना धर्म चाहे उतना अच्छा न हो; और दूसरे का धर्म चाहे बहुत अच्छा भी हो, पर तो भी (दूसरे का धर्म स्वीकार को माना जाता पर दसरे का धर्म भयानक है। इस लिए अपने धर्म की मनुष्य को यन के साथ रक्षा करनी चाहिए। मनुजी ने कहा है कि- 

धर्म एवं हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मोंन हन्तव्यो मा नो धर्मा हते। वधीत् ॥ 

अर्थात् धर्म को यदि हम मार देंगे, तो धर्म भी हमको मार देगा। यदि धर्म की हम रक्षा करेंगे, तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा। इसलिए धर्म को मारना नहीं चाहिए। उसकी रक्षा पशु और धर्मशिक्षा करनी चाहिए। यदि प्राण देने की आवश्यकता हो, तो प्राण भी दे देवे; परन्तु धर्म बचाने से हटे नहीं। यही मनुष्य का परम कर्तव्य है। वास्तव में मनुप्य और पशु में यही तो भेद है कि, मनुष्य को ईश्वर ने धर्म दिया है, और पशुओं को धर्माधर्म का कोई ज्ञान नहीं। अन्य सब बातें पशु मनुष्य में समान ही हैं। किसी कवि ने ठीक कहा है :- 

थाहारनिद्राभयमैथुनं च, सामान्यमंत्तत् पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेपामधिको विशेपो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ 

अर्थात् आहार, निद्रा, भय, मैथुन इत्यादि सांसारिफ पाते पशु और मनुष्य, दोनों में एक ही समान होती है। एक धर्म ही मनुन्य में विशेष होता है; और जिस मनुष्य में धर्म नहीं, में वह पशु के तुल्य है। इस लिए मनुष्य को चाहिए कि, अपनी इस लोक और परलोक की उन्नति के लिए सदैव अच्छे अच्छे गुणों को धारण फरे। कई लोग कहा करते हैं कि, अभी तो हमारा बहुत सा जीवन पाकी पड़ा है । जव तक बच्चे हैं, खेलें-दे, जवानी में खूब आनन्द-भोग करें; फिर जब बूढ़े होंगे, धर्म को देख लेंगे। यह भावना बहुत ही भूल की है। क्योंकि जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। न जाने मृत्यु कव आ जावे ! फिर यौवन, धन, सम्पत्ति, का भी यही हाल है। ये सब सदैव रहनेवाली चीजें नहीं है। धर्म तो मनुष्य का जीवन भर का साथी है। और मरने के बाद भी वही साथ देता है। इस लिए, चाल-अवस्था से ही धर्म का अभ्यास करना चाहिए । धर्म के लिए कोई समय निश्चित नहीं है कि, अमुक अवस्था में ही मनुष्य धर्म करे। व्यास जी ने महाभारत में कहा है:- 

Mahabharat व्यास जी के अनुसार धर्म की परिभाषा।


धृति न धर्मकालः पुरुषस्य निश्चिती। न चापि मृत्युः पुरुषं प्रतीक्षते ॥ सदा हि धर्मस्य क्रियैव शोभना । सदा नरो मृत्युमुखेऽभिवर्तते ॥

अर्थात् मनुष्य के धर्माचरण का कोई समय निश्चित नहीं है। और न मृत्यु ही उसकी प्रतीक्षा करेगी। मृत्यु ऐसा नहीं सोचेगी कि, कुछ दिन तक और ठहर जाओ, जव यह मनुष्य कुछ धर्म कर ले, तव इसका ग्रास करो। इस लिए, जब कि मनुष्य, एक प्रकार से सदैव ही मृत्यु के मुख में रहता है, तव मनुष्य के लिए यही शोभा देता है कि, वह सदैव धर्म का आचरण करता रहे। 

धृति - धृति या धैर्य धर्म का पहला लक्षण है। किसी कार्य को साहसपूर्वक प्रारम्भ कर देना, और फिर उसमें चाहे जितनी आपत्तियां श्रावे, उसको निर्वाह करके पार लगाना धृति या धैर्य कहलाता है। 

भगवान कृष्ण ने गीता में तीन प्रकार की धृति बतलाते हुए उसका लक्षण इस प्रकार दिया है:- 

Bhagwan krishana भगवान कृष्णा के अनुसार धर्म की परिभाषा।

इत्या यया धारयते मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः । योगेनाव्यभिचारियया प्रतिः सा पार्थ सात्विकी। भगवद्गीता १० १६ 

हे पार्थ, योग से अटल रहनेवाली जिस धृति से मन, प्रास. और इन्द्रियों की क्रियाओं को मनुष्य धारण करता वह धृति सात्विको है।


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