सुश्रूत संहिता पूर्व प्राचीन भारतीय शल्य चिकित्सा Susruta Samhita Purv Bhartiy shalay chikitsha parnaali
च य एवं वेद । यमित्येकमक्षरम्, एति स्वर्ग य एवं वेद । एवं हरतेदंदानेरेतेहंदयशब्दः। अर्थात् हृञ् हरणे दद् दाने और इण गतौ इन तीन धातुओं से हृदय शब्द सिद्ध होता है।
अर्थात् पाचन से बने हुए रस का आहरण, 'अहरहर्गच्छनीति रसस्तस्य च स्थनं हृदयम्' एवं समग्र शरीर में गये हुये रक्त को अशुद्ध हो जाने पर पुनः अपने में आहरण करना- (सिराभिर्हृदयं चैति ) हृ का अर्थ है तथा सर्व धातुओं को शुद्ध रक्त प्रदान करना दद् धातु का अर्थ है एवं निरन्तर संकोच और विकास रूप में गति करते रहना इण का अर्थ है ( संकोचश्च विकासश्च स्वतः कुर्यात् पुनः पुनः )। इस तरह हमारे महर्षियों ने हृदय के वास्तविक तथा विज्ञानसम्मत अर्थ को सैकड़ों वर्ष पूर्व जान लिया था, किन्तु पाश्चात्य देशों में १६२८ इस्वी में वीलियम हार्वे ने रक्तानुधावन का आवि- कार किया तथा मैलपीधी ने १६६१ ईस्वी में केशिकाओं का आविष्कार किया। इसके पूर्व उन देश वालों को हृदय के वास्तविक कार्य का ज्ञान ही नहीं था। उक्त वैज्ञानिकों ने भी जो हृदय के कार्य का पता लगाया है उसमें भी
आयुर्वेदशास्त्र रूपी ज्योति ही प्रमुख कारण रही, क्योंकि चिकित्सा का ज्ञान सर्वप्रथम भारत से ही यूनान या अरब में पहुँचा और अरब से ही यूरोप वालों ने जाना। सुश्रूत संहिता पूर्व प्राचीन भारतीय शल्य चिकित्सा Susruta Samhita Purv Bhartiy shalay chikitsha parnaali
अन्यथा पाश्चात्य देश घोर अन्धकार में मन्न थे। हृदयस्वरूप-पुण्डरी- केण सदृशं हृदयं स्यादधोमुखम् । जाग्रतस्तद्विकसति स्वपतच निमीलति । वास्तव में हृदय अधोमुख मुकुलित कमलाकृति है तथा उसका अग्र या कोरक (कलिका) आकृति वाला भाग जिसे कि हृदन ( Apex of the Heart) कहते हैं नीचे रहता है तथा जाग्रत अवस्था में मानव के क्रियाशील रहने से विशेष गतिशील तथा शयनावस्था में अपेक्षाकृत कुछ कम गतियुक्त होता है। तन्त्रान्तरों में हृदयस्वरूप-कफरक्तप्रसा-
दात्स्यायं स्थानमोजसः। मांसपेशीचयो रक्तपमाकारमधोमु- खम् । (अरुणदत्त) प्रसन्नाभ्यां कफासुग्भ्यां हृदयं पङ्कजाकृति । सुधिरं त्यादधोवस्त्रं यकृत्कोडान्तरस्थितम् ॥ (टोडरानन्द) कमल- मुकलाकारमधोमुखम् । (डल्हण) उक्त वर्णनानुसार
हृदय अधोमुख, रक्तकमल कलिका के समान नीचे की ओर नोकील और ऊपर मोटा मांसपेशी से निर्मित एक पोला अङ्ग होता है।
हृदय का स्थान-स्तनयोमंध्यमधिष्ठरस्यामाशयदर सत्व जस्तममामधिष्ठ नं हृदयं नाम' (सु० शा० अ०६) अर्थात्
वक्षस्थल के अन्दर दोनों स्तनों के मध्य में अवस्थान किया हुआ तथा आमाशय द्वार के सन्निकटस्थ तथा सत्त्वादिगुणत्रय का आधारभूत हृदयमर्म होता है। अर्थात् हृदय वक्षोगुहा तथा उदरगुहा को विभक्त करने वाली महाप्राचीरापेशी (Diaphragm) के ऊपर स्थित होता है तथा गले से निकली हुई अन्नप्रणाली हृदयसमीपवर्ती महापाचीरापेशी के विद् में से उदरगुहा में प्रवेश करके आमाशय से मिलती है। आमाशय का यह ऊपर का द्वार हृदय के बहुत समीप होता है, अतः इसे हार्दिक द्वार ( Cardiac orifice ) कहते हैं। हृदय के निर्माण व उसके अन्य अङ्गों के साथ सम्बन्ध से भी निश्चित है कि वह वचोगुहावर्ति है-शोणितकफप्रसाद
हृदयं यदाश्चया हि धमन्यः प्राणवहाः, तस्याधो वामतः प्लीहा फुफ्फुसश्च, दक्षिणतो यकृकोम च' वास्तव में महाधमनी Aorta) तथा तोरणिका धमनी व अन्य सर्व धमनियाँ हृदय से निकल कर सारे शरीर में फैली हैं। सुश्रूत संहिता पूर्व प्राचीन भारतीय शल्य चिकित्सा Susruta Samhita Purv Bhartiy shalay chikitsha parnaali
हृदय के नीचे वामभाग की ओर उदरगुहा में प्लीहा रहती है तथा हृदय के दोनों ओर उरोगुहा में फेफड़े होते हैं तथा हृदय के नीचे दक्षिण भाग की ओर उदरगुहा में यकृत् और क्लोम (पित्ताशय) रहता है। वास्तव में हृदय का अन्य अङ्गों के साथ वर्णित सम्बन्ध आधुनिक प्रत्यक्षानुमोदित है। कफरक्त-
प्रसादाव स्याद् हृदयं स्थानमोजसः । तस्य दक्षणन: कोम यकृत्फु-
फ्फुसमास्थितन् ॥ (अरुणदत्त) हृदय का आयुर्वेद में महत्वं
तथा कार्य-हृदयं चेतनास्थानमुक्तं सुश्रुत देहिनाम् । तमोऽमिभूते
तस्मिस्तु निद्रा विशति देहिनाम् ॥ (सु० शा० अ०४)
आयुर्वेदमें हृदय को चेतना का स्थान माना गया है। इसके अतिरिक्त हृदय ओज का स्थान है और प्राण का भी स्थान है
'हदि प्राणः 'प्राणाश्रयस्यौजसोऽष्टौ बिन्दवो हृदयाश्रिताः ॥ 'तत्पर-
स्यौजसः स्थानं तत्र चैतन्यसङ्ग्रहः। वास्तव में इस हृदय से
समस्त धातुओं को तथा अङ्ग-प्रत्यङ्गों को प्राणयुक्त, ओजोयुक्त और चैतन्ययुक्त जीवरक्त मिलता है । अतः इसी के कारण समग्र शरीर भी चैतन्ययुक्त हो जाता है। हृदय को मन का स्थान माना गया है, जैसा कि अष्टाङ्गहृदय सूत्रस्थान अध्याय१२ में लिखा है
हृदयं मनसः स्थानमो सश्चिन्तितस्य च । मांसपेशी वयो रक्तपमाकारमधोमुखम् ॥ योगिनो यत्र पश्यन्ति
सम्यग्ज्योतिः समाहिताः। रस प्रथम हृदय में जाता है, पश्चात्
वहीं से व्यानवायु से विक्षिप्त होकर सारे शरीर में जाता है-
रसो यः स्वच्छतां यातः स तत्रैवावतिष्ठते । ततो व्यानेन विक्षिप्त
कृत्स्नं देहं प्रपद्यते । चरकाचार्य ने हृदय के महत् और अर्थ
दो पर्याय लिखे हैं तथा इस हृदय में दश महाधमनियों लगी हुई हैं। वर्णन किया है-अर्थे दश महामूलाः समामक्ताः महाफलाः । महच्चार्यश्च हृदयं पर्यायैरुच्यते बुधैः॥ तथा चरक ने हृदय को इन्द्रियों, अर्थपञ्चक, आत्मा, मन और चिन्स्य अर्थ सभी का आश्रय माना है-पडङ्गमङ्ग विज्ञानमिन्द्रियाण्यर्थपञ्चकम् ।
आत्मा च सगुणश्चेतश्चिन्त्यश्च हृदि संस्थितम् ॥ प्रतिष्ठाथै हि
मावानामेषां हृदयमिष्यते । गोपानसीनामागारकणिकेवार्थचिन्तकैः ।।
किन्तु प्रत्यक्ष दृष्टि से इन्द्रियों का आश्रय यह वक्षोगत हृदय नहीं है और सुश्रुताचार्य ने प्राण तथा सर्व इन्द्रियों का स्थान शिर Brain, माना है, यही उपयुक्त है। चरक ने भी अनेक स्थलों पर इन्द्रियों का अधिष्ठान शिर ही माना है-
प्राणाः प्राणभृतां यत्र श्रिताः सन्द्रिय णिच तदुत्तमाङ्गमङ्गाना शिरत्यभिधीयते । आचार्य श्री गणनाथ सेनजी ने आधुनिक सुश्रूत संहिता पूर्व प्राचीन भारतीय शल्य चिकित्सा Susruta Samhita Purv Bhartiy shalay chikitsha parnaali
एनाटोमी तथा फिजियोलोजी के प्रत्यक्ष आधार से तथा कुछ आयुर्वेद के मतों के अनुसार भी इस वक्षोगत हृदय को केवल रक्त को सारे शरीर में पहुँचाने वाला अङ्ग माना है तथा आत्मा, मन, इन्द्रियाँ और बुद्धि इन सभी का स्थान मस्तिष्क है ऐसा स्पष्ट सयुक्तिक वर्णन किया है। एवं-जाग्रत- स्तदिकसाते स्वतश्च निमालात' यह अर्थ वक्षोगत हृदय में नहीं घट सकता, क्योंकि वह क्षण भर के लिये भी निमीलित (बन्द) नहीं होता है। निद्रावस्था में मस्तिष्क अवश्य निमीलन (संज्ञाग्रहण नहीं) करता है-तत्र च साझोपाङ्ग-
मस्तिष्कं सहस्त्रबदलसादृश्यात् सहस्रारमिति सर्वज्ञानप्रयत्नाकर
मन्यन्ते योगिनः। यत्तु वैधके 'बुद्धेनिंदासं हृदयं प्रदूष्य' इत्यादि
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