मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है? मैं कौन हूँ की वैज्ञानिक समझ? Mai Koun Hu mera Saurup Kya hai?
इस विषयका ज्ञान स्वतःसिद्ध, है, किसीप्रमाणके द्वारा उसकी उपलब्धि नहीं होती। यह सच है कि आत्मज्ञान स्वतःसिद्ध है । इसे सभी स्वीकार करते हैं। वेदान्तदर्शनकै भाप्यम भगवान् शंकराचार्यने कहा है कि " आत्मा ही प्रमाण... आदि व्यवहारोंका आध्रय है। अतएव आत्मा प्रमाण आदि व्यवहारोंके पहले ही सिद्ध है।" और पानात्य पण्डित टेकार्टने भी कहा है कि "मैं सोच-ता है, इसलिए मैं हूँ ।।" अर्थान अपना प्रमाण में ग्युद हूँ। किन्तु ये सबयात मन्य होने पर भी यह प्रश्न अनावश्यक नहीं है कि मैं कौन हूँ, और मेरा स्यरस क्या है ? फारण, यद्यपि आत्मज्ञान स्वतःसिद्ध है और उक्त प्रश्न-
उसर किसी बाहरी प्रमाणकी अपेक्षा नहीं रखता-अन्तदृष्टिहीके द्वारा प्राप्य -तो भी यह अन्तष्टि जब तक ज्ञानचर्चाका अभ्यास नहीं करती, तब तक मैं कौन हूँ और मेरा स्वरूप क्या है, इसके विशेष तस्वकी उपलब्धि नहीं होती, और इसी कारण आत्मस्वरूपके निर्णयमें लोगोंके बीच इतनाः मनभेद दंग्य पड़ता है। कोई कहते हैं, मेरा सचेतन देश ही मैं और मेरा स्वरूप है। कोई कहते है, मरा आरमा ही मैं हूँ, और यह चैतन्यस्वरूप है। या मेरा अर्थात भात्माका यन्धन और पिंजड़ासा है । फिर जो लोग आत्माको ही मैं अर्थान ज्ञाता कहते हैं, वे भी परस्पर एकमत नहीं हैं। उनमें भी एक गंप्रदागके लोग कहते हैं कि सब आत्मा परस्पर जुदै जुदे हैं, और
अन्य एक संप्रदायके लोग कहते हैं कि इस भेदज्ञान या अह-ज्ञानकी जड़ अध्यास, अविद्या या भ्रम है; वास्तयमें आत्मा और ना एक ही है। आत्म- मानके विषय में इस तरहके मतभेद ही इस प्रश्नकी आवश्यकताका प्रतिपादन करते हैं कि मैं कौन हूँ, और मेरा स्वरूप क्या है ? अनेक लोग समझ सकते हैं कि आत्मज्ञानके सम्बन्धमें जब इतना मनभेदे मैं कौन हूँ और मेरा रूप क्या है, यह प्रश्न अनय है, और इसे जानने- के लिए समय नष्ट न करके साइजमें जाननेयोग्य जो विषय में उन्हें जागनेने समय लगानेसे उपकार हो सकता है। लेकिन यह बात न तो संगत है और न स्वीकार ही की जा सकती है । मैं, अर्थात् ज्ञाता कौन है आक्ति ठीक स्वरूप क्या है, यह न जानकर और जाननेकी चेष्टा न करके, ज्ञान ले ज्ञेय पदार्थकी आलोचना कभी युक्तिसिद्ध नहीं हो सकती । ज्ञान जो है सो ज्ञाताकी ही एक दूसरी अवस्था है । कमसे कम ज्ञाताका स्वरूप कुछ भी जाना हुआ न होने पर, उससे प्राप्त ज्ञान और उसके द्वारा की गई ज्ञेय पदार्थकी आलोचना भ्रान्त या वृथा न होगी, यह बात कौन कह सकता है ?
अपनी दर्शनेन्द्रियके दोपके कारण मैं अगर वस्तुके यथार्थ वर्ण या आकार देख न पाऊँ, मैं कौन हूँ मैं कहाँ से आया हूँ, मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है? मैं कौन हूँ की वैज्ञानिक समझ? Mai Koun Hu mera Saurup Kya hai?
तो मेरी आँख ( दर्शनेन्द्रिय ) के द्वारा प्राप्त ज्ञान प्रान्त है, और वह संशोधनके विना ग्रहण करनेके योग्य नहीं है । इसी लिए यथासाध्य ज्ञाताके स्वरूपका निर्णय करना हमारा अवश्य कर्तव्य है। कमसे कम जब तक यह निश्चित न हो कि ज्ञाताके लिए यद्यपि अन्य विपय ज्ञेय हैं तथापि उसका आत्मस्वरूप अज्ञेय है, तब तक आत्मज्ञानके लाभकी चेष्टासे कभी नहीं निवृत्त रहा जा सकता, अर्थात् आत्मज्ञान लाभकी चेष्टा नहीं छोड़ी जा सकती। इस वातको कोई सहज ही अस्वीकार नहीं कर सकता कि ज्ञाता ही अपना प्रथम और प्रधान ज्ञेय है। बहिर्जगत्की विचित्रता हमारे चित्तको इतना अपनी ओर आकृष्ट करती है, और बहिर्जगत्के पदार्थोंके ऊपर हम लोगोंका दैहिक सुख इतना निर्भर है कि वाह्य जगत्को लेकर ही हमारा अधिकांश समय बीत जाता है। लेकिन
उस विचित्रताका अस्थायी होना और उस सुखकी अनित्यता जब जब मनु-प्यकी समझमें आई है तब तब वह आत्मज्ञान प्राप्त करनेके लिए व्याकुला हो उठा है। हमारे उपनिपद् आदि शास्त्रों में इस व्याकुलताके अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। छांदोग्य उपनिपमें श्वेतकेतुका उपाख्यान और नारद- सनत्कुमार संवाद । और वहदारण्यक उपनिपदमें मैत्रेयीका उपाख्यान ।
इसके लिए देखना चाहिए । ग्रीस देशके बुद्धिमान् विद्वानोंने भी आत्माके स्वरूपका निर्णय करनेके लिए विशेष व्यग्रता दिखलाई है। इस सम्बन्धमें सुकरातके शिष्य प्लेटोका 'फिडो' नामका ग्रंथ देखना चाहिए। यह बात परीक्षा करके देखना आवश्यक है कि आत्माकी यह उक्ति ठीक है या नहीं । कारण, इसके विल्द बहुत सी बातें कही जा सकती हैं। पहले तो अनेक लोग कह सकते हैं कि स्पन्दन आदि वाद्य किया जैसे जीवित देहके लक्षण हैं, वैसे ही चिन्तन आदि आन्तरिक क्रिया भी जीवित देहके लक्षण हैं, और उसका प्रमाण यह है कि जिन विवेक आदि शक्तियोंको आत्माकी चैत- न्यमय शक्ति कहा जाता है, उनका भी देहकी वृद्धिके साथ क्रमशः विकास और देहके क्षयके साथ क्रमशः -हास होता है। और भिन्न भिन्न जातिक जीवोंकी ओर मन लगाकर ध्यान देनेसे भी यही प्रतीत होता है; क्योंकि
हम देख पाते हैं कि जिस जातिके जीवकी देह अर्थात् मस्तिष्क और देखने सुनने आदिकी इन्द्रियाँ जितना विकासको प्राप्त हैं, उस जातिके जीवका चैतन्य भी उतना ही विकासको प्राप्त है । दूसरे, यह भी कहा जा सकता है कि देहको छोड़ देनेसे आत्माके अस्तित्वका कोई प्रमाण नहीं पाया जाता। अतएव आत्मा और आत्म-ज्ञान, ये दोनों जीवित देहके लक्षण मात्र हैं। इस संशयको दूर करना बिल्कुल सहज नहीं है। इसे मिटानेके लिए जो
युक्तियाँ और तर्क हैं वे संक्षेपसे नीचे लिखे जाते हैं- मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है? मैं कौन हूँ की वैज्ञानिक समझ? Mai Koun Hu mera Saurup Kya hai?
स्पन्दन आदि जो क्रिया या गुण सजीव देहके होते हैं वे सजीव जड़के लक्षण हैं । चे चिन्तन आदि क्रिया या गुणोंकी तरह नहीं हैं; बिल्कुल दूसरे ही ढंगके हैं। स्पंदन आदि क्रियाओं में जो स्पंदनको प्राप्त होता है, अर्थात् हिल- ता डुलता है, उसमें आत्मज्ञानके रहनेका कोई प्रमाण नहीं पाया जाता। किन्तु चिन्तन आदि विपयोंमें चिन्तितके आत्मज्ञानका होना सर्वथा निश्चित । अतएव यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि जड़के संयोग या अव-स्था परिवर्तनके द्वारा आत्मज्ञान आदि चैतन्यमय गुणोंका या क्रियाओंका उद्भव होता है । अद्वैतवादी होने पर साधारणतः जड़ शब्दका जिस अर्थम प्रयोग होता है, उस अर्थमें जड़वादी होनेसे काम नहीं चलता,
अर्थात अगर एक ही मूलकारणसे संपूर्ण जगत्की उत्पत्ति माननी है तो वह एक मूलका- रण जड़ नहीं माना जा सकता । अगर यह कहा जाय कि जड़में चैतन्य अव्यक्तभावसे निहित रहता है, तो फिर सृष्टिका मूलकारण केवल कोरा जड़ नहीं ठहरा, उसको चैतन्यमय जढ़ मानना पड़ा। युक्तिके द्वारा अगर अद्वैत-वादका प्रतिपादन करना हो तो चैतन्यमय ब्रह्म ही जगत् है, यही वेदांत का सार है।
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