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mahabharat mai paryavaran महाभारत तथा पर्यावरण विज्ञान


महाभारत तथा पर्यावरण विज्ञान mahabharat mai paryavaran aur Jal Sanrakshan Vigyaan


महाभारतकार ने वृक्षों के महत्व को जानकर महाभारत में देवों, यक्षों तथा मानवों की सभाओं के वर्णन के प्रसङ्ग में नाना प्रकार के वृक्षों, लताओं आदि के लगाए जाने का उल्लेख किया है।

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इस सन्दर्भ में यमराज की सभा वरूण की सभा' तथा कुबेर (यक्ष) की सभा' का उल्लेख सभा पर्व में मिलता है। महाभारतकार ने पर्यावरण की स्वच्छता तथा स्वास्थ्य वर्धन क्षमता को बनाये रखने के लिए गरों, महलों आदि के समीप वृक्ष, लता, कमलयुक्त पुष्करिणी के बनाये जाने का उल्लेख महाभारत में अनेक स्थानों पर किया है। इस सन्दर्भ में मयासुर द्वारा सभा निर्माण के प्रसङ्ग में वैशम्पायन द्वारा जनमेजय के प्रति चर्चा की गयी है कि उस भवन के चारों ओर अनेक प्रकार के बड़े-बड़े वृक्ष लहलहा रहे थे, सदा फूलों से युक्त तथा शीतल छाया वाले थे। साथ ही भवन के चारों ओर वन, उपवन और बावलियां भी थीं। इससे प्रतीत होता है कि महाभारतकार ने पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में ही वृक्षारोपण करने की बात कही है।'


महाभारत तथा जल संरक्षण Mahabharat Mai Jal Sanrakshan Ka Pramaan.


तत्त्ववेत्ताओं के अनुसार मानव शरीर पञ्च तत्त्वों से मिलकर बना है – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश । मानव शरीर का 2/3 भाग और उसके समस्त भार का 4/5 भाग जल ही होता है। इसी प्रकार सभी वृक्षों जीव-जन्तुओं के शरीर में

पुण्यगन्धाः स्रजस्तक्य नित्यं कामफला द्रुमाः ।। महा. भा. सभा पर्व. 8.6

नीलपीतासितश्यामैः सितैर्लोहितकैरपि। अवतानैस्तथा गुल्मैर्मजरीजारिभिः।। महा. भा. सभा पर्व. 9.3

नलिन्याश्चालकाख्याया नन्दनस्य वनस्य च । शीतो हृदयसंद्धादी वायुस्तमुपसेवते ।।

महा. भा. सभा पर्व. 10.8

तां सभामभितौ नित्य पुष्पवन्तो महाद्रुमाः। आसन् नानविधा लोलाः शीतच्छायां मनोरमाः ।। काननानि सुगन्धीनि पुष्करिण्यश्च सर्वशः। हंसकारण्डवो पेताश्चक्रवाकोपशोभितः ।। महा. भा. सभा पर्व. 3.34-35 mahabharat mai paryavaran


भी जल रहता है। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि जल, प्राणियों के लिए अत्यावश्यक है। प्राचीनकाल में वैदिक ऋषियों, शास्त्रकारों और विद्वानों ने पर्यावरण की शुद्धि बनाये रखने के लिये जल के महत्व का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में किया है। संस्कृत वाङ्मय में जल को जीवन का पर्याय माना गया है। ऋग्वेद के मंत्रानुसार शुद्ध जल में अमृत तथा औषधि का निवास होता है।

यथा – अप्स्वन्तरममृत अप्सु भेषजम्।

Raja Janak Samvaad,

Valmiki Ramayan Sanat Kumar,

महाभारत काल में जल को नारायण का स्वरूप माना जाता था। इस सन्दर्भ में वन पर्व में भगवान बाल मुकुन्द ने अपने स्वरूप की चर्चा में मार्कण्डेय के समक्ष इसका उल्लेख किया है। महाभारत के शान्तिपर्व में तुलाधार तथा जाजलि संवाद में यह चर्चा की गयी है कि सभी नदियां सरस्वती देवी का रूप है। गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं को श्री भागीरथी गङ्गा के नाम से अभिव्यक्त किया है। अतः इस विवरण से प्रतीत होता है कि महाभारत काल में जल को देवता रूप में माना जाता था। इसी कारण धार्मिक भाव के आवरण में लोग जल की स्वच्छता, पवित्रता, संरक्षण आदि को विशेष महत्व देते थे। महाभारत काल में देवनदी गङ्गा का विशेष महत्व दिया जाता था। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि गङ्गा नदी के जल में कीटाणु नहीं पड़ते हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों ने अनुसंधान के फलस्वरूप यह स्वीकार किया है कि गङ्गा जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं जो जीवाणुओं तथा अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। अतः इस नदी के जल में प्राणवायु (ऑक्सीजन) की मात्रा को बनाये रखने की असाधारण क्षमता होती है। अतः ससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाभारत काल में गङ्गा के इस



ऋ. वे. 1.30.19 2 तेन नारायणोऽप्युक्तो मम तत् त्वयनं सदा।

महा. भा. वन पर्व 189.3 ३ सर्वा नद्यः सरस्वत्यः सर्वे पुण्याः शिलोच्चयाः ।

महा. भा. शान्ति पर्व 263.42 झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जान्हवी ।।

गीता. 10.31



विशेष गुण से सभी भली-भांति परिचित थे। इसी कारण उसे देवनदी कहा जाता था। इस सन्दर्भ में गरूड़ पुराण में गङ्गा की विशेषता का उल्लेख मिलता है। महाभारतकार ने पर्यावरण की सुरक्षा के सन्दर्भ में जल के महत्व का उल्लेख महाभारत में अनेक स्थानों पर किया है। महाभारत के शान्ति पर्व में विश्वामित्र मुनि तथा चाण्डाल के संवाद में बिना जल से उत्पन्न सङ्कट का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार, त्रेतायुग के समाप्त होने तथा द्वापर युग के प्रारम्भ होने के समय प्रजा के बहुत बढ़ जाने पर उस समय इन्द्र द्वारा वर्षा बन्द कर दी गयी। जिससे नदियां सरोवर, कुएं, छोटे-छोटे जलाशय सूख गये।


जलाभाव के कारण पौसल बन्द हो गये। खेत, गौशालाएं, बाजार-हाट, यज्ञ-उत्सव आदि नष्ट हो गये। नगर उजाड़ हो गये सर्वत्र उपद्रव उपस्थित होकर पृथ्वी का बहुत बड़ा भाग निर्जन हो गया। भूख-प्यास से व्याकुल जीव-जन्तु प्रायः समाप्त हो गये और बचे हुए प्राणी एक दूसरे पर आघात करने लगे। इस कथन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बिना जल से जीवन नष्ट हो जाता है। ऐसी शिक्षा देने के उद्देश्य से मानवों में पर्यावरण सन्तुलन बनाए रखने के लिए जल के महत्व को दर्शाया गया है।


महर्षि व्यास ने जल के महत्व के साथ-साथ जल संरक्षण अर्थात् जल संचय का भी उल्लेख महाभारत में किया है। इस सन्दर्भ में भीष्म तथा युधिष्ठिर के संवाद में जलाशय निर्माण की चर्चा की गयी है। जिसके अनुसार वर्षा के जल का संचय करना अत्यन्त पवित्र तथा पुण्यप्रद कार्य माना गया है। अतः भीष्म द्वारा यह कहा गया है कि वर्षा जल के संचय करने हेतु अधिक से अधिक जलाशय खुदवाने



यस्तु सूर्यांशुसन्तप्तं यो गङ्गम् सलिलं पिबेत् । स सर्वयोनिनिर्मुक्तः प्रयाति सदनं हरेः ।। ग. पु. 9.26 '

प्रजानामतिवृद्धानां युगान्ते समुपस्थिते ।

त्रेताविमोक्षसमये द्वापर प्रतिपादने।।

गतदैवतसंस्थाना वृद्धबालविनाकृता। गोजाविमहिषीहीना परस्परपराहता।महा. भा. शान्ति. पर्व 141.14-22



चाहिए साथ ही जितने समय तक तालाब में पानी भरा रहता है उतना ही अधिक पुण्य जलाशय बनवाने वाले को मिलता है। यदि कुछ महीनों तक ही पानी भरा रहे अर्थात् जलाशय कम गहरा हो, तो थोड़ा पुण्य और यदि अधिक गहरा जलाशय होने के कारण सदैव जल भरा रहे तो अत्यधिक पुण्य प्राप्त होता है। इस कथन से यह प्रतीत होता है कि महाभारतकार ने भूमिगत जल का स्तर नीचे न हो तथा जल सङ्कट न उत्पन्न हो इसी कारण ऐसा वर्णन किया है। साथ ही यहाँ महाभारतकार ने वर्षा के जल के संचय से बाढ़ आदि की समस्या न उत्पन्न हो ऐसा विचार करके ही यह सरल समाधान सुझाया है कि जलाशय बनवाओ। अतः जल संचय का  उपाय वैज्ञानिक दृष्टि से उत्तम प्रतीत होता है। 

mahabharat mai paryavaran, Nadiyo Aur Talabo mai Jal sanchay Vivran जल की स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए महाभारतकार 


ने शान्तिपर्व में वृत्तासुर के वध से उत्पन्न ब्रह्महत्या के दोष में इसकी चर्चा की है। इस सन्दर्भ में व्यास ने ब्रह्मदेव द्वारा यह कथन प्रस्तुत किया है कि जो भी मनुष्य अपनी बुद्धि की मन्दता के कारण जल में थूक, खंखार या मलमूत्र डालेगा उसे ब्रह्महत्या का पाप लगेगा। अतः इस कथन से प्रतीत होता है कि महाभारतकार ने धर्म के आवरण में जल को स्वच्छ बनाये रखने की शिक्षा प्राणियों को दी है। जल की स्वच्छता के सन्दर्भ में अनुशासन पर्व में आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले कर्मों की चर्चा भीष्म तथा युधिष्ठिर के मध्य की गयी है,


जिसमें प्रकारान्तर से यह कहा गया है कि दीर्घायु की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को बोये हुए खेत में, गांव के आस-पास पानी में, देव मन्दिर में, गौओं के समुदाय में, देव सम्बन्धी वृक्ष तथा विश्राम स्थान के

वर्षाकाले तडागे तु सलिलं यस्य तिष्ठति ।

अग्निहोत्रफलं तस्य फलमाहुर्मनीषिणः।।

सर्वदानैर्गुरूतरं सर्वदानैर्विशिष्यते। पानीयं नरशार्दूल तस्माद् दातव्यमेव हि।। - महा. भा. अनु. पर्व 58.10-21

अल्पा इति मतिं कृत्वा यो नरो बुद्धिमोहिता।। श्लेष्म मूत्र पुरीषाणि युष्मासु प्रतिमोक्ष्यति ।। तमियं यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति। तथा वो भविता मोक्ष इति सत्यं ब्रवीमि वः | महा. भा. शान्ति पर्व 282.54-55



निकट तथा बढ़ी हुई खेती में, कभी मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। इस कथन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महर्षि व्यास ने पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में ही इसका उल्लेख किया है क्योंकि इस तथ्य से वे सर्वथा परिचित थे कि सार्वजनिक स्थानों पर मलमूत्र, थूक आदि डालने पर इन स्थानों की पवित्रता तथा स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण की क्षति होती है। इसके कारण रोगाणुओं को पनपने का अवसर मिलता है और नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। आधुनिक चिकित्सकों तथा विद्वानों के अनुसार ऐसी स्थिति में पीलिया, टाइफाइड, हैजा आदि रोग फैलते हैं। अतः यहाँ धर्म के आवरण में महाभारतकार ने भीष्म के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का उल्लेख किया है। प्राचीन ग्रन्थों जैसे – वेद, पुराण, शास्त्र आदि में जल की शुद्धि के अनेक निर्देश प्राप्त होते हैं। इस सन्दर्भ में वृहत्संहिता में प्रदूषित जल के शोधन की विधि का वर्णन मिलता है। ब्रह्मपुराण में गङ्गा को स्वच्छ रखने के निर्देश दिये गये हैं।


महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में श्रीकृष्ण द्वारा उतङ्ग मुनि को मरू प्रदेश में जल प्राप्त होने का वरदान दिये जाने का उल्लेख मिलता है। इस कथानक के अनुसार श्रीकृष्ण ने महर्षि उतङ्ग से वर मांगने को कहा, इस पर महर्षि उतङ्ग ने अपने लिये कुछ न मांगकर भगवान् श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि इस मरूभूमि में जल नोत्सृजेत पुरीषं च क्षेत्रे ग्रामस्य चान्तिके। उभे मूत्रपुरीषे तु नाप्सु कुर्यात् कदाचन् । देवालयेऽथ गोवृन्दे चैत्ये सत्येषु विश्रमे। महा. भा. अनु. पर्व. 104.54 2

अंजनमुस्तरोशीरैः शराजकोशातकामलकचूर्णैः।।कतकफलससमायुक्तैर्योगः कूपे प्रदातव्यः ।।। कलुष कटुकं लवणं विरसं, सलिलं यदि वाशुमगन्धि भवेत् । तदनेन भवत्यमलं सुरसं, सु-सुगन्धिगुणैरपरैश्च युतम् ।। बृहत. सं. 58.121-22 न दन्तधावनं कुर्यात् गङ्गागर्भे विचक्षणः । परिधायाम्बराम्बूनि गङ्गा स्रोतसि न त्यजेत् ।। सं. वाङ् विज्ञा. पृ. 19


अत्यन्त दुर्लभ है। अतः इस मरूभूमि में कोई प्यासा न रहे ऐसा वर दें। आधुनिक समय में भी श्रीकृष्ण के इस वरदान का प्रभाव थार मरूभूमि में जैसलमेर के निकट देखने को मिलता है। आज भी कम वर्षा तपती रेत और प्रतिकूल परिस्थितियों के अतिरिक्त वहां के लोगों में जल की एक-एक बूंद को संग्रह करने की अद्भुत प्रतिभा है। यहाँ वास्तविकता में जल देवस्वरूप है तथा जलस्रोत तीर्थ है। थार क्षेत्र में जल की प्रत्येक बूंद का बहुत ही व्यवस्थित उपयोग करने की आस्थाएं विकसित हैं। जल संरक्षण के प्रति इतनी चेतना भगवान् श्रीकृष्ण के वरदान का ही प्रतिफल प्रतीत होती है।

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