Ad Code

Ticker

6/recent/ticker-posts

ऐतरेयोपनिषद् द्वितीय खण्ड श्लोक ०१ से ०५ तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद, तब परमात्माने उस देवताओंके समुदायको भूख और पिपासासे संयुक्त कर दिया। aitareya upanishad adhyay 1

 ऐतरेयोपनिषद् द्वितीय खण्ड श्लोक ०१ से ०५ तक संस्कृत हिन्दी अनुवाद, तब परमात्माने उस देवताओंके समुदायको भूख और पिपासासे संयुक्त कर दिया। aitareya upanishad adhyay 1


ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन् महत्यर्णवे प्रापतंस्तमशनायापिपासाभ्यामन्ववार्जत् ता एनमब्रुवन्नायतनं नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठिता अन्नमदामेति॥१॥


व्याख्या- परमात्माद्वारा रचे गये वे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता अग्नि आदि सब देवता संसाररूपी इस महान् समुद्रमें आ पड़े। अर्थात् हिरण्यगर्भ पुरुषके शरीरसे उत्पन्न होनेके बाद उनको कोई निर्दिष्ट स्थान नहीं मिला जिससे वे उस समष्टि शरीरमें ही रहे। तब परमात्माने उस देवताओंके समुदायको भूख और पिपासासे संयुक्त कर दिया। अतः भूख और प्याससे पीड़ित होकर वे अग्नि आदि सब देवता अपनी सृष्टि करनेवाले परमात्मासे बोले-'भगवन् ! हमारे लिये एक ऐसे स्थानकी व्यवस्था कीजिये, जिसमें रहकर हमलोग अन्न भक्षण कर सकें अपना-अपना आहार ग्रहण कर सकें'॥१॥


ऐतरेयोपनिषद-तृतीय-खण्ड-मंत्र-01-से-05-तक-संस्कृत-हिन्दी-अनुवाद-सहित



ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति॥२॥


व्याख्या- इस प्रकार उनके प्रार्थना करनेपर सृष्टिकर्ता परमेश्वरने उन सबके रहनेके लिये एक गौका शरीर बनाकर उनको दिखाया। उसे देखकर उन्होंने कहा-'भगवन् ! यह हमारे लिये पर्याप्त नहीं है, अर्थात् इस शरीरसे हमारा कार्य अच्छी तरह नहीं चलनेका। इससे श्रेष्ठ किसी दूसरे शरीरकी रचना कीजिये।' तब परमात्माने उनके लिये घोड़ेका शरीर रचकर उनको दिखाया। उसे देखकर वे फिर बोले-'भगवन्! यह भी हमारे लिये यथेष्ट नहीं है, इससे भी हमारा कार्य नहीं चल सकता। आप कोई तीसरा ही शरीर बनाकर हमें दीजिये'॥२॥


॥३॥


व्याख्या- इस प्रकार जब उन्होंने गाय और घोड़ेके शरीरोंको अपने लिये यथेष्ट नहीं समझा, तब परमात्माने उनके लिये पुरुषकी अर्थात् मनुष्य-शरीरकी रचना की और वह उनको दिखाया। उसे देखते ही सब देवता बड़े प्रसन्न हुए और बोले-'यह हमारे लिये बहुत सुन्दर निवास-स्थान बन गया। इसमें हम आरामसे रह सकेंगे और हमारी सब आवश्यकताएँ भलीभाँति पूर्ण हो सकेंगी।' सचमुच मनुष्य-शरीर परमात्माकी सुन्दर और श्रेष्ठ रचना है; इसीलिये यह देवदुर्लभ माना गया है और शास्त्रोंमें जगह-जगह इसकी महिमा गायी गयी है; क्योंकि इसी शरीरमें जीव परमात्माके आज्ञानुसार यथायोग्य साधन करके उन्हें प्राप्त कर सकता है। जब सब देवताओंने उस शरीरको पसंद किया, तब उनसे परमेश्वरने कहा तुमलोग अपने-अपने योग्य स्थान देखकर इस शरीरमें प्रवेश कर जाओ' ॥३॥



अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कौँ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन्॥४॥



व्याख्या- सृष्टिकर्ता परमेश्वरकी आज्ञा पाकर अग्निदेवताने वाक्-इन्द्रियका रूप धारण किया और पुरुषके (मनुष्य-शरीरके) मुखमें प्रविष्ट होकर जिह्वाको अपना आश्रय बना लिया। यहाँ वरुणदेवता भी रसना-इन्द्रिय बनकर मुखमें प्रविष्ट हो गये, यह बात अधिक समझ लेनी चाहिये। फिर वायुदेवता प्राण होकर नासिकाके छिद्रोंमें (उसी मार्गसे समस्त शरीरमें) प्रविष्ट हो गये। अश्विनीकुमार भी प्राण-इन्द्रियका रूप धारण करके नासिकामें प्रविष्ट हो गये, यह बात भी यहाँ उपलक्षणसे समझी जा सकती है; क्योंकि उसका पृथक् वर्णन नहीं है। उसके बाद सूर्यदेवता नेत्र-इन्द्रिय बनकर आँखोंमें प्रविष्ट हो गये। दिशाभिमानी देवता श्रोत्रेन्द्रिय बनकर दोनों कानोंमें प्रविष्ट हो गये। ओषधि और वनस्पतियोंके अभिमानी देवता रोम बनकर चमड़ेमें प्रविष्ट हो गये तथा चन्द्रमा मनका रूप धारण करके हृदयमें प्रविष्ट हो गये। मृत्युदेवता अपान (और पायु-इन्द्रिय) का रूप धारण करके नाभि में प्रविष्ट हो गये। जलके अधिष्ठातृ-देवता वीर्य बनकर लिङ्गमें प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार सब-के-सब देवता इन्द्रियोंके रूपमें अपने अपने उपयुक्त स्थानोंमें प्रविष्ट होकर स्थित हो गये॥४॥



तमशनायापिपासे अब्रूतामावाभ्यामभिप्रजानीहीति। ते अब्रवीदेतास्वेव वां देवतास्वाभजाम्येतासु भागिन्यौ करोमीति। तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्गृह्यते भागिन्यावेवास्यामशनायापिपासे भवतः॥५॥



व्याख्या- तब भूख और प्यास-ये दोनों परमेश्वरसे कहने लगीं 'भगवन्! इन सबके लिये तो आपने रहनेके स्थान निश्चित कर दिये, अब हमारे लिये भी किसी स्थान विशेषकी व्यवस्था करके उसमें हमें स्थापित कीजिये।' उनके यों कहनेपर उनसे सृष्टिके रचयिता परमेश्वरने कहा-तुम दोनोंके लिये पृथक् स्थानकी आवश्यकता नहीं है। तुम दोनोंको मैं इन देवताओंके स्थानों में भाग दिये देता हूँ। इन देवताओंके आहारमें मैं तुम दोनोंको भागीदार बना देता हूँ। सृष्टिके आदिमें ही परमेश्वरने ऐसा नियम बना दिया था; इसीलिये जब जिस किसी भी देवताको देनेके लिये इन्द्रियोंद्वारा विषय भोग ग्रहण किये जाते हैं, उस देवताके भागमें ये क्षुधा और पिपासा भी हिस्सेदार होती ही हैं अर्थात् उस इन्द्रियके अभिमानी देवताकी तृप्तिके साथ क्षुधा-पिपासाको भी शान्ति मिलती है॥५॥




॥द्वितीय खण्ड समाप्त॥२॥

खण्ड ३]

ऐतरेयोपनिषद् 

aitareya upanishad adhyay 1

Post a Comment

0 Comments